May 15, 2022

गीता और कठोपनिषद्

हर्षशोकौ जहाति। 

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यमराज ने कहा :

यम उवाच --

जानाम्यह्ँ शेवधिरित्यनित्यं

न ह्यध्रुवैः प्राप्यते हि ध्रुवं तत्।। 

ततो मया नाचिकेतश्चितोऽग्नि-

रनित्यैर्द्रव्यैः प्राप्तवानस्मि नित्यम्।।१०।।

जानामि अहं शेवधिः इति अनित्यं न हि अध्रुवैः प्राप्यते हि ध्रुवं तत्। ततः मया नाचिकेतः चितः अग्निः अनित्यैः द्रव्यैः प्राप्तवान् अस्मि नित्यम्।।

मैं जानता हूँ कि कर्मफलों का सातत्य और अनित्यता रूपी पूँजी से ध्रुव तत्त्व की प्राप्ति कभी नहीं नहीं होती। इसलिए, हे नचिकेता! मेरे द्वारा चित्-अग्नि का चयन किया गया, और इन्हीं अनित्य द्रव्यों की उस अग्नि में आहुति देकर मैंने यह अपेक्षाकृत नित्य 'यम' देवता होने का गौरवपूर्ण स्थान अर्जित किया । यही विद्या स्वर्ग्य-अग्नि है। 

कामस्याप्तिं जगतः प्रतिष्ठां

क्रतोरनन्त्यमभयस्य पारम्।।

स्तोममहदुरुगायं प्रतिष्ठां दृष्ट्वा

धृत्या धीरो नचिकेतोऽत्यस्राक्षीः।।११।।

कामस्य आप्तिं जगतः प्रतिष्ठां  क्रतोः अनन्त्यं अभयस्य पारम्। स्तोम-महत् उरुगायं प्रतिष्ठां दृष्ट्वा धृत्या धीरः नचिकेतः अति-अस्राक्षीः।।

नचिकेता! स्वर्ग आदि प्राप्त करने की कामनाओं की पूर्ति, जगत का नियमन, पालन, संरक्षण करने की इच्छा, और महान स्तोम, इत्यादि यज्ञ आदि कर्मों के अनुष्ठान से उस अभयरूपी अनन्तता को प्राप्त करना ही मेरा ध्येय था। किन्तु नचिकेता, तुमने तो इन कामनाओं को व्यर्थ अनुभव कर उन्हें प्रसन्नता से त्याग दिया! 

तं दुर्दर्शं गूढमनुप्रविष्टं

गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम्।। 

अध्यात्मयोगाधिगम्येन देवं

मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति।।१२।।

तं दुर्दर्शं गूढं अनुप्रविष्टं गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम्। अध्यात्म-योग-अधिगम्येन देवं मत्वा धीरः हर्षशोकौ जहाति।।

और अब तुम उस गूढ रहस्यमय तत्त्व को, जो कि पुरातन से भी पुरातन है, जो हृदयरूपी गुहा में ही छिपा हुआ है, किन्तु फिर भी जिसका दर्शन कर पाना अत्यन्त कठिन है, जानने के लिए उत्कंठित हो, जिससे अध्यात्म-योग से ही अवगत हुआ जाता है, और जिस उस चैतन्य देवता के साक्षात्कार से धीर हर्ष एवं शोक दोनों ही से ऊपर उठ जाता है!

"बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।। 

तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मी कौशलम्।।५०।।

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।। 

जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छत्यनामयम्।।५१।।

प्रजहाति यदा कामान् सर्वान्पार्थान्मनोगतान्।।"

आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।५५।।

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नचिकेता!  तुम धन्य हो!!

इस उपनिषद् में यद्यपि यमराज आचार्य की भूमिका का निर्वाह तो कर ही रहे हैं, किन्तु लौकिक आधिदैविक स्तर पर वे देवता की भूमिका में भी हैं, और इसलिए नचिकेता को आत्म-ज्ञान का उपदेश भी दे रहे हैं। 

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने जिस प्रकार उत्तम पुरुष एकवचन 'अहं' पद का व्यक्ति और ईश्वर दोनों रूपों में प्रयोग किया, ठीक वैसे ही इस उपनिषद् में यमराज ने भी किया। 

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