Ad-hoc-ism.
कविता / 06-05-2022
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हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं,
जीते जी लोग मरे बैठे हैं!
जाने किस बात का है ग़रूर,
जाने किस बात पर यूँ ऐंठे हैं!
सतह पर तैरना मुश्किल नहीं,
उनसे पूछो, जो गहरे पैठे हैं!
उनकी नस नस में है आक्रोश भरा,
जाने किस बात पर, वो भरे बैठे हैं!
जिनसे उम्मीद थी, बचाएँगे हमें,
वे ही लोग खुद भी डरे बैठे हैं।
लगा के आग, तमाशा देखनेवाले,
दूर से देखते हैं, जाकर वो परे बैठे हैं!
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'कुछ भी'
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