April 12, 2023

संकल्प, संशय, अनिश्चय, निश्चय

तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः

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(पातञ्जल योग-सूत्र - साधनपाद १)

सृष्टि और दृष्टि 

दृष्टि, दृक्, दर्शन-शक्ति और दृश्य अस्तित्व के आधारभूत तत्व हैं। दृष्टिर्वै सृष्टिः और सृष्टिर्वै दृष्टिः दोनों का एक ही तात्पर्य है। दृक् और दृश्य एक ही धातु दीर्घ दृ -- दृणाति / दारयति -- से व्युत्पन्न पद हैं, जिसका प्रयोग अलग-अलग करने, तोड़ने या बाँटने के अर्थ में किया जाता है। इसी तरह से, "फाड़ना" शब्द भी स्फुर् (स्फुरति / स्फारयति, विस्फारयति, - जैसे कि आँखें फाड़ फाड़ कर देखना) से बना अपभ्रंश पद है।

समस्त दृश्य जड (insentient) है, जबकि दृक् अनिवार्यतः,  आवश्यक रूप से चेतन (sentient), अर्थात् चेतना से युक्त  (conscious) है। 

इस प्रकार, चित् (consciousness) में स्फुरण होने पर चित् जो कि अनभिव्यक्त (Consciousness) है, -दृक् और दृश्य के रूप में अभिव्यक्त manifest हो उठता है। उनमें से "दृश्य" वह है, जिसे कि "चेतन" के द्वारा जाना जाता है। यह "जानना" (knowing) भिन्न भिन्न रूपों में घटित होता है, जिसे इन्द्रिय-संवेदन अर्थात्  sensory-perception कहा जाता है।

एक ही चेतन sentience / sentient / consciousness / conscious में ही भिन्न भिन्न इन्द्रियों से अनेक दृश्य-विषयों (objects of perception) को भिन्न भिन्न / अनेक प्रकार से जाना जाता है, और उस दृश्य-विषय (object) के विभिन्न पक्षों (aspects) को एक साथ संयुक्त कर उसकी एक छवि मस्तिष्क में निर्मित कर लेता है। यह सब अनायास ही होता है न कि पहले से तय किसी अभ्यास का परिणाम। विभिन्न इन्द्रिय-संवेदनों के बीच स्मृति के कारण एक क्रम (pattern) प्रतीत होता है, और उस क्रम के अनुसार दृश्य एक निरन्तर विद्यमान वास्तविकता प्रतीत होता है। इस समस्त घटना-क्रम में दृक् / चेतन (conscious / consciousness / sentient / sentience) उसकी आधारभूत पृष्ठभूमि की तरह निरन्तर अपरिवर्तित और सतत विद्यमान प्रतीत भर होता है। स्मृति में उत्पन्न होनेवाला निरन्तरता का यह तत्व न तो दृक् या चेतन (sentience) है, और न ही दृश्य या जड (insentient) है। स्मृति की निरन्तरता भी प्रतीति ही है, जिस पर संदेह न होने से ही विभिन्न दृश्य विषयों के बीच उनकी तुलना में दृक् / चेतन को स्थिर और अपरिवर्तित आधार के रूप में स्व / 'स्वयं' मान लिया जाता है। ऐसे किसी स्व की सत्यता संभव ही नहीं है, फिर भी स्मृति के कारण ही उसकी सत्यता का आभास होने लगता है। इस प्रकार से स्मृति ही एक स्वतन्त्र दृक् / चेतन के अस्तित्व की प्रतीति का एकमात्र कारण और आधार है। और स्मृति के इसी आधार को विभिन्न विषयों से संबंधित कर 'अपने' एक स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना 'मन' में उत्पन्न होती है। कल्पना ही मन है और मन ही कल्पना। इसे चित्त, वृत्ति और चित्त-वृत्ति भी कहा जाता है। चित्त और वृत्ति वैसे तो एक ही यथार्थ हैं, किन्तु जब चित्त-वृत्ति या चित्त की वृत्ति कहा और मान लिया जाता है, तो उस संबंध में असमंजस और दुविधा पैदा हो जाती है। इसलिए पातञ्जल योग-दर्शन का प्रारंभ वृत्ति-मात्र का निरोध क्यों और कैसे आवश्यक और महत्वपूर्ण है, इस प्रश्न से होता है।

यदि 'मन' को सतत अस्तित्वमान एक तत्व माना जाए तो ऐसा किसी न किसी वृत्ति के ही रूप में हुआ करता है, और इसीलिए वृत्ति-मात्र को प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति इन पाँच प्रकारों में विभाजित करने पर 'मन' और मनो-निरोध क्या है, इसे समझ पाना सरल हो सकता है।

जब तक 'मन' की भूमिका अपने वर्तमान रूप में, -अर्थात् चित्त, चित्त-वृत्ति या वृत्ति के रूप में है, तब तक यह संकल्प, अनिश्चय, संशय और निश्चय का कारण है।

योग का अभ्यास करने से पहले :

तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि।।

के माध्यम से क्रियायोग का अभ्यास, इसलिए आवश्यक और उपयोगी भी है। 

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