May 06, 2022

तृतीयं वरं नचिकेतो वृणीष्व

त्रिणाचिकेतः (स्वर्ग्य अग्नि विद्या)

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वैसे तो नचिकेता के लिए कुल तीन ही वर उसे देने की कल्पना  यमराज के मन में थी, किन्तु नचिकेता की प्रतिभा और बौद्धिक परिपक्वता से प्रसन्न होकर उन्होंने उसे एक वर और दे दिया इस प्रकार यूँ तो तीन वर यद्यपि उसे प्राप्त हो गए थे, किन्तु उनमें से एक अतिरिक्त वर यमराज ने उस पर प्रसन्न होकर उसे दिया। उस त्रिणाचिकेत अग्नि विद्या के रहस्य को उसके लिए उद्घाटित करने के बाद वे बोले :

त्रिणाचिकेतस्त्रिभिरेत्य सन्धिं

त्रिकर्मकृत् तरति जन्ममृत्यू।। 

ब्रह्मजज्ञं देवमीड्यं विदित्वा

निचाय्येमां शान्तिमत्यन्तमेति।।१७।।

त्रिणाचिकेतस्त्रयमेतद्विदित्वा

य एवं विद्वान्ँश्चिनुते नाचिकेतम्।।

स मृत्युपाशान् पुरतः प्रणोद्य

शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके*।।१८।।

एष तेऽग्निर्नचिकेतः स्वर्ग्यो

यमवृणीथा द्वितीयेन वरेण।।

एतमग्निं तवैव प्रवक्ष्यन्ति जनास-

स्तृतीयं वरं नचिकेतो वृणीष्व।।१९।।

(यमवृणीथा -- यं अवृणीथाः)

"नचिकेता! इस अग्नि विद्या को जानकर जो विद्वान तदनुसार इस नाचिकेत-अग्नि का आवाहन करता है, वह समक्ष आई हुई मृत्यु के पाश से छूट जाता है, शोक का अतिक्रमण कर, स्वर्ग-लोक को प्राप्त कर लेता है और प्रसन्नतापूर्वक वहाँ के सुखों को भोगता है।

तुमने जो द्वितीय वर चुना था, उसे देने के लिए मैंने इस स्वर्ग्य अग्नि की विद्या का उपदेश तुम्हें दिया। लोक में इसे तुम्हारे ही नाम से जाना जाएगा। नचिकेता! अब तुम तुम्हारा मनो-वाँछित तृतीय वर माँगो।"

(यहाँ स्पष्ट है कि त्रिणाचिकेत अग्नि की उपासना करने वाला यद्यपि स्वर्ग आदि उच्चतर लोकों को प्राप्त कर लेता है, किन्तु इससे वह जन्म-मृत्यु के चक्र से छूट नहीं जाता। यद्यपि ऐसा भी कहा जाता है, कि जो ॐकार की तीन और चौथी अर्धमात्रा का साधन करते हैं वे क्रमशः ब्रह्मलोक, विष्णुलोक और शिवलोक (ईशान) को प्राप्त करते हैं किन्तु जो ॐकार की सार्ध चतुर्थ मात्रा का साधन करते हैं, वे उस अनामय पद को प्राप्त करते हैं, जिसका वर्णन शिव-अथर्वशीर्ष में इस रूप में पाया जाता है :

या सा प्रथमा मात्रा ब्रह्म-देवत्या रक्ता वर्णन यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेद्ब्रह्मपदम्। 

या सा द्वितीया मात्रा विष्णु-देवत्या कृष्णा वर्णेन यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेद्वैष्णवं पदम्। 

या सा तृतीया मात्रा ईशान-देवत्या कपिला वर्णेन यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेदैशानं पदम्।

या सार्ध-चतुर्थी मात्रा सर्वदेवत्याऽव्यक्तीभूता खं विचरति शुद्ध-स्फटिकसन्निभा वर्णेन यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेत् पदमनामयम्।।)

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