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किसी भी प्रकार से अपने अस्तित्व के भान के बाद ही बुद्धि का कार्य प्रारंभ होता है। बुद्धि, इसी भान / इस बोध का ही परिणाम होती है, और इस बुद्धि में ही अपने अस्तित्व या होने का सहज और स्वाभाविक भान अन्तर्निहित होता है। अर्थात् बुद्धि का कार्य प्रारंभ होने से पूर्व वह अव्यक्त दशा में संभावना की तरह विद्यमान होती है। बुद्धि का कार्य प्रारंभ होने के बाद ही बुद्धि अभिव्यक्त होकर जगत् और व्यक्ति, इन दो आयामों में कार्यरत हो जाती है। व्यक्त-जगत् और मनुष्य का शरीर, ये दोनों ही जिन तत्वों से बने होते हैं, वे भिन्न भिन्न नहीं हैं, और उनसे ही व्यक्ति और जगत् का अस्तित्व संभव होता है। किन्तु बुद्धि का कार्य प्रारंभ होते ही शरीर और शरीर में विद्यमान जीवन, मनुष्य की बुद्धि में, अपने अस्तित्व को बुद्धि और इन्द्रियग्राह्य संवेदनों से ग्रहण किए जानेवाले अनुभवों के आधार पर "मैं" और "मेरा संसार" में विभाजित कर लेते हैं। शरीर में विद्यमान जीवन और शरीर के साथ सहवर्ती अस्तित्व या प्रकृति एक ही अविभाज्य सत्यता होते हुए भी व्यक्ति की बुद्धि में भिन्न भिन्न दो इकाइयों में परस्पर अवलंबित सत्य की तरह पृथक् पृथक् प्रतीत होते हैं।
पृथकता की यह भावना पैदा होने के बाद ही मनुष्य का ध्यान अपने और जीवन के संभावित अर्थ और प्रयोजन पर जाता है और जीवन में सतत सुख की प्राप्ति और दुःख की समाप्ति ही जीवन का एकमात्र अर्थ और / या प्रयोजन होता है। इसके साथ यह अर्थ और / या प्रयोजन भी पुनः अपने समुदाय और समूह के संभावित हितों के संवर्धन और हानियों से रक्षा की दिशा में प्रवृत्त हो जाता है। तब विभिन्न समुदायों के हितों और लक्ष्यों के बीच टकराहटें होती हैं और यही मनुष्य की सामूहिक नियति है।
किन्तु हर मनुष्य की ही बुद्धि समय की कल्पना से मोहित होती है और अपने अपने मस्तिष्क में संचित स्मृति के आधार पर ऐसे अनुमान और कल्पना से संभावित भविष्य के चित्र की रचना भी तत्क्षण ही कर लेती है। भवितव्य (जो अवश्य ही अचल एवं अटल है) और भविष्य के इस अनुमान और कल्पना से निर्मित चित्र में अपवाद-स्वरूप कुछ समानता होती भी है तो बुद्धि उस आधार पर भविष्य को जानने और बदलने के विचार से ग्रस्त हो जाती है। सामान्य तर्क से भी यह सिद्ध किया जा सकता है कि यदि भविष्य को जान भी लिया जाता है तो भी उसे बदलने का विचार हास्यास्पद ही है, क्योंकि उस स्थिति में जिस भविष्य को जानने का दावा किया जा रहा है वह अवश्य ही उस भविष्य का त्रुटिपूर्ण आकलन था, न कि उसकी वास्तविकता का ज्ञान। इस विरोधाभास पर ध्यान न (दिए) जाने से ही भविष्य के आकलन, और भविष्यवाणी करने का तथाकथित शास्त्र अस्तित्व में आता है और निश्चित ही एक लाभदायक धंधे की तरह फलता फूलता भी रहता है। ऐसा जानबूझ कर या प्रायः अज्ञान से होता होगा। भविष्य, समय / काल और विविध घटनाओं का पूर्वानुमान और आकलन शुद्धतः भौतिक विज्ञान से संबंधित विषय है, और उस तरह से उस सीमा के अन्तर्गत सत्य है ही, इसे नकारा नहीं जा सकता, किन्तु जीवन और अस्तित्व में अनेक तलों पर होने जा रही भिन्न भिन्न असंख्य घटनाओं का पूर्वानुमान लगाना असंभव है। कल्पना से सृजित काल / समय, लोभ, भय, आशा, दुःख की आशंका, चिन्ता, उन्माद आदि से मनुष्य ऐसे किसी अनागत भविष्य को जानने और बदलने तक के आग्रह का शिकार होता है। अस्तित्व के अनेक तलों पर होनेवाली ऐसी अनेक चिन्ताएँ मनुष्य के मन को निरन्तर क्षरित (deteriorate) और विनष्ट (degenerate, destroy) करती रहती हैं। यह सब न केवल व्यक्ति के बारे में, बल्कि समुदाय और समूहों के बारे में भी पूर्ण सत्य है।
यह हमारी सबकी केवल व्यक्तिगत (individual) ही नहीं, बल्कि सामूहिक (collective) नियति भी है।
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