April 21, 2023

तपोभूमि!

फिर भी! कविता : 21-04-2023

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मेरे मन में पहले एक उपवन था कभी, 

आज वह उपवन किन्तु कहीं नहीं रहा, 

एक वीराना सा यहाँ पर आया है उभर,

पहले था, आज वह मन कहीं नहीं रहा!

फिर भी नहीं अफसोस है मुझे इसका, 

कि उपवन में पंछी, पुष्प, वृक्ष, नहीं रहा,

ग्रीष्म की इस कड़ी धूप में छाया नहीं रही, 

जलती हुई इस भूमि पर तृण भी नहीं रहा!

सिर्फ दिन में ही नहीं, सुबह, संध्या, रात्रि में भी,

शीतल पवन का एक झोंका तक नहीं रहा, 

कंठ में अब तो प्यास भी बाकी नहीं रही,

रेत के इस विस्तार में जल भी नहीं रहा। 

जीवन के मरुस्थल में मृग-मन भटकता था,

न मृगतृष्णा ही कहीं, और मृग भी न रहा!

क्या यही तप नहीं है, ऋषियों मुनियों से बड़ा, 

जीवन की चाह और मृत्यु-भय भी नहीं रहा!

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