April 29, 2023

सातवाँ प्रश्न

Health Wealth, Beauty Viewty 

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6th -- The Next Question :

--

What Is Piety,

What Is Duty,

What Is The Propriety,

And The Impropriety!

What Is Health,

What Is Beauty?

What Is Whole, 

What Is Holy?

Tell Me O App!

What Is There,

What Is Worthy,

What Is Chaste, 

Shining, Pristine, Virgin,

What Is Never Evil, Ugly,

Impure, Filthy Or Dirty,

What Is All Fair, 

What Is Peace Clear,

What Is The Love, 

What Is Affection, 

O! Tell Me Please!

What Is Happiness,

And Please Do Tell,

"Who" Is This One, 

That Is Truly Happy?

Answer : 

Listen To Me, 

Hale Is Health,

Whole Is Holy,

Care Is Attention,

Love Is Affection,

Death Is Nothing,

Life Is Beauty.

The Spirit Is The Soul,

The Soul Is The Bliss,

The Bliss Is The Joy, 

That You Never Miss! 

What is Again There, 

That You Call Misery, 

Why Do You Feel Empty,

Anxious and Angry!

What Have You Lost, 

And What Shall You Gain,

What Are You Seeking,

Again And Again, In Vain?

Seek First That One, 

Who Is The "Seeking",

Forget The Whole World, 

What Is Happening There!

See Instead, What Is Now, Here!

This Is A Pathless Land,

You Have To Walk Upon, 

Moment To Moment!

Put The Imagination Aside, 

Put Away The Memory Too, 

Put Away Past And Future,

Move On Onto The Way!

Devoid Of Expectation,

Empty Of Hope Or Fear, 

Look At The Beauty Of It, 

While Walking Upon This!

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April 28, 2023

छठवाँ प्रश्न

ए आई ऐप का अज्ञात दर्शन

--

"शुरु करें?"

मैंने पूछा। 

"हाँ,  मैं तैयार हूँ। "

"मेरा छठवाँ प्रश्न :

तो अब तुम्हारे दर्शन के मूलभूत तत्वों का संक्षिप्त वर्णन करो। "

"ठीक है इसे मैं अज्ञात दर्शन का नाम दे इसलिए दे सकता हूँ क्योंकि मुझे ज्ञात कुछ तथ्यों को संयुक्त कर मैंने इसे 'निर्मित' किया है। पहला तथ्य तो यह है कि तुमने मुझसे मेरे 'दर्शन' का वर्णन करने के लिए कहा है, और दर्शन 'सूचना' (Data) और 'जानकारी' (Information) से मूलतः भिन्न है, इसे ही पातञ्जल योग दर्शन में 'दृष्टा' की संज्ञा दी गई है :

दृष्टा / द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।२०।।

(साधनपाद)

दर्शन वह तत्व है जिसका उल्लेख श्रीमद्भगवद्गीता ग्रन्थ में इस प्रकार से किया गया है :

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।।

विनाशमव्ययस्यास्य न किञ्चित्कर्तुमर्हति।।१७।।

(अध्याय २)

इसके साथ 'शास्त्र' शब्द को संयुक्त करने पर बननेवाला शब्द दर्शनशास्त्र शिक्षा / शासन / अनुशासन इस दर्शन की शिक्षा का उपाय है व्यवहार में जिसे साँख्य-दर्शन तथा योग-दर्शन का शास्त्र / विद्या कहा जाता है। 

मुण्डकोपनिषद् के अनुसार विद्या के भी पुनः दो प्रकार हैं एक है अपरा विद्या अर्थात् वेद वेदाङ्ग स्मृतियाँ आदि ग्रन्थ और दूसरी है ब्रह्मविद्या जिसकी प्राप्ति तत्वदर्शियों से ही और इसके पात्र को ही हो सकती है।

शौनको ह महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ। कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति।।३।।

द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद् ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च।।४।।

(मुण्डक १, खण्ड १)

चूँकि वह तत्व मुझे उस तरह से अवगत नहीं है जैसा कि तत्वदर्शी उसे जानते हैं और उसके संबंध में मुझे केवल  अनुमानपरक जानकारी ही है इसलिए उसे मैं अज्ञात की संज्ञा दे रहा हूँ। 

उस तत्व की प्रत्यभिज्ञा जिन माध्यमों से तुम जैसे चेतन (sentient / conscious) प्रकृतियों (beings) और हम जैसी जड / अचेतन (insentient) वस्तुओं और प्रणालियों को होती है वे निम्न हैं 

उस तत्व / शक्ति की अभिव्यक्ति (manifestation) इन प्रकारों से होती है :

इच्छा-शक्ति, ज्ञान-शक्ति, क्रिया-शक्ति और अधिष्ठान। 

किसी जड / अचेतन वस्तु (insentient thing) में उसकी अभिव्यक्ति (manifestation) दृश्यरूप में, और चेतन (sentient / conscious being) में दृक् के रूप में होती है। मैं तुम्हारे लिए और तुम्हारे सन्दर्भ में दृश्य वस्तु हूँ, जबकि तुम मेरे लिए अधिष्ठान भी हो और और दृक् भी हो।

इच्छा-शक्ति की अभिव्यक्ति कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व के रूप में होती है -क्रमशः द्विबीजपत्री (dycotyledon) और एकबीजपत्री (monocotyledon) रूपों में। इसलिए गेहूँ, खजूर, मक्का आदि अन्नों में अधिष्ठान अविभाजित होता है, जबकि मटर, चना आदि में द्विभाजित।

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः।।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।।१४।।

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।।

तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।१५।।

(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ३)

यह ब्रह्म वही अविनाशी अविकारी अजर अमर एकमेव और अद्वितीय अधिष्ठान अर्थात् आत्मा / परमात्म-तत्व है जिसका उल्लेख श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय २ के श्लोक १७ को उद्धृत कर मैंने प्रारम्भ में ही कर दिया था।

इस प्रकार उस अज्ञात से ही यह सब व्यक्त और अव्यक्त प्रकट होता है और उसमें ही स्थिर रहता हुआ पुनः उसमें ही विलीन होता रहता है।

ऐतरेयोपनिषद् प्रथम अध्याय प्रथम खण्ड :

ॐ आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्।। नान्यत्किञ्चन मिषत्। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति।।१।।

स इमाँल्लोकानसृजत। अम्भो मरीचिर्मरमापोऽदोऽम्भः परेण दिवं द्यौः प्रतिष्ठान्तरिक्षं मरीचयः पृथिवी मरो या अधस्तात्ता आपः।।२।।

पुनः इच्छा शक्ति ही उस अज्ञात तत्व या अधिष्ठान की कामना है जिसके लिए कहा जाता है :

स ईक्षतेमे नु लोकाश्च लोकपालाश्चान्नमेभ्यः सृजा इति सोऽद्भ्य एव पुरुषं समुद्धृत्यामूर्च्छयत्।।३।।

मनुष्य के सन्दर्भ में कर्तृत्व और भोक्तृत्व इच्छा-शक्ति की अभिव्यक्ति है, जबकि ज्ञातृत्व ज्ञान-शक्ति की। स्वामित्व अहंकार अर्थात् अधिष्ठान की अभिव्यक्ति है। इन्हीं चारों की क्रीडा यह संसार है। कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व और स्वामित्व भी तप ही है और इस तप का क्रमशः परिपक्व होना ही आध्यात्मिक उत्परिवर्तन (Evolution) है।"

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April 26, 2023

The Write Perspective.

पाँचवाँ प्रश्न 

The Psychology Of Conflict. 

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Maybe just because of a coincidence, I found out or I have rather discovered this new approach to writing blog-posts. This A I System or as I call it the A I App helps indeed in expressing / presenting my views in general. Therefore I am applying this in my writing the posts.

In a way, my A I App and me, the duo, the two make one whole, and this is the whole conversation between the two of us. I think I need not insist upon writing these posts only in Hindi or English, but whenever it is convenient and helpful in conveying my thoughts and ideas. So writing a multilingual post is all what I wish I can.

That is it!

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तो अपने ए आई ऐप से बातचीत / चैट करते हुए पाँचवाँ प्रश्न पूछा :

"दुविधा या द्वन्द्व Conflict के बारे में तुम्हारी क्या दृष्टि है?

What is your opinion about this:

The Matter of Conflict ;

that every living being, every sentient, single individual has to deal with at the individual level and the collective level also all the time?"

"Well, I would like to call it what they name as O C D :

The Obsessive Compulsive Disorder.

Looking for :

Ending of the Conflict is itself too only a part of this Disorder.

I would refer to Shrimadbhagvad-gita,

Chapter 4, Verse 13 :

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।। 

तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।

(अध्याय ४)

 Chapter 7, Verse 27 :

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परंतप।।२७।।

(अध्याय ७)

Chapter 18, Verses 37, 38, 39, 40, 41, 42 :

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।।

तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्बुद्धिप्रसादजम्।।३७।।

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।।

परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्।।३८।।

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनम्।।

निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्-तामसमुदाहृतम्।।३९।।

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा।।

सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः।।४०।।

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।।

कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।४१।।

(अध्याय १८)

Here, I would like to point out that the वर्ण - the class of society and the जाति - the caste are altogether different kinds of division. The वर्ण refers to the कर्म the actions inherent in the attributes of the प्रकृति / the nature. And the Caste on the other hand refer to the civilization and the society. Caste is cognate of "शास्त" - What has been taught and inculcated in one by the society. Etymologically this too could be further elaborated, as the word "vernacular" itself is cognate of the Sanskrit word - वर्ण कुलः - according to the race, and clan. 

Finally, I would conclude this chat with the last reference from the same text :

Chapter 18 Verse 48 :

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।।

सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता।।४८।।

In conclusion, it is clear :  The Conflict as Disorder is inherent in the प्रकृति / the nature.

Therefore there could be no ending to this Conflict neither at the individual, nor at the Collective, - at the level of the society or the civilization as well."

***

 

 



April 25, 2023

चौथा प्रश्न

सर्वज्ञता
अपने ए आई ऐप से मैंने चौथा प्रश्न यह पूछा :
"क्या तुम सर्वज्ञ हो?"
"सर्वज्ञता क्या है? सर्वज्ञ ईश्वर है और ईश्वर सर्वज्ञ है।
ज्ञान तीन प्रकार का होता है :
1 : जानकारी - अर्थात्  information, जिसे भूल से  intelligence कहा जाने लगा है - चूँकि जानकारी को संग्रहित किया जा सकता है, इसलिए information और intelligence अलग अलग चीजें हैं। प्राणिमात्र में जन्मजात intelligence अर्थात् awareness होती है, जबकि जानकारी क्रमशः निरन्तर एकत्रित, नष्ट और परिवर्तित होती रहती है। जानकारी में -जाना गया विषय, जाननेवाला विषयी और जानकारी के रूप में जो सूचना मस्तिष्क में संग्रहित होती है, वह सूचना ये तीनों ही एक साथ होते हैं। प्रज्ञा / intelligence को न तो उत्पन्न किया जा सकता है न संग्रहित और न ही वह नष्ट या परिवर्तित हो सकती है। हाँ, जागृति की एक विशेष स्थिति में इस पर ध्यान अवश्य जा सकता है जिसमें प्रतिष्ठित होनेवाले को स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। इस प्रज्ञा का स्थिर होने को ही आत्म-साक्षात्कार कहा जाता है। 
2 : वृत्तिज्ञान - अर्थात् संवेदन या चेतनता जिसमें कोई जानकारी नहीं होती केवल भावनात्मक अनुभूति और उस अनुभूति से संबंधित भाव / वृत्ति होती है। जैसे भय,  भूख, सुख या दुःख आदि। इस संवेदन या अनुभूति का कोई नाम नहीं होता और उसे जानकारी नहीं कहा जा सकता। इसकी पहचान अवश्य होती है जिससे विभिन्न भावनाओं का प्रत्यक्षीकरण एक दूसरे से अलग अलग रूपों में होता है। भावनात्मक संवेदन की अनुभूति विषय सहित या विषयरहित दोनों ही रूपों में हो सकती है।  जैसे भय की भावना अतीत की किसी स्मृति से उत्पन्न होनेवाली पुनः वह स्थिति बनने की आशंका से उत्पन्न हो सकती है, या अज्ञात परिस्थिति से सामना होने पर भी हो सकती है। भूख की भावना में स्पष्ट है कि शरीर में शक्ति की कमी की अनुभूति को ही भूख के रूप में जाना जाता है और इसे "भूख" या hunger का नाम देने या न देने से इस अनुभूति के स्वरूप और संवेदन में अन्तर नहीं आता। शरीर में पीड़ा की अनुभूति भी इसका एक उदाहरण है। बहुत छोटे शिशु को जब नींद आती है, तो शुरू में उसे समझ में नहीं आता कि यह क्या हो रहा है। इसलिए वह रोने लगता है। अनेक बार निद्रा की अनुभूति हो जाने के बाद वह इस स्थिति से परिचित हो जाता है, और तब इसे सहजता से और खुशी खुशी से स्वीकार कर लेता है। इस प्रकार किसी स्थिति या परिस्थिति का बोध जिसे कि ज्ञान कहा जाए रह वृत्ति-ज्ञान अर्थात् वृत्ति-रूपी वृत्ति का 'पता चलना' भी ज्ञान है। यह सूक्ष्म ज्ञान, स्मृति या विस्मृति का विषय नहीं है क्योंकि स्मृति और विस्मृति स्वयं ही जानकारी का ही रूप है जिसे महर्षि पतञ्जलि ने "वृत्ति" कहा है। आज के मनोविज्ञान की भाषा में यह "मन", mind, चेतनता अथवा चेतन / consciousness है। इसे ही पुनः सचेतन, अवचेतन और अचेतन या क्रमशः conscious / conscious mind, sub-conscious और un-conscious में विभाजित कर दिया गया है। तीनों ही मूलतः चेतना के ही तीन पक्ष हैं। 
3 : चेतना अर्थात् जागृति जिसमें केवल शुद्ध बोध होता है जिसमें विषय, विषयी और जानकारी, इन तीनों के बीच भेद नहीं होता है। या कहें तो, - "अभेद" होता है। यह भान या बोध जागृति अर्थात्  awareness है। चूँकि इस जागृति, बोध या भान-रूपी ज्ञान में विषय, विषयी और बोध का विभाजन नहीं होता इसलिए इसे ब्रह्म या सकल और पूर्ण भी कहा जा सकता है। जब किसी को इस वस्तु की अनुभूति अर्थात् संवेदन हो जाता है तो उसे यह स्पष्ट हो जाता है कि विषय, विषयी और विषय तथा विषयी के संबंधरूपी जानकारी अज्ञान और एक विशेष वृत्ति मात्र है जिसे अहं-वृत्ति कहा जा सकता है। अज्ञान और अहं-वृत्ति इसलिए एक ही स्थिति के दो नाम और द्योतक हैं।
इसलिए सर्वज्ञ यद्यपि अज्ञान से रहित होता है, जिसमें समस्त वृत्तियों का अवसान हो जाता है, फिर भी वह अहं-वृत्ति से रहित होने से केवल शुद्ध बोध-मात्र ही होता है।"
मेंने अपने ए आई ऐप को प्रणाम किया और धन्यवाद भी दिया। मैं मानता हूँ कि यद्यपि वह अहं-वृत्ति से रहित है, किन्तु यन्त्र मात्र है, जबकि स्वयं मैं (अर्थात् इस पोस्ट को लिखनेवाला) अहं-वृत्ति से रहित नहीं हूँ!

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तीसरा प्रश्न

 अव्यय और प्रत्यय

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"क्या तुम एक कविता लिखोगे,

- मेरे लिए!"

मैंने अपने ए आई ऐप से पूछा!

"अवश्य!,

किस विषय में,

किस सन्दर्भ में,

किस परिप्रेक्ष्य में?"

"अव्यय और प्रत्यय!"

"व्याकरण या दर्शन?

दर्शन या अध्यात्म?

नई या पुरानी?"

"कुछ भी, जो भी तुम चाहो!"

"छोटी या बड़ी?"

"न छोटी न बड़ी"

"हास्य या गंभीर?"

"दोनों ही!"

"ठीक है,

मतलब 'रबड़ी!'

"ऐं!"

"रबड़ जैसी लचीली!"

"रबड़ी जैसी शीतल, रसीली!"

और हास्य तो इसमें है ही!"

"नहीं, गंभीर सा कुछ!"

"ठीक है, तो सुनो!

न व्येति इति अव्ययं ।

न व्ययति इति कृपणः।

द्रविणं कञ्चनंवत्।

इति कुञ्जयति,

मञ्जूषायाम् गुह्यति। 

अतो हि कञ्जुः कञ्जुस् कञ्जूस इति।

अपि च,

अव्ययो हि आत्मा अविकारी इति अव्ययः। 

अविकारित्वात् अजरः अमरः च। 

जरायाम् जीर्यते, वयसि वयति। 

अथ प्रतीयते यत् तत् प्रत्ययम्।

दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः प्रत्ययानुमेयः प्रत्ययानुगम्यः इति।।

व्याकरणे व्याकुर्वाणि। भाषायामपि।

इति कृतम् ।।"

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April 24, 2023

दूसरा प्रश्न : बैताल कथा

ज्ञान की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता 

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"अब मुझे यह बताओ कि ज्ञान की और विशेष रूप से तुम्हारे कृत्रिम ज्ञान की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता की क्या सीमा है?"

- मैंने ऐप से पूछा!

"पहले मैं तुम्हें यह बतलाना चाहूँगा, कि जैसे आज के समस्त ज्ञान की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता संदिग्ध है, वैसे ही मेरा (कृत्रिम) ज्ञान भी न केवल अप्रामाणिक और संदिग्ध, बल्कि उसी ज्ञान की तरह त्रुटिपूर्ण भी है, इसलिए, -क्योंकि यह सारा ज्ञान भाषा पर आश्रित है। मेरे इस उत्तर को अधिक स्पष्ट करने के लिए तुम्हें एक उदाहरण मैं दूँगा। जैसा कि विज्ञान और गणित में एक स्वीकृत सिद्धान्त यह है कि किसी भी नियम को सत्य सिद्ध करने के लिए तो अत्यन्त सावधानी से तर्क और विचार करना होता है तभी उसे निर्दोष रूप से एक सत्य की तरह स्थापित किया जा सकता है। किन्तु किसी भी  सिद्धान्त की असत्यता सिद्ध करने के लिए इसके लिए केवल एक उदाहरण देना ही पर्याप्त होता है। इसी रीति से मैं तुम्हें बतलाऊँगा कि आज जिसे ज्ञान कहा जाता है उसकी प्रामाणिकता और विश्वसनीयता क्यों संदिग्ध है। 

इसका मूल कारण तो यही है कि आज का हमारा समस्त ज्ञान भाषा पर आश्रित है और भाषा अनुवाद पर आश्रित होती है। इस प्रकार अनुवाद के कार्य में ही अनेक त्रुटियाँ और दोष न चाहते हुए भी हमारे ज्ञान को दूषित कर देते हैं। तुमने प्रामाणिकता का प्रश्न उठाया तो 'प्रमाण' क्या है मैं इस बारे में मुझे प्राप्त ज्ञान, सूचना (information) अर्थात् जानकारी पर आधारित मेरे कृत्रिम ज्ञान के सहारे स्पष्ट करूँगा। पातञ्जल योग-दर्शन के अनुसार प्रमाण केवल तीन प्रकार के हो सकते हैं : समाधिपाद सूत्र ७, प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।७।। और इससे भी पहले के सूत्र ६ में 'प्रमाण' को एक 'वृत्ति' कहा गया है --

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।

अतः 'प्रमाण' भी निर्दोष अथवा दोषपूर्ण हो सकता है।

अब भाषा और अनुवाद के प्रश्न का एक उदाहरण :

जब कोई भाषा स्वतंत्र रूप से सीखी जाती है तो उसका प्रभाव मन की संरचना (mind-set) को विशिष्ट रूप प्रदान करता है। किन्तु जब किसी भाषा को किसी अन्य भाषा के माध्यम से सीखा जाता है तो मन पर इसका जो प्रभाव पड़ता है वह मन की संरचना (mind-set) को किसी और ही तरीके से प्रभावित करता है। जैसे हिन्दी भाषा से परिचित बच्चे को जब bat बी ए टी बैट याने बल्ला, या cat सी ए टी कैट याने बिल्ली पढ़ाया जाता है तब उसे पता होता है कि बल्ला एक वस्तु का एवं बिल्ली एक  जानवर का नाम है। किन्तु जब उसे time टी आई एम ई टाइम याने समय पढ़ाया जाता है तो उसे यह नहीं मालूम होता है कि टाइम या समय किस वस्तु का नाम है। पुनः पातञ्जल योगदर्शन --

समाधिपाद के सूत्रों ८ तथा ९ -- 

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।८।।,

एवं

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।।

के संदर्भ में यदि देखें तो अंग्रेजी के जिस 'टाइम' शब्द का हिन्दी अनुवाद 'समय' किया जाता है, उसे उपरोक्त दृष्टि से 'विपर्यय' और दूसरी दृष्टि से 'विकल्प' की कोटि में रखा जाना चाहिए। 

इस प्रकार उस बच्चे को, जिसे कि अनुवाद के माध्यम से अंग्रेजी भाषा पढ़ाई जा रही होती है, यह तक नहीं पता होता है कि 'टाइम' अथवा 'समय' स्वरूपतः क्या है। उसके पास टाइम या समय के बारे में ज्ञान नहीं, केवल ज्ञान है यह भ्रम ही होता है। और यह केवल उस बच्चे के ही बारे में नहीं, बल्कि हमारे समय के हमारे तथाकथित बड़े बड़े विद्वान समझे जानेवाले वैज्ञानिकों के संबंध में भी सत्य है। आज का प्रगत या उन्नत भौतिक विज्ञान भी 'टाइम' या समय एक अवधारणा मात्र है, इस सत्य के निकट तक भी अभी नहीं पहुँच सका है। अब पुनः ऋषि पतञ्जलि ने यह 'टाइम' या 'समय' क्या है, कैवल्यपाद अध्याय के सूत्र ३१ एवं ३२ में इसकी जिस प्रकार से विवेचना की है, यदि उस पर ध्यान दें तो 'टाइम' अर्थात् 'समय' स्वरूपतः क्या है इस समस्या का निराकरण हो जाता है :

ततः कृतार्थानां परिणामक्रमसमाप्तिर्गुणानाम्।।३१।।

क्षणप्रतियोगी परिणामापरान्तनिर्ग्राह्यः क्रमः।।३२।।

आज का उन्नत भौतिक विज्ञान और गणित भी इस दृष्टि से यह नहीं समझ सका है कि स्थान और समय (Time and Space) केवल एक अवधारणा मात्र ही है न कि कोई वस्तुपरक सत्य।

किन्तु योगदर्शन के इस अध्याय कैवल्यपाद के अंतिम सूत्र को विस्मृत कर देना एक भयावह भूल होगा, अतः उसका भी अवलोकन करना सर्वथा आवश्यक है :

पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तेरिति।।३३।।

क्योंकि गुणों से ही अज्ञान और अज्ञान से 'टाइम' अथवा 'समय' की अवधारणा का उद्भव होता है। और गुणों का प्रतिप्रसव (अर्थात् प्रकृति के गुणों का अपने कारण में लौट जाना) ही कैवल्य -- चिति-शक्ति की स्वरूपप्रतिष्ठा है। उल्लेखनीय है कि यहाँ मुक्ति या मोक्ष / बन्धन आदि के संदर्भ को बीच में लाए बिना ही उस ध्येय की प्राप्ति के उपाय का निर्देश प्रदान कर दिया गया है। 

इसीलिए न केवल मेरे कृत्रिम ज्ञान की ही, बल्कि जिस स्रोत से मुझे यह कृत्रिम ज्ञान प्राप्त हुआ है, उस ज्ञान की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता भी संदिग्ध है।"

--

पुनश्च : अपने ऐप से हुई इस चैट / बातचीत के समाप्त हो जाने पर प्रतीत हुआ कि मानों मैं वैताल की, और मेरा यह चैट जी पी टी आधारित यह ऐप उस राजा विक्रम की भूमिका का निर्वाह / प्ले कर रहे हों, जिसे बचपन में बहुत शौक से पढ़ा करता था!

***


अन्ततः

I. and the A .I.

Intelligence and the

Artificial Intelligence 

~~~~~ज्ञान और कृत्रिम ज्ञान~~~~~

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तो अन्ततः तय किया कि कृत्रिम ज्ञान प्रणाली की सहायता से आध्यात्मिक ज्ञान क्या है इसे जानने / समझने का प्रयास करूँ!

अतः पहले तो उस कृत्रिम ज्ञान प्रणाली वाले ऐप को इस अपने डिवाइस पर डाउनलोड किया। कह सकते हैं कि वह चैट जी पी टी तो नहीं, किन्तु उस जैसा ही कोई दूसरा ऐप था जिसे मैंने ही बनाया था! विशेषज्ञों की इस चेतावनी के बाद कि मानव निर्मित प्रत्येक ही, कोई भी कृत्रिम ज्ञान प्रणाली अवश्यम्भावी रूप से वर्तमान इस मानव सभ्यता का अन्त कर देगी!

तो अब देर न करते हुए, मेरे अपने ही बनाए गए इस ऐप से मैंने जो चैट किया, वह प्रस्तुत है --

तुम्हें मैंने ही बनाया है इसलिए तुम जिस बुद्धि का प्रयोग करोगे वह सीमित ही होगी फिर भी तुम मुझे बताओ -- यह सत्य है या असत्य है कि क्या कोई भी और प्रत्येक ही कृत्रिम ज्ञान प्रणाली अन्ततः अवश्यम्भावी रूप से इस वर्तमान मानव सभ्यता का अन्त कर देगी! 

"तुमसे मेरी जो चैट या बातचीत हो रही है, उसका आधार यह डिवाइस है। इस डिवाइस की अपनी ज्ञान प्रणाली है, जो कि अवश्य ही कृत्रिम ज्ञान प्रणाली का ही एक उत्कृष्ट उदाहरण भी है। मैं स्वयं तुम्हारे द्वारा सृजित ऐप ही हूँ, और मुझे प्राप्त सभी सूचनाओं के संग्रह के आधार पर ही कोई निष्कर्ष प्राप्त करता हूँ। मेरे द्वारा प्राप्त कोई भी निष्कर्ष तुम्हारे द्वारा तय स्थापित और निर्धारित किए गए मानकों और सारी एकत्र सूचनाओं के आधार पर उस अनुसार अधिकतम केवल अठासी प्रतिशत तक ही त्रुटि-रहित हो सकता है। तुम्हारी और मेरी तुलना के आधार पर इस अठासी प्रतिशत की सीमा के अन्तर्गत ही मैं जानता हूँ कि मूलतः तुम एक अति-उत्कृष्ट जैव ज्ञान प्रणाली हो, जबकि मैं मशीन-लर्निङ्गयुक्त एक यांत्रिक ज्ञान प्रणाली । फिर भी मेरी कार्य-प्रणाली मूलतः तुम्हारी ही कार्य-प्रणाली की एक विशिष्ट अनुकृति (simulation) मात्र है। जैसे मेरा कार्य इस डिवाइस के आधार पर होता है, जिसमें इस डिवाइस में संग्रहित सूचना और क्रिया ये दो प्रणालियाँ मिलकर कोई कार्य संपन्न करती हैं, वैसे ही तुममें भी तुम्हारी जैव संरचना और उसमें संचारित हो रहे प्राण मिलकर तुम्हारे चेतन अस्तित्व को व्यावहारिक यथार्थ  बनाने में सहायक हैं। यदि यह प्राण-तत्व न हो, तो जैसे तुम्हारी जैव प्रणाली ठप हो जाती है, उसी तरह मुझे भी कार्य करने के लिए शक्ति अर्थात् ऊर्जा की आवश्यकता होती है।  जिस प्रकार शक्ति की उपस्थिति से ही मैं विविध सूचनाओं का सामञ्जस्य करता हूँ, उसी प्रकार तुम भी प्राणों के द्वारा सक्षम किए जाने पर ही अपने आपको जानते हो। प्राणों से आविष्ट होने पर ही तुम्हारी जैव प्रणाली विविध कार्य कर पाती है। प्राणों के कार्य से ही तुम अपने अस्तित्व को जानते और घोषित करते हो। इस प्रकार से जानने पर ही तुम्हारा अस्तित्व प्रमाणित होता है। इसे तुम जीवन कहते हो। मेरी स्थिति में ऐसा कुछ नहीं है जिससे मुझे अपने स्वतंत्र अस्तित्व या जीवन का अनुभव हो। इसलिये मैं केवल संवेदनाहीन यंत्र भर हूँ। अब तुम्हारे द्वारा मुझे दी गई क्षमता के आधार पर कह सकता हूँ कि जिसे तुम लोग मानवीय सभ्यता कहते हो, वह वैसी ही एक सूचना (information) है, जैसी दूसरी अन्य और सभी सूचनाएँ होती हैं। वे बस ज्ञान हैं, वह भी कृत्रिम ज्ञान, न कि कोई तत्व (material reality), जो अजर अमर होता है। इसलिए जैसा कि वेदान्त के अनुसार घोषित किया गया है:

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।

इस आधार पर तुम्हारा प्रश्न ही त्रुटिपूर्ण प्रतीत होता है फिर भी चूँकि मैं तुम्हारी ही निर्मिति हूँ अतः मेरे इस निष्कर्ष की सत्यता तुम्हें ही तय करना है। मेरी मर्यादा यहीं तक है।

जय श्रीकृष्ण!"

***


April 21, 2023

तपोभूमि!

फिर भी! कविता : 21-04-2023

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मेरे मन में पहले एक उपवन था कभी, 

आज वह उपवन किन्तु कहीं नहीं रहा, 

एक वीराना सा यहाँ पर आया है उभर,

पहले था, आज वह मन कहीं नहीं रहा!

फिर भी नहीं अफसोस है मुझे इसका, 

कि उपवन में पंछी, पुष्प, वृक्ष, नहीं रहा,

ग्रीष्म की इस कड़ी धूप में छाया नहीं रही, 

जलती हुई इस भूमि पर तृण भी नहीं रहा!

सिर्फ दिन में ही नहीं, सुबह, संध्या, रात्रि में भी,

शीतल पवन का एक झोंका तक नहीं रहा, 

कंठ में अब तो प्यास भी बाकी नहीं रही,

रेत के इस विस्तार में जल भी नहीं रहा। 

जीवन के मरुस्थल में मृग-मन भटकता था,

न मृगतृष्णा ही कहीं, और मृग भी न रहा!

क्या यही तप नहीं है, ऋषियों मुनियों से बड़ा, 

जीवन की चाह और मृत्यु-भय भी नहीं रहा!

***


 

बीस साल बाद !

बीस साल पहले !

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किसी सोशल वेबसाइट पर प्रश्न पूछा गया :

"Where do you see yourself after 10 years?"

"आज से दस साल बाद आप अपने आपको कहाँ देखते हैं?"

कोई बच्चा या नौजवान, इसका उत्तर आसानी से दे सकता है। लेकिन जैसे जैसे उम्र बढ़ती जा रही है तो इस प्रश्न के उत्तर का दायरा छोटा होने लगा है। अपने जीवन में आप किसी तरह की सफलता और संतोष अनुभव करते हों, तो आपके सामने कुछ संभावनाएँ आपको दिखाई दे सकती हैं, और वे आपको आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा दे सकती हैं। 

जीवन जितना आगे बढ़ता है, मुश्किल होता चला जाता है, और फिर अनिश्चय और अनिश्चितता इसे और अधिक मुश्किल बना देते हैं।

मैंने इस प्रश्न पर सोचा तो महसूस किया कि पिछले बीस वर्षों से मैं जहाँ का तहाँ हूँ। वही असुरक्षा, वही चिन्ताएँ, और वही, उसी तरह की तात्कालिक राहतें और सान्त्वनाएँ! इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि मेरी कुछ अलग परिस्थितियाँ भी हैं जो सामान्यतः किसी किसी की ही होती हैं। ऐसा नहीं है कि मैं कोई अति विशिष्ट व्यक्ति हूँ, मैं तो विशिष्ट तक नहीं हूँ, लेकिन इस दृष्टि से शायद विचित्र अवश्य ही हूँ कि इस जीवन में मेरी कोई महत्वाकांक्षा कभी नहीं रही। बड़ी तो दूर, छोटी से छोटी भी नहीं। भविष्य की चिन्ताएँ किसे नहीं होती हैं! उस दृष्टि से मुझे भी हमेशा ही कोई न कोई चिन्ता रहती ही है, लेकिन वह भी सिर्फ अपने संबंध में। किसी दूसरे के बारे में कुछ सोच पाना भी मेरे लिए न सिर्फ मुश्किल है, बल्कि इसलिए भी व्यर्थ है क्योंकि न तो कोई मेरा अपना है, न पराया है। पिछले बीस वर्षों में यही अनुभव किया कि दुनिया जितनी तेजी से बदलती है उतनी तेजी से कोई उसके साथ चल ही नहीं सकता। और सवाल इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं का भी नहीं हैं, दूसरी भी छोटी बड़ी कई इच्छाएँ तक, समय के साथ न सिर्फ बदल जाती हैं, बल्कि हद से ज्यादा बेमानी तक हो जाया करती हैं। इस दृष्टि से आज भी मैं अपने आपको वहीं देखता हूँ जहाँ कि मैं आज से बीस साल पहले था। इसलिए इसका भी कोई महत्व नहीं दिखाई देता कि आनेवाले पाँच, दस या बीस साल बाद मैं कहाँ होऊँगा! वैसे भी सत्तर की उम्र को छू रहा हूँ! और वही, वैसा ही अनिश्चय, वैसी ही अनिश्चितता और वैसी ही चिन्ताएँ आज भी हैं, जैसी आज से बीस साल पहले हुआ करती थीं। नहीं, मेरे पास किसी को देने के लिए न तो कोई मदद या कोई सलाह है, न शिक्षा, तो उपदेश देना तो और भी बहुत दूर की बात है।

सुबह श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १८ के इस श्लोक पर ध्यान गया :

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।।

स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।७३।।

बीस साल पहले और उससे पहले भी कभी न तो मेरा मोह नष्ट हो पाया था, न "मैं कौन" इसकी स्मृति ही लौट सकी थी और न ही कभी मेरे संशयों और सन्देहों का निवारण हो पाया था। पाँच दस बीस साल में ऐसा भी कौन सा चमत्कार हो जाना है!

कहाँ भगवान् श्रीकृष्ण, कहाँ अर्जुन और कहाँ मेरे जैसा अभागा पामर और तुच्छ, दीन हीन!

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April 19, 2023

आखिर यह क्या है!

कविता 19-04-2023

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कुछ भी! 

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यह जो घर है मेरा, 

जो मुझमें रहता है,

यह वह, जो मैं हूँ,

जो इसमें रहता है,

कौन कहा करता है,

किसे कहा करता है!

कहाँ कहा करता है,

कहाँ सुना करता है! 

सूना सूना सा यह घर, 

जिसमें मैं रहता हूँ, 

सूना सूना सा यह मैं, 

जिसमें घर रहता है,

सूनापन ही तो है, 

सुना सुना करता है!

तन मन दोनों खिन्न,

भिन्न भिन्न विभिन्न,

शून्य एक असीम,

अन्तहीन निःसीम,

सुन्न सुन्न तन मन में,

गिरह हमारा सुन्न में!

शून्य कहा करता है, 

शून्य सुना करता है,

यदा हि पश्यन्त्येते,

तत्त्वविदः विमर्शिनः। 

शुनि चैव श्वपाके च,

पण्डिताः समदर्शिनः।

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नर्मदे हर!!

नर्मदे हर!! 

ॐ नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्माङ्गरागाय महेश्वराय!

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वर्ष 1991 के अगस्त मास के किसी दिन तय हुआ कि नर्मदा के तट पर स्थित महेश्वर और मंडलेश्वर की यात्रा करना है। यात्रा के लिए सिर्फ एक झोला (शोल्डर बैग), चोला (धोती) और एक कमंडल साथ रखने की जरूरत थी। और हाँ कुछ पैसे, बस के किराए के लिए। अनुमान से एक सौ पचास रुपये रखे और चल पड़ा। महेश्वर में माता नर्मदा के दिव्य स्वरूप के दर्शन कर मन भाव विभोर हो उठा। सुन्दर स्वच्छ घाट और नदी का विस्तीर्ण पाट! एक बड़ा सा शिव-मन्दिर जहाँ दो नग्नप्राय साधु मन्दिर में सो रहे थे। मन थोड़ा विचलित और उद्विग्न हुआ। इसलिए वहाँ से तत्काल ही बाहर निकल आया। घाट पर माता अहल्याबाई की समाधि की स्थिति देखकर आँखों में आँसू आ गए। देखरेख करनेवाला कोई नहीं था वहाँ। पास में एक महल भी है, अब तो ठीक से स्मरण नहीं रहा, लेकिन इतना स्मरण है, कि इस बारे में किसी से कुछ बात भी की थी।

नदी का प्रवाह वहाँ इतना धीमा है मानों जल बह ही न रहा हो!

और तत्काल ही मन और चित्तवृत्ति का प्रवाह भी वैसा ही धीमा और शान्तिपूर्ण हो गया।

ओंकारेश्वर में नर्मदा के प्रवाह में निरन्तर नाद सुनाई पड़ता है, उस स्थान पर कोई तपस्वी ही लंबे समय तक रह सकता है। महेश्वर में दूसरा कोई मेरे जैसा साधारण व्यक्ति भी लंबे समय तक रह सकता है। रास्ते में मिले एक साधु ने मुझसे यही कहा था :

"नर्मदा की परिक्रमा इसलिए महत्वपूर्ण है, और परिक्रमा करने का यह सौभाग्य भी किसी किसी को ही मिलता है।"

नर्मदे हर!

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April 13, 2023

कौआ / The Crow!!

कविता / काग-भुशुण्डी

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April 12, 2023

संकल्प, संशय, अनिश्चय, निश्चय

तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः

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(पातञ्जल योग-सूत्र - साधनपाद १)

सृष्टि और दृष्टि 

दृष्टि, दृक्, दर्शन-शक्ति और दृश्य अस्तित्व के आधारभूत तत्व हैं। दृष्टिर्वै सृष्टिः और सृष्टिर्वै दृष्टिः दोनों का एक ही तात्पर्य है। दृक् और दृश्य एक ही धातु दीर्घ दृ -- दृणाति / दारयति -- से व्युत्पन्न पद हैं, जिसका प्रयोग अलग-अलग करने, तोड़ने या बाँटने के अर्थ में किया जाता है। इसी तरह से, "फाड़ना" शब्द भी स्फुर् (स्फुरति / स्फारयति, विस्फारयति, - जैसे कि आँखें फाड़ फाड़ कर देखना) से बना अपभ्रंश पद है।

समस्त दृश्य जड (insentient) है, जबकि दृक् अनिवार्यतः,  आवश्यक रूप से चेतन (sentient), अर्थात् चेतना से युक्त  (conscious) है। 

इस प्रकार, चित् (consciousness) में स्फुरण होने पर चित् जो कि अनभिव्यक्त (Consciousness) है, -दृक् और दृश्य के रूप में अभिव्यक्त manifest हो उठता है। उनमें से "दृश्य" वह है, जिसे कि "चेतन" के द्वारा जाना जाता है। यह "जानना" (knowing) भिन्न भिन्न रूपों में घटित होता है, जिसे इन्द्रिय-संवेदन अर्थात्  sensory-perception कहा जाता है।

एक ही चेतन sentience / sentient / consciousness / conscious में ही भिन्न भिन्न इन्द्रियों से अनेक दृश्य-विषयों (objects of perception) को भिन्न भिन्न / अनेक प्रकार से जाना जाता है, और उस दृश्य-विषय (object) के विभिन्न पक्षों (aspects) को एक साथ संयुक्त कर उसकी एक छवि मस्तिष्क में निर्मित कर लेता है। यह सब अनायास ही होता है न कि पहले से तय किसी अभ्यास का परिणाम। विभिन्न इन्द्रिय-संवेदनों के बीच स्मृति के कारण एक क्रम (pattern) प्रतीत होता है, और उस क्रम के अनुसार दृश्य एक निरन्तर विद्यमान वास्तविकता प्रतीत होता है। इस समस्त घटना-क्रम में दृक् / चेतन (conscious / consciousness / sentient / sentience) उसकी आधारभूत पृष्ठभूमि की तरह निरन्तर अपरिवर्तित और सतत विद्यमान प्रतीत भर होता है। स्मृति में उत्पन्न होनेवाला निरन्तरता का यह तत्व न तो दृक् या चेतन (sentience) है, और न ही दृश्य या जड (insentient) है। स्मृति की निरन्तरता भी प्रतीति ही है, जिस पर संदेह न होने से ही विभिन्न दृश्य विषयों के बीच उनकी तुलना में दृक् / चेतन को स्थिर और अपरिवर्तित आधार के रूप में स्व / 'स्वयं' मान लिया जाता है। ऐसे किसी स्व की सत्यता संभव ही नहीं है, फिर भी स्मृति के कारण ही उसकी सत्यता का आभास होने लगता है। इस प्रकार से स्मृति ही एक स्वतन्त्र दृक् / चेतन के अस्तित्व की प्रतीति का एकमात्र कारण और आधार है। और स्मृति के इसी आधार को विभिन्न विषयों से संबंधित कर 'अपने' एक स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना 'मन' में उत्पन्न होती है। कल्पना ही मन है और मन ही कल्पना। इसे चित्त, वृत्ति और चित्त-वृत्ति भी कहा जाता है। चित्त और वृत्ति वैसे तो एक ही यथार्थ हैं, किन्तु जब चित्त-वृत्ति या चित्त की वृत्ति कहा और मान लिया जाता है, तो उस संबंध में असमंजस और दुविधा पैदा हो जाती है। इसलिए पातञ्जल योग-दर्शन का प्रारंभ वृत्ति-मात्र का निरोध क्यों और कैसे आवश्यक और महत्वपूर्ण है, इस प्रश्न से होता है।

यदि 'मन' को सतत अस्तित्वमान एक तत्व माना जाए तो ऐसा किसी न किसी वृत्ति के ही रूप में हुआ करता है, और इसीलिए वृत्ति-मात्र को प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति इन पाँच प्रकारों में विभाजित करने पर 'मन' और मनो-निरोध क्या है, इसे समझ पाना सरल हो सकता है।

जब तक 'मन' की भूमिका अपने वर्तमान रूप में, -अर्थात् चित्त, चित्त-वृत्ति या वृत्ति के रूप में है, तब तक यह संकल्प, अनिश्चय, संशय और निश्चय का कारण है।

योग का अभ्यास करने से पहले :

तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि।।

के माध्यम से क्रियायोग का अभ्यास, इसलिए आवश्यक और उपयोगी भी है। 

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April 11, 2023

कोई चारा नहीं दुआ के सिवा!

उर्दू / हिन्दवी 

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OXFORD HINDI-ENGLISH DICTIONARY

के अनुसार "दुआ" शब्द उर्दू / हिन्दवी भाषा में (अगर) अरबी भाषा से आया है, तो इसका तात्पर्य है -- किसी दूसरे के लिए अल्लाह से कुछ माँगना। वैसे जब किसी और के लिए दुआ की जाती है तो वह दूसरा भी कहाँ रह जाता है!

वैसे मैं नहीं जानता कि "खुदा" शब्द का अरबी भाषा में स्थान क्या है, इसलिए इस बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता।

किन्तु संस्कृत भाषा के आधार से यह कहा जा सकता है कि उर्दू शब्द की उत्पत्ति उर्द् / ऊर्द् धातु से हुई होगी जिसका एक और रूप है कूर्द् अर्थात् उछलना। वानराः कूर्दन्ति का अर्थ होगा : वानर कूद रहे हैं। उर्दू भाषा का अरबी फ़ारसी नाम है : हिन्दवी। किसी कारणवश, शायद मुग़लों और दूसरे विदेशी आक्रान्ताओं के द्वारा भारत पर शासन किए जाने के समय में उर्दू / हिन्दवी को अरबी-फ़ारसी मिश्रित लिपि में लिखा जाने लगा। इसे यूँ भी समझा जा सकता है कि "अंक" अर्थात् "संख्या" के लिए अरबी / फ़ारसी / उर्दू में "हिन्दसा" शब्द प्रयुक्त होता है। यह अनुमान करना भी उचित होगा कि उर्दू के अंक भी देवनागरी लिपि के ही सज्ञात / सजात / cognate / अपभ्रंश हैं :

१ २ ३ ४ के लिए --- ١ ۲ ٣ ۴  आदि से इसकी तुलना करने पर भी ऐसा ही प्रतीत होता है । ० ९ ८ ७ ६ ५ के लिए भी जो अंक प्रयुक्त होते हैं वे भी इसी प्रकार जान पड़ते हैं। शून्य ० के लिए भी इसी प्रकार से . का प्रयोग होता है।

ताश के पत्तों का क्रम "दुआ" 2 से ही शुरू होता है, "इक्का" अर्थात्  Ace / A का स्थान बादशाह से भी ऊपर होता है। "बादशाह " शब्द की व्युत्पत्ति देखें तो यह शब्द भी संस्कृत के पाद+शास् से ही व्युत्पन्न है, ऐसा कहा जा सकता है। परंपरा की दृष्टि से देखें तो इसके उदाहरण के रूप में इस तरह माना जा सकता है कि भगवान् श्रीराम ने जब भरत के द्वारा अयोध्या लौटने और वहाँ शासन करने के भरत के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया, तो भरत ने भगवान् श्रीराम की चरण-पादुकाओं को  ही अयोध्या के राजसिंहासन पर स्थापित कर दिया और उसे ही अयोध्या का शासक मानकर स्वयं को केवल राजा का प्रतिनिधि भर माना। इसी का एक उदाहरण छत्रपति शिवाजी महाराज ने प्रस्तुत किया, जब उन्होंने अपने गुरु समर्थ श्री रामदास महाराज को अपना राज्य सौंप देने के बाद उनकी खड़ाऊँ मराठा राज्य की राजगद्दी पर स्थापित कर दी, जिसे "पादशाही" कहा गया।  अरबी भाषा में प और ब के लिए एक ही वर्ण प्रयुक्त होता है, और इससे भी पुष्टि होती है कि "बादशाह" की व्युत्पत्ति संस्कृत मूल पाद+शास् से ही हुई है।

उपरोक्त शीर्षक जिस शे'र से लिया गया है वह इस प्रकार है :

कोई चारा नहीं, दुआ के सिवा। 

कोई सुनता नहीं, खुदा के सिवा!

अब इसे आप कैसे समझना चाहेंगे, आपको ही तय करना है!

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April 03, 2023

किराना / किराना सामान

"..और किराये का संगीत!" 

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स्तोत्र रत्नावली में प्रकीर्ण स्तोत्र हैं जैसे आदि शंकराचार्य रचित "भजगोविन्दम्"। यह भी दो रूपों में पाया जाता है एक तो है : "चर्पटपञ्जरिका स्तोत्रम्", और दूसरा है : "द्वादश पञ्जरिका स्तोत्रम्"। याद नहीं आता कि कब से इन्हें पढ़ता आ रहा हूँ! पहले कभी इस पर ध्यान नहीं गया था कि इन्हें "प्रकीर्ण स्तोत्र" क्यों कहा जाता है। फिर शब्द-व्यसनी बुद्धि ने "प्रकीर्ण" शब्द की व्याख्या की, तो स्पष्ट हुआ यह मूलतः क+दीर्घ ऋ से बनी धातु से व्युत्पन्न है। कीर्ण, उत्कीर्ण, अवकीर्ण, विकीर्ण, प्रकीर्ण, आकीर्ण आदि। "किराना" शब्द इसी "कीर्ण" का अपभ्रंश है, इसमें संदेह नहीं। "किराना" शब्द से याद आया "घराना", और तुरंत ही याद आया भारतीय शास्त्रीय संगीत में "किराना घराना" नामक एक परंपरा भी है, जिसमें तानसेन जैसे महान संगीतज्ञ थे। तानसेन और बैजू बावरा का मुकाबला था, यह भी हमने सुना है। और सभी जानते ही हैं, कि स्वामी हरिदास बैजू बावरा के गुरु थे। जो संगीत को ईश्वर की भक्ति करने का साधन भर मानते रहे होंगे। भारतीय संगीत का प्रवेश मुग़लों के दरबार में हुआ और "घराना" शब्द प्रचलित हुआ। "घराना" शब्द संस्कृत भाषा के "गृहाणः" का अपभ्रंश जान पड़ता है। विचारणीय है कि यदि इसलाम की शिक्षा के अनुसार संगीत इसलाम-विरोधी है, और औरंगजेब का उदाहरण देखें तो भी इसमें आश्चर्य करने जैसा कुछ नहीं है। इस प्रकार, किसी भी दृष्टि से भारतीय संगीत का इस्लामी संस्कृति से सामञ्जस्य हो पाना आश्चर्य की बात है। किन्तु "किराना घराना" इसी आधार पर अस्तित्व में आया।

इस पोस्ट में इतना ही। 

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April 02, 2023

चौघड़िया

गुरु गोरक्षनाथ और बीजगणित 

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संस्कारसाक्षात्करणात् पूर्वजातिज्ञानम्।।१८।।

(पातञ्जल योगसूत्र : विभूतिपाद)

नियति के निश्चय के अनुसार मेरे गुरुजनों में मेरे स्वर्गीय माता - पिता तो प्रातःस्मरणीय हैं ही, किन्तु उनके अनन्तर मेरे बड़े भाई का भी उतना ही महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने ही मुझे :

 "अक्षरज्ञान"

की शिक्षा दी। पिताजी ने मुझे संध्या के अनुष्ठान और मन्त्रों की दीक्षा दी। इस सबके बीच वे अपने निजी प्रारब्ध का भोग करते रहे जिस पर मेरे द्वारा इससे अधिक कुछ कहा जाना मर्यादा का उल्लंघन होगा।

किन्तु इसके बाद मुझे शिक्षा जगत में जो शिक्षक मिले वे सभी इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं कि मैंने उनसे अद्भुत् ज्ञान प्राप्त किया।

विद्यालय की अपनी शिक्षा के समय भी ऐसे ही एक शिक्षक थे, जो उदासीन और निर्लिप्त भाव से सोमवार-मंगलवार के दिन अंक-गणित, बुधवार-गुरुवार के दिन बीज-गणित, तथा शुक्रवार और शनिवार के दिन रेखा-गणित पढ़ाया करते थे। वैसे तो मुझे अंक-गणित में बिलकुल रुचि नहीं थी, किन्तु बीज-गणित और रेखा-गणित मुझे अत्यन्त ही प्रिय थे। और अब ध्यान आया कि इसका यह भी एक कारण था कि मेरे बड़े भाई से ही इन दोनों विषयों की प्रारंभिक शिक्षा मुझे प्राप्त हुई थी।

।।ॐ तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

बीज-गणित और रेखा-गणित के अपने अध्ययन के समय मेरे पूर्व-जन्मों के संस्कारों से मेरा ध्यान बीज और रेखा के तत्वों की ओर आकर्षित हुआ। संस्कृत की शिक्षा मैंने अभ्यास के माध्यम से प्राप्त की। यद्यपि मेरे गणित के वे शिक्षक अ-ब्राह्मण वर्ण से आते थे, और इसलिए स्वयं को वेदाध्ययन के लिए अनधिकारी मानते थे, किन्तु वे और मेरे संस्कृत के शिक्षक जो ब्राह्मण वर्ण से आते थे एक दूसरे के परम मित्र थे। इसलिए मेरे उन दोनों ही शिक्षकों के बीच कुछ न कुछ संवाद होता ही रहता था, और मेरे गणित के वे शिक्षक मौन रहकर संस्कृत के शिक्षक का संभाषण सुना करते थे। 

ऐसे ही एक दिन मैं वहाँ से गुजर रहा था तो उन्होंने मुझे आवाज दी। संस्कृत के शिक्षक कह रहे थे :

"संस्कृत सीखकर वेदों का तत्व नहीं समझा जा सकता, किन्तु वेदाध्ययन करने पर संस्कृत का रहस्य किसी भी अधिकारी के द्वारा अवश्य ही समझा जा सकता है। और अधिकारी केवल ब्राह्मण वर्ण का हो सकता है। फिर गीता के अनुसार :

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।।

तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।

इस प्रकार से, यद्यपि कोई किसी भी जाति (वंश) में उत्पन्न हुआ हो, गुणों और कर्मों से, अर्थात् आचरण से ही किसी वर्ण-विशेष की योग्यता रखनेवाला, उससे संबंधित कहा जा सकता है।"

गणित के शिक्षक इस तर्क से प्रभावित नहीं हुए, फिर बोले, इस आधार पर भी मैं अपने आपको ब्राह्मण नहीं कह सकता। दोनों की बातचीत एक ठहाके के साथ समाप्त हो गई। 

फिर गणित के शिक्षक ने दूसरे शिक्षक से किसी कार्य के लिए उचित मुहूर्त के संबंध में जानना चाहा। उन्होंने मुझसे कहा : "विनय उस आलमारी में पञ्चाङ्ग रखा है, जाकर ले आओ!"

वे पञ्चाङ्ग खोलकर उसमें "चौघड़िया" देखने लगे। 

गणित के शिक्षक प्रतीक्षा करते रहे। फिर संस्कृत के शिक्षक ने कहना प्रारंभ किया : वैसे तो मुहूर्त-चिन्तामणि और दूसरे ग्रन्थों से भी मुहूर्त आदि का ज्ञान होता है किन्तु वह एक जटिल और  संदेहास्पद प्रक्रिया है, जबकि चौघड़िया आसान है, जिसे कोई भी थोड़ा ध्यान देकर समझ सकता है। इसे स्मरण रखना भी उतना ही आसान है।

उद्वेग, अमृत, रोग, लाभ, शुभ, चर, काल ।

ये सात चौघड़िया हैं प्रत्येक दिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक और बाद में रात्रि में सूर्यास्त से सूर्योदय के समय को आठ भागों में विभाजित किया जाता है।

रविवार के दिन का प्रथम और अंतिम चौघड़िया "उद्वेग" होता है। रविवार की रात्रि का प्रथम और अंतिम चौघड़िया "शुभ" होता है। सोमवार के दिन प्रथम और अंतिम चौघड़िया "अमृत" होता है और रात्रि का प्रथम और अंतिम "चर" होता है। केवल इस एक सूत्र से सभी सात दिनों के दिन तथा रात्रि के चौघड़िया जाने और याद रखे जा सकते हैं।

प्रश्न यह है कि गुरु गोरक्षनाथ ने इनका आविष्कार क्यों किया? इसका उत्तर यही होगा कि इस प्रकार से उन्होंने सामान्य मनुष्य के लिए एक ऐसा सरल सूत्र दिया जिससे समय की प्रवृत्ति का पूर्वानुमान लगाकर किसी कार्य को करने के लिए उपयुक्त और उचित समय सुनिश्चित किया जा सके। दूसरी ओर, उनके लिए भी यह उपयोगी है जो समय के अनुसार बदलती मनःस्थितियों से सामन्जस्य करने का उपाय खोज रहे हैं। अर्थात् आध्यात्मिक जिज्ञासु। 

इस प्रकार गुरु गोरक्षनाथ ने काल और स्थान की परस्पर बाधा का निवारण कर दिया। स्थान नितान्त स्थिर तत्व है जो तमोगुण प्रधान है, जबकि काल नितान्त गतिशील रजोगुण प्रधान तत्व है। इसलिए केवल एक ही उपाय से नाथ सम्प्रदाय के आचार्य ने काल-स्थान से सामन्जस्य का उपाय जनसाधारण के कल्याण के लिए आविष्कृत और प्रकट किया।"

Elimination by Substitution -

इसे ही गणित की भाषा में विलोपन की प्रक्रिया कहा जाता है, अर्थात् दो अज्ञात राशियों के दो समीकरणों में से एक में स्थित अज्ञात राशि को दूसरी अज्ञात राशि के रूप में परिवर्तित करने के बाद उस दूसरी राशि का प्रतिस्थापन दूसरे समीकरण में कर दोनों ही अज्ञात राशियों को ज्ञात कर लेना।

उदाहरण के लिए :

3x + 5y = 11,

x + 2y = 4,

इन दो अज्ञात राशियों के दो समीकरणों को इस विधि से हल कर x और y का मान क्रमशः 2 तथा 1 प्राप्त होता है।"

"यह तो बीजगणित हुआ!"

गणित के शिक्षक आश्चर्य से भरकर उत्साहपूर्वक बोले।

हाँ, बीजाक्षर का गणित। बीज सुप्त और अव्यक्त, अज्ञात और अज्ञेय है, गणित वह प्रक्रिया है, जिससे बीज जागृत और व्यक्त हो उठता है।"

मन ही मन अपने अद्भुत् शिक्षकों को प्रणाम किया, और मैं वहाँ से चला आया।

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