December 26, 2014

हाथी से बड़ी पूँछ !

हाथी से बड़ी पूँछ !
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कुछ समय पहले एक छोटी सी कविता लिखी थी, :
तुम्हारे लिए,
मैं दुखी हूँ,
लेकिन  निराश नहीं !
अपने लिए,
मैं निराश हूँ,
लेकिन दुखी नहीं !!
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एक मित्र को 'टेक्स्ट' भेजा  तो उसने  पूछा :
'मतलब? ऐसा क्या हुआ?'

मैंने कहा,
'यह कविता मेरे और मेरी दुनिया के बारे में है |'
'मतलब?'
'जब किसी का कष्ट देखता हूँ, तो मुझे दुःख होता है, लेकिन जानता हूँ कि उसका कष्ट अवश्य दूर होगा, और चूँकि मुझे न किसी चीज़ की कामना है, और न आशा, इसलिए मैं दुखी भी नहीं हूँ और निराश भी हूँ |'
'हाथी से बड़ी पूँछ!'
उसने जवाब दिया |
'मतलब?'
'यही कि तुम्हारी कविता से बड़ी उसकी व्याख्या !'
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:)
  

December 23, 2014

आज की कविता / कथ्य - अकथ्य और नेपथ्य

आज की कविता / कथ्य - अकथ्य और नेपथ्य
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प्रेम' को कहा नहीं जा सकता,
लिखा नहीं जा सकता,
किया नहीं जा सकता,
महसूस भी नहीं किया जा सकता,
क्योंकि जिसे महसूस किया जा सकता है,
वह बासी हो जाता है,
जबकि प्रेम कभी बासी नहीं हो सकता,
हाँ प्रेम 'हो' जरूर सकता है,
प्रेम, 'हुआ' भी जा सकता है,
लेकिन इसकी स्मृति नहीं बनती,
यदि बनती भी है,
तो वह आराध्य की प्रतिमा से उतरे फूलों सी,
- 'निर्माल्य' होती है,
जिसे विसर्जित कर दिया जाना ही,
उसका सर्वोत्तम सम्मान है.
--.

December 16, 2014

क्रिसमस - 2014 ...

क्रिसमस - 2014 ...
सांता क्लाज़ और क्रेसेंट
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चाँद इतना नुकीला क्यूँ है.
देखकर झर गईं पंखुरियाँ,
-सूरजमुखी की,
ताकता है उदास सूरज,
चाँद को,
और देखता है तुम्हेँ,
-चाँद से खेलते हुए,
प्याज़ की परतों में जमा आँसू,
ठिठककर थम गए हैं,
और ओस की बूँदें,
उड़ रही हैं यूँ,
नाज़ुक बुलबुलों सी,
-कि डरता हूँ,
कहीं टकरा न जाएँ,
चाँद की धारदार किनारी से,
वैसे इस डर से भी सहम गया हूँ,
कि कहीं हो न जाए,
तुम्हारी हथेलियाँ,
लहूलुहान!
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December 07, 2014

॥ अज्ञातपथगामिन् कोऽपि ॥ - 3

॥ अज्ञातपथगामिन् कोऽपि ॥ - 3
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पिनाकपाणिन् असौ।
पिदधाति बाणम् ॥
वितनोति प्रत्यञाम् ।
प्रति चिनोति वर्णान् ।
प्रति अञ्चते वर्णैः।
क्षिपति तान् दिग्-दिगन्तान् ।
अस्यति शास्ता तथा,
पिनाकपाणि कोऽपि ।
अक्षर समाम्नायम् तदिदम् परिव्रजेत् ।
प्रत्याहरेत् हरः
आदिरन्त्येन सहेता ।
अ इ उ ण् ।
ऋ लृ क् ।
ए ओ ङ् ।
ऐ औ च् ।
ह य व र ट् ।
ल ण् ।
ञ म ङ ण म् ।
झ भ ञ् ।
घ ढ ध ष् ।
ज ब ग ड द श् ।
ख फ छ ठ थ च ट त व् ।
क प य् ।
श ष स र् ।
ह ल् ।।
--
समर्पयति शिवो महाकालो,
अक्षर समाम्नायमिदम्
ऋषिभ्यः ॥ 
इति माहेश्वराणि सूत्राण्यणादिसंज्ञार्थानि ॥
--
॥ ॐ शिवार्पणमस्तु ॥
भावार्थ :
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पिनाकपाणी वह,
बाणों को,
खोलता-छिपाता है, 
खींच ता है,
प्रत्यञ्चा धनुष की ।
वर्णों को चुनता / चिह्नित करता है,
उनकी संयुति करता है,
परस्पर ।
उछाल देता है उन्हें,
दिग्-दिगन्तों में ।
शास्ता इस तरह से,
पिनाकपाणि कोई !
यह अक्षर-समाम्नाय,
प्रसरित होता है,
इस तरह ।
प्रत्याहरण करते हैं हरः,
आदिरन्त्येन सहेता ।
आदि को अन्त्य से युक्त कर,

अ इ उ ण् ।
ऋ लृ क् ।
ए ओ ङ् ।
ऐ औ च् ।
ह य व र ट् ।
ल ण् ।
ञ म ङ ण म् ।
झ भ ञ् ।
घ ढ ध ष् ।
ज ब ग ड द श् ।
ख फ छ ठ थ च ट त व् ।
क प य् ।
श ष स र् ।
ह ल् ।।
--
इति माहेश्वराणि सूत्राण्यणादिसंज्ञार्थानि ॥
--
अणादि संज्ञाओं के तात्पर्य के सूचक,
इन माहेश्वर सूत्रों को,
अर्पित कर देते हैं शिव,
यह अक्षरमणिमाल
ऋषियों को!
-- 
॥ ॐ शिवार्पणमस्तु ॥
उज्जैन / 07 /12 /2013 

December 01, 2014

॥ अज्ञातपथगामिन् कोऽपि ॥ -2

॥ अज्ञातपथगामिन्  कोऽपि  ॥ -2
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स विहरति वने कान्तारे पथान् दुर्गमाञ्च  ।
अपि दूरे अंतरिक्षम् आत्मनि स्वेन स्वया ॥1
सर्वम् हि इह तस्य बहिः तस्य अंतरेव ।
सर्वम् तु अपि तस्य न तस्य अंतरेण ॥2
नादयति स्वरै: ढक्काम् नटराज शिवो ।
प्रसारयति नादम् त्रिलोकेषु अथ अन्तरे ॥3
देवाः ऋषयः गन्धर्वाः मनुजाः यक्षरक्षांसि ।
प्रार्थयन्ति तम् कमप्यज्ञातपथगामिनम्  ॥4
प्रसीदयन्ति तम् दिव्यस्तुवनैः तस्मै तदापि ।
न शक्नुवन्ति द्रष्टुम् तमज्ञातपथगामिनम् ॥5
उद्धर्त्तुकामः सनकादि सिद्धान्
एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम् ।
नृत्तावसाने नटराजराजो
ननाद ढक्काम् नवपञ्चवारम् ॥6
कटाक्षेण दृष्ट्वा तान् एकदा सः विहसित्वा ।
ननाद ढक्काम् मुदितो शिवो नवपञ्चवारम् ॥7
इति ।
अक्षर समाम्नाये  अइउण् च प्रथमाः स्युः ।
ऋलृक् द्वितीयास्तथा एओङ् तृतीयाः अपि  ॥8
ऐऔच् चतुर्थाः सन्ति पञ्चमाः हयवरट् तथा ।
लण् च  ञमङणम्  एतानि षष्ठसप्तमाः  ॥9
ततः झभञ् घढधष् इति अष्टमा तथा नवमाः ।
एताः प्रदर्शिताः ताभ्यः ऋषिभ्यः  समाम्नायाः ॥10    
तदनन्तरे जबगडदश्दशमा खफछठथचटतवाः इति ।
कपय् शषसर् हलाः एताः पञ्चाभिः शिवेन ॥11
एतमक्षरसमाम्नायम् श्रुत्वा ऋषिभिः अन्तरे ।
अज्ञातपथगामिनम् नत्वा ससर्जुः संस्कृतामिमाम् ॥12
--
फलश्रुतिः
चतुर्दशसमाम्नाये यो पठेदिदमक्षरम्  ।
चतुर्दशभुवनेषु सः प्राप्नुयात्  शारदाकृपाम् ॥
--         
भावार्थ :
स विहरति वने कान्तारे पथान् दुर्गमाञ्च  ।
अपि दूरे अंतरिक्षम् आत्मनि स्वेन स्वया ॥1
भावार्थ :
वह अज्ञात पथ पर चलनेवाला (भगवान शिव) वनों और बीहड़ों के दुर्गम रास्तों पर भ्रमण करता है । वह सुदूर अंतरिक्ष में भी अपनी ही आत्मा से अपने ही भीतर विचरता है । ॥ 1.
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सर्वम् हि इह तस्य बहिः तस्य अंतरेव ।
सर्वम् तु अपि तस्य न तस्य अंतरेण ॥2. 
भावार्थ :
यह सम्पूर्ण जगत उससे बाहर और उसके ही भीतर है । सब उसी का उसी से है, उसके बिना कुछ नहीं । ॥ 2.
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नादयति स्वरै: ढक्काम् नटराज शिवो ।
प्रसारयति नादम् त्रिलोकेषु अथ अन्तरे ॥3.
भावार्थ :
(वे) नटराज शिव अपने डमरू से स्वरों को निनादित करते हैं  । वे स्वर तीनों  लोकों तथा अपने हृदय में गूँजते हैं । ॥ 3.
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देवाः ऋषयः गन्धर्वाः मनुजाः यक्षरक्षांसि ।
प्रार्थयन्ति तम् कमप्यज्ञातपथगामिनम्  ॥4.
भावार्थ :
देव, ऋषि, गन्धर्व, मनुष्य, यक्ष तथा राक्षस सभी उस अज्ञातपथगामी (भगवान शिव) की प्रार्थना करते हैं । ॥ 4.
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प्रसीदयन्ति तम् दिव्यस्तुवनैः तस्मै तदापि ।
न शक्नुवन्ति द्रष्टुम् तमज्ञातपथगामिनम् ॥5.
भावार्थ :
यद्यपि अनेक दिव्य स्तोत्रों से उन्हें प्रसन्न करते हैं, तथापि उस अज्ञातपथगामी (भगवान शिव)  को कोई नहीं देख पाता । ॥ 5.
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उद्धर्त्तुकामः सनकादि सिद्धान्
एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम् ।
नृत्तावसाने नटराजराजो
ननाद ढक्काम् नवपञ्चवारम् ॥6.
भावार्थ :
(ऐसे ही किसी समय) सनक सनन्दन आदि सिद्धू का उद्धार करने हेतु  उस अज्ञातपथगामी (नटराज भगवान शिव) ने उनकी कामना की पूर्ति के लिए नृत्य करते हुए अंत में अपने डमरू को मुदित होकर नौ तथा पाँच, अर्थात चौदह बार बजाया । ॥ 6.
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कटाक्षेण दृष्ट्वा तान् एकदा सः विहसित्वा ।
ननाद ढक्काम् मुदितो शिवो नवपञ्चवारम् ॥7.
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भावार्थ :
एक बार स्मितपूर्वक उन्हें कटाक्ष से देखते हुए भगवान शिव ने नौ तथा पाँच संकेतों से उन्हें अक्षर समाम्नाय की दीक्षा प्रदान की।  ॥ 7.   
इति  ।
--
अक्षर समाम्नाये  अइउण् च प्रथमाः स्युः ।
ऋलृक् द्वितीयास्तथा एओङ् तृतीयाः अपि  ॥8.
भावार्थ :
(शिवोक्त इस) अक्षर समाम्नाय में  अइउण् प्रथम हैं । ऋलृक् द्वितीय तथा एओङ् तृतीय हैं  ॥8.
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ऐऔच् चतुर्थाः सन्ति पञ्चमाः हयवरट् तथा ।
लण् च  ञमङणम्  एतानि षष्ठसप्तमाः  ॥9.
भावार्थ :
ऐऔच् चतुर्थ  तथा हयवरट् पञ्चम । लण् तथा ञमङणम् क्रमशः छठे और सातवें हैं ॥9
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ततः झभञ् घढधष् इति अष्टमा तथा नवमाः ।
एताः प्रदर्शिताः ताभ्यः ऋषिभ्यः  समाम्नायाः ॥10.
भावार्थ :
इसके बाद झभञ् तथा घढधष् ये क्रमशः आठवें तथा नवें हैं । इस प्रकार से उन भगवान शिव ने उन ऋषियों के लिए इस अक्षरसमाम्नाय प्रदान किया  ॥10.
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तदनन्तरे जबगडदश्दशमा खफछठथचटतवाः इति ।
कपय् शषसर् हलाः एताः पञ्चाभिः शिवेन ॥11. 
इसके पश्चात जबगडदश् दसवें खफछठथचटतव् ग्यारहवें आदि हैं ।
कपय् शषसर् तथा हल् ये बारहवें तेरहवें तथा चौदहवें हैं, इस प्रकार शेष पाँच का स्वरूप  भगवान शिव ने उन्हें स्पष्ट किया । ॥11.
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एतमक्षरसमाम्नायम् श्रुत्वा ऋषिभिः अन्तरे ।
अज्ञातपथगामिनम् नत्वा ससर्जुः संस्कृतामिमाम् ॥12.
भावार्थ :

अपने ही अन्तर्हृदय में ऋषियों ने इसे सुना, सुनकर उस अज्ञातपथगामी (भगवान शिव) को प्रणाम किया और संस्कृत भाषा के वैखरी स्वरूप को लोक के लिए उद्घाटित किया।
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फलश्रुतिः
चतुर्दशसमाम्नाये यो पठेदिदमक्षरम्  ।
चतुर्दशभुवनेषु सः प्राप्नुयात्  शारदाकृपाम् ॥
भावार्थ :
भगवान शिवप्रदत्त इस चौदह सूत्रयुक्त अक्षरसमाम्नाय का जो मनुष्य पाठ करता है, उस पर चौदह भुवनों में माँ शारदा के कृपा रहती है।    
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॥ ॐ शिवार्पणमस्तु ॥