आत्म-ज्ञान और आत्म-निष्ठा
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भगवान् श्री रमण महर्षि के एक भक्त ने कागज के एक टुकड़े पर लिखा :
"अय्ये अति सुलभम्... "
इसके पश्चात् उससे कुछ न लिखा जा सका। अंततः जब उसकी बेचैनी महर्षि की दृष्टि से न छिप सकी, तो उसने कागज का वह टुकड़ा संकोच-पूर्वक उनके सामने रख दिया। तब महर्षि ने उस टुकड़े को "आत्म-विद्या" का शीर्षक दिया, और इस शीर्षक के साथ पाँच पदों की एक कविता की रचना की, जिसे उनके भक्तों ने बाद में अपनी अपनी भाषाओं में अनुवादित किया। कविता के अंग्रेजी अनुवाद को
"Truth -Revealed"
शीर्षक से प्रकाशित किया गया।
संस्कृत भाषा में "आत्मा" पद (या शब्द) का वही तात्पर्य होता है जो हिन्दी में "मैं", अंग्रेजी में "I" मराठी में "मी", गुजराती में "હુઁ" और தமிழ் में "நான்" का होता है।
संस्कृत भाषा में इसी आत्मा (अपने आप) को उत्तम पुरुष एक-वचन में "अहं" शब्द से व्यक्त किया जाता है। इसे यद्यपि मनुष्य और प्राणी-मात्र भी जानता तो एक ही तरह से है, किन्तु व्यक्त करते समय व्यावहारिक कठिनाई के ही कारण किसी वस्तु के नाम-रूप में ऐसा करता है। इस प्रकार अपने आपको जैसा भी जाना जाता है, उस पर उससे भिन्न कोई आवरण आरोपित कर दिया जाता है। यद्यपि यह प्रमाद (in-attention) की भूल के ही कारण होता है, किन्तु इसके कारण आत्मा के संबंध में जो अज्ञान और भ्रम उत्पन्न होता है, वही सारे दुःखों का मूल कारण होता है।
कठोपनिषद् अध्याय १, वल्ली १ में इसी तथ्य का वर्णन है :
स होवाच पितरं तत कस्मै मां दास्यसीति।
द्वितीयं तृतीयं त्ँ होवाच मृत्युवे त्वा ददामीति।।४।।
पिता के इस वचन से नचिकेता एकान्त में अनुताप करने लगा। जैसा कि पहले इंगित किया जा चुका है, पुत्र का एक अर्थ है -- आत्मज, और चूँकि 'मन' का उद्भव आत्मा ही से होता है, इस-लिए यह समझना अनुचित न होगा, कि इस विश्वजित् यज्ञ में, जिसमें कि सर्वस्व ही त्याग दिया जाता है, उशना ने अपने मन-रूपी पुत्र का दान मृत्यु को दे दिया। अवश्य ही, यह मन ही तो है, जो कि आत्मा के वास्तविक स्वरूप पर आवरण डाल देता है और यह मन ही तो है, जो पुनः उसे विक्षेप से मोहित कर इधर उधर भटकाता है।
तब उसका ध्यान इस सच्चाई पर गया :
बहूनामेमि प्रथमो बहूनामेमि मध्यमः।।
किं स्विद्यमस्य कर्तव्यं यन्मयाद्य करिष्यति।।५।।
"मैं" अनेकों में प्रथम होता हूँ / है, "मैं" अनेकों में मध्यम होता हूँ / है -- अर्थात्, चूँकि "मैं" उत्तम पुरुष एक-वचन या फिर मध्यम पुरुष एक-वचन ही हो सकता हूँ / है। फिर "मैं" मृत्यु को कैसे प्राप्त हो सकता हूँ! क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि "मैं" से यमराज का क्या संबंध हो सकता है! यमराज के लिए मेरा क्या उपयोग है!
इसी आत्मा के ज्ञान और प्रासंगिकता को दर्शाते हुए, और इसे ही ब्रह्म (तत्) के नाम से व्यक्त कर केनोपनिषद् में इस प्रकार से इसका संकेत किया गया है :
यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते।।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।४।।
यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम्।।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।५।।
यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूँषि पश्यति।।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।६।।
यच्छ्रोत्रेण न शृणोति येन श्रोत्रमिद्ँ श्रुतम्।।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।७।।
यत् प्राणेन न प्राणिति येन प्राणः प्रणीयते।।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।८।।
इस प्रकार जिस आत्मा को "अहं" पद से उत्तम पुरुष एक-वचन से जाना और व्यक्त किया जाता है और जिसे पुनः "त्वं" पद से भी मध्यम पुरुष एक-वचन से जाना और व्यक्त किया जाता है, उसे "तत्" या "ब्रह्म" पद से अन्य पुरुष एक-वचन के द्वारा भी जाना और व्यक्त किया जाता है।
एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति।
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अंग्रेजी भाषा के व्याकरण के अनुसार :
उत्तम पुरुष एक-वचन -- First Person,
मध्यम पुरुष एक-वचन -- Second Person,
अन्य पुरुष एक-वचन -- Third Person,
के सन्दर्भ में इस प्रकार समझ सकते हैं।
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