चौथा वर
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नचिकेता की प्रशंसा -- यमराज के उद्गार :
नचिकेता के विवेक, वैराग्य और परिपक्वता की परीक्षा करने के बाद उसके लिए चौथा वर प्रदान करने से पहले आत्म-ज्ञान की दुर्लभता और योग्य सुपात्र तथा अधिकारी मुमुक्षु का वर्णन इस प्रकार से किया :
नचिकेता! सुनो!!
अन्यच्छ्रेयोऽन्यदुतैव प्रेय-
स्ते उभे नानार्थे पुरुष्ँसिनीतः।।
तयोः श्रेय आददानस्य साधु
भवति हीयतेऽर्थाद्य उ प्रेय वृणीते।।१।।
श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेत-
स्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः।।
श्रेयो हि धीरोऽभि प्रेयसो वृणीते
प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद्वृणीते।।२।।
स त्वं प्रियान्प्रियरूपान्श्च कामा-
नभिध्यायन्नचिकेतोऽत्स्राक्षीः।।
नैतां सृङ्कां वित्तमयीमवाप्तो
यस्यां मज्जन्ति बहवो मनुष्याः।।३।।
दूरमेते विपरीते विषूची
अविद्या या च विद्येति ज्ञाता।।
विद्याभीप्सिनं नचिकेतसं मन्ये
न त्वं कामा बहवोऽलोलुपन्त।।४।।
अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः
स्वयं धीराः पण्डितम्मन्यमानाः।।
दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा
अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः।।५।।
न साम्परायः प्रतिभाति बालं
प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्।।
अयं लोको नास्ति पर इति मानी
पुनः पुनर्वशमापद्यते मे।।६।।
यमराज के द्वारा कहे जानेवाले उपरोक्त छः मंत्रों में, संक्षेप में तीन प्रकार के मनुष्यों की ओर संकेत किया जा रहा है :
पहले प्रकार के मनुष्य वे हैं, जो अपनी इच्छाओं के वश में होते हैं -- अर्थात् उनका मन अनेक इच्छाओं से परिचालित होकर विभिन्न प्रिय (प्रेय) विषयों की प्राप्ति और उनके उपभोग करते रहने में संलग्न रहता है।
दूसरे प्रकार के मनुष्य वे हैं, जिनकी इच्छाएँ उनके वश में होती हैं -- अर्थात् उनकी इच्छाओं पर उनके विवेक का नियंत्रण होता है, वे प्रेय को नहीं, श्रेय को चुनते हैं और श्रेय की प्राप्ति के लिए ही प्रयत्न करते हैं। इस प्रकार उनका मन विवेक से परिचालित होता है। वास्तव में ऐसे ही मनुष्यों को धीर कहा जाता है। किन्तु तीसरे प्रकार के मनुष्य वे होते हैं जो अपने आपके धीर-गम्भीर पण्डित होने के अभिमान में डूबे होते हैं क्योंकि उन्होंने शास्त्रों का अध्ययन किया होता है। उनका सारा ज्ञान बौद्धिक ही होता है और उनका मन साँसारिक विषयों और उन विषयों में प्रतीत होने वाले आभासी और अनित्य सुखों को प्राप्त करने के लिए ही लालायित रहता है। ईशावास्योपनिषद् में उपरोक्त दो प्रकार के मनुष्यों के लिए क्रमशः यह कहा गया है :
अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः।।९।।
प्रेय को सभी जानते ही है, प्रेय की प्राप्ति के लिए ही हर मनुष्य प्रयास करता रहता है। किन्तु श्रेय की ओर ध्यान तो नित्य और अनित्य के सतत चिन्तन के फलस्वरूप उत्पन्न होनेवाले विवेक, और संसार के प्रति वैराग्य के पैदा होने का ही परिणाम होता है। इस प्रकार नचिकेता विवेक और वैराग्य की परिपक्वता होने के ही कारण वह उस नित्य तत्त्व के विषय में जानना चाहता है, जो कि मृत्यु से परे है। मनुष्य के लिए यही श्रेयस्कर है।
यमराज कहते हैं कि प्रेय और श्रेय जीवन के ये दोनों लक्ष्य एक दूसरे से अत्यन्त विपरीत हैं और श्रेय को जीवन लक्ष्य की तरह ग्रहण करने से पहले आवश्यक है कि विवेक और वैराग्य प्राप्त कर लिए जाएँ।
नचिकेता! यह विवेक और वैराग्य रूपी जो दैवी संपत्ति है, तुम्हें पहले से ही प्राप्त है (जैसा कि गीता में अध्याय १६ में भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था :
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मति।।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।।५।।
जैसा कि इस उपनिषद् पर पोस्ट के प्रारंभ में ही उल्लेख किया जा चुका है, कि यह कथा प्रतीकात्मक रूप से आत्मानुसन्धान में संलग्न उस व्यक्ति की कथा भी हो सकती है जिसे कि उशना नाम दिया गया है, और नचिकेता जिसका आत्मज अर्थात् पुत्र है। चूँकि मन की उत्पत्ति आत्मा से होती है और आत्मानुसंधान किए जाने पर अहंकार- रूपी 'मन' को मृत्यु प्राप्त हो जाती है :
मृत्युञ्जयं मृत्युभियाश्रिताना-
महंमतिर्मृत्युमुपैति पूर्वम्।।
अथ स्वभावादमृतेषु तेषु
कथं पुनर्मृत्युधियोऽवकाशः।।२।।
(सद्दर्शनम्)
अन्य दृष्टि से देखें तो इस कथा को एक वास्तविक घटना के रूप में भी यद्यपि सत्य माना जा सकता है, किन्तु ऊपर उल्लिखित मंत्र ६ में जैसा कहा गया है, और वे लोग जो केवल इस लोक (और जन्म) को ही सत्य मानते हैं और मृत्यु के बाद की किसी संभावना पर सन्देह करते हैं, उन्हें इस पर आपत्ति हो सकती है। इस दृष्टि से भी नचिकेता मनुष्य का अहंकार अथवा 'मन' है, ऐसा समझा जा सकता है।
इस प्रकार द्वितीया वल्ली के ६ मंत्रों की विवेचना की गई।
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