May 22, 2022

ॐ अक्षरब्रह्म की साधना

कठोपनिषद् अध्याय १, वल्ली २,

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अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मादन्यत्रादस्मात्कृताकृतात्।।

अन्यत्र भूताच्च भव्याच्च यत्त्पश्यसि तद्वद।।१४।। 

नचिकेता ने यमराज से प्रश्न किया कि आप धर्म और अधर्म से, इस संपूर्ण कर्म और अकर्म से, अतीत और भावी से विलक्षण जिस तत्व को देखते हैं उस तत्व के बारे में मुझसे कहिए!

गीता के अध्याय ४ के संदर्भ में इसे समझना उपयोगी होगा :

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।। 

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्षयसेऽशुभात्।।१६।।

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।। 

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।१७।।

अध्याय ३ में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं :

लोकेऽस्मिन् द्विविधानिष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।। 

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।।

न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।४।।

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।।

तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर।।९।।

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।।

असक्तो ह्यचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।१९।।

इस प्रकार नचिकेता की निष्ठा साङ्ख्य अर्थात् ज्ञान-निष्ठा है। इसलिए वह कर्म और अकर्म (तथा विकर्म) से भी विलक्षण ऐसी वस्तु की, उस तत्व की जिज्ञासा करता है जिसे यमराज देखते हैं।

तब आचार्य यमराज उस ॐ --ॐकार पद का उपदेश उसे देते हैं, जिसकी महिमा वेदों में समस्त तपों के रूप में वर्णित की गई है। तपों के माध्यम से तपस्वी जिसकी उपासना करते हैं, और जिसे जानने की उत्कंठा से प्रेरित होकर ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं ...

सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति

तपान्सि सर्वाणि च यद्वदन्ति।। 

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति

तत्ते पद्ँ सङ्ग्रहेण ब्रवीमोमित्येतत्।।१५।।

एतद् ह्येवाक्षरं ब्रह्म एतद् ह्येवाक्षरं परम्।।

एतद् ह्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्।।१६।।

एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्।। 

एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते।।१७।।

उपरोक्त मंत्रों का सन्दर्भ भी गीता के अध्याय ८ के उन श्लोकों ११,१२,१३ से है, जिन्हें कि इससे पहले के पोस्ट में उद्धृत किया जा चुका है। 

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