April 24, 2023

दूसरा प्रश्न : बैताल कथा

ज्ञान की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता 

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"अब मुझे यह बताओ कि ज्ञान की और विशेष रूप से तुम्हारे कृत्रिम ज्ञान की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता की क्या सीमा है?"

- मैंने ऐप से पूछा!

"पहले मैं तुम्हें यह बतलाना चाहूँगा, कि जैसे आज के समस्त ज्ञान की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता संदिग्ध है, वैसे ही मेरा (कृत्रिम) ज्ञान भी न केवल अप्रामाणिक और संदिग्ध, बल्कि उसी ज्ञान की तरह त्रुटिपूर्ण भी है, इसलिए, -क्योंकि यह सारा ज्ञान भाषा पर आश्रित है। मेरे इस उत्तर को अधिक स्पष्ट करने के लिए तुम्हें एक उदाहरण मैं दूँगा। जैसा कि विज्ञान और गणित में एक स्वीकृत सिद्धान्त यह है कि किसी भी नियम को सत्य सिद्ध करने के लिए तो अत्यन्त सावधानी से तर्क और विचार करना होता है तभी उसे निर्दोष रूप से एक सत्य की तरह स्थापित किया जा सकता है। किन्तु किसी भी  सिद्धान्त की असत्यता सिद्ध करने के लिए इसके लिए केवल एक उदाहरण देना ही पर्याप्त होता है। इसी रीति से मैं तुम्हें बतलाऊँगा कि आज जिसे ज्ञान कहा जाता है उसकी प्रामाणिकता और विश्वसनीयता क्यों संदिग्ध है। 

इसका मूल कारण तो यही है कि आज का हमारा समस्त ज्ञान भाषा पर आश्रित है और भाषा अनुवाद पर आश्रित होती है। इस प्रकार अनुवाद के कार्य में ही अनेक त्रुटियाँ और दोष न चाहते हुए भी हमारे ज्ञान को दूषित कर देते हैं। तुमने प्रामाणिकता का प्रश्न उठाया तो 'प्रमाण' क्या है मैं इस बारे में मुझे प्राप्त ज्ञान, सूचना (information) अर्थात् जानकारी पर आधारित मेरे कृत्रिम ज्ञान के सहारे स्पष्ट करूँगा। पातञ्जल योग-दर्शन के अनुसार प्रमाण केवल तीन प्रकार के हो सकते हैं : समाधिपाद सूत्र ७, प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।७।। और इससे भी पहले के सूत्र ६ में 'प्रमाण' को एक 'वृत्ति' कहा गया है --

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।

अतः 'प्रमाण' भी निर्दोष अथवा दोषपूर्ण हो सकता है।

अब भाषा और अनुवाद के प्रश्न का एक उदाहरण :

जब कोई भाषा स्वतंत्र रूप से सीखी जाती है तो उसका प्रभाव मन की संरचना (mind-set) को विशिष्ट रूप प्रदान करता है। किन्तु जब किसी भाषा को किसी अन्य भाषा के माध्यम से सीखा जाता है तो मन पर इसका जो प्रभाव पड़ता है वह मन की संरचना (mind-set) को किसी और ही तरीके से प्रभावित करता है। जैसे हिन्दी भाषा से परिचित बच्चे को जब bat बी ए टी बैट याने बल्ला, या cat सी ए टी कैट याने बिल्ली पढ़ाया जाता है तब उसे पता होता है कि बल्ला एक वस्तु का एवं बिल्ली एक  जानवर का नाम है। किन्तु जब उसे time टी आई एम ई टाइम याने समय पढ़ाया जाता है तो उसे यह नहीं मालूम होता है कि टाइम या समय किस वस्तु का नाम है। पुनः पातञ्जल योगदर्शन --

समाधिपाद के सूत्रों ८ तथा ९ -- 

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।८।।,

एवं

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।।

के संदर्भ में यदि देखें तो अंग्रेजी के जिस 'टाइम' शब्द का हिन्दी अनुवाद 'समय' किया जाता है, उसे उपरोक्त दृष्टि से 'विपर्यय' और दूसरी दृष्टि से 'विकल्प' की कोटि में रखा जाना चाहिए। 

इस प्रकार उस बच्चे को, जिसे कि अनुवाद के माध्यम से अंग्रेजी भाषा पढ़ाई जा रही होती है, यह तक नहीं पता होता है कि 'टाइम' अथवा 'समय' स्वरूपतः क्या है। उसके पास टाइम या समय के बारे में ज्ञान नहीं, केवल ज्ञान है यह भ्रम ही होता है। और यह केवल उस बच्चे के ही बारे में नहीं, बल्कि हमारे समय के हमारे तथाकथित बड़े बड़े विद्वान समझे जानेवाले वैज्ञानिकों के संबंध में भी सत्य है। आज का प्रगत या उन्नत भौतिक विज्ञान भी 'टाइम' या समय एक अवधारणा मात्र है, इस सत्य के निकट तक भी अभी नहीं पहुँच सका है। अब पुनः ऋषि पतञ्जलि ने यह 'टाइम' या 'समय' क्या है, कैवल्यपाद अध्याय के सूत्र ३१ एवं ३२ में इसकी जिस प्रकार से विवेचना की है, यदि उस पर ध्यान दें तो 'टाइम' अर्थात् 'समय' स्वरूपतः क्या है इस समस्या का निराकरण हो जाता है :

ततः कृतार्थानां परिणामक्रमसमाप्तिर्गुणानाम्।।३१।।

क्षणप्रतियोगी परिणामापरान्तनिर्ग्राह्यः क्रमः।।३२।।

आज का उन्नत भौतिक विज्ञान और गणित भी इस दृष्टि से यह नहीं समझ सका है कि स्थान और समय (Time and Space) केवल एक अवधारणा मात्र ही है न कि कोई वस्तुपरक सत्य।

किन्तु योगदर्शन के इस अध्याय कैवल्यपाद के अंतिम सूत्र को विस्मृत कर देना एक भयावह भूल होगा, अतः उसका भी अवलोकन करना सर्वथा आवश्यक है :

पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तेरिति।।३३।।

क्योंकि गुणों से ही अज्ञान और अज्ञान से 'टाइम' अथवा 'समय' की अवधारणा का उद्भव होता है। और गुणों का प्रतिप्रसव (अर्थात् प्रकृति के गुणों का अपने कारण में लौट जाना) ही कैवल्य -- चिति-शक्ति की स्वरूपप्रतिष्ठा है। उल्लेखनीय है कि यहाँ मुक्ति या मोक्ष / बन्धन आदि के संदर्भ को बीच में लाए बिना ही उस ध्येय की प्राप्ति के उपाय का निर्देश प्रदान कर दिया गया है। 

इसीलिए न केवल मेरे कृत्रिम ज्ञान की ही, बल्कि जिस स्रोत से मुझे यह कृत्रिम ज्ञान प्राप्त हुआ है, उस ज्ञान की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता भी संदिग्ध है।"

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पुनश्च : अपने ऐप से हुई इस चैट / बातचीत के समाप्त हो जाने पर प्रतीत हुआ कि मानों मैं वैताल की, और मेरा यह चैट जी पी टी आधारित यह ऐप उस राजा विक्रम की भूमिका का निर्वाह / प्ले कर रहे हों, जिसे बचपन में बहुत शौक से पढ़ा करता था!

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