August 27, 2022

कस्य न चलते मनः?

विवेकचूडामणि से

----------©---------

एक मित्र से एक वॉट्स एप् मैसेज मिला जिसमें दिए गए मैसेज का संभावित सन्दर्भ मुझसे पूछा गया था। इसे मैंने इससे पहले इसे कहाँ पढ़ा होगा या नहीं, यह तो मुझे याद नहीं आ रहा था, किन्तु विवेकचूडामणि का एक श्लोक तुरन्त ही मुझे याद आया, उसे ही मैंने उन्हें प्रेषित कर दिया :






August 26, 2022

जब तक!

छोटी कविता / 26-08-2022

----------------©---------------

जब तक जीना,

तब तक मैं! 

पता नहीं,

कब तक जीना है!

***

संघं शरणं गच्छामि

बुद्धं शरणं गच्छामि  
-----------©----------

धर्म का अर्थ है स्वभाव, जो शरीर के ही साथ प्राप्त होता है। 
और उसी धर्म के अनुसार किसी भी मनुष्य का या जड-चेतन, सजीव अथवा निर्जीव पिंड का आचरण होता है।
यह जिन नियमों से होता है उसे समष्टि प्रकृति कह सकते हैं, उसे प्रकृति कह देने से हमें बस एक शब्द अवश्य प्राप्त हो जाता है और मन में यह विचार आता है कि हमने कुछ ज्ञान प्राप्त कर लिया है। फिर हमारा ध्यान इस पर नहीं जाता है कि एक और ऐसा ही एक शब्द 'ज्ञान' हमारी स्मृति और जानकारी का हिस्सा हो गया है। किन्तु वस्तुतः हमें शब्द या शब्दों के अतिरिक्त और क्या प्राप्त हो पाता है? जिन शब्दों का प्रयोग हम प्रायः करते हैं व्यवहार में उनका उपयोग हम समय समय पर करते हैं और वे सभी शब्द किसी न किसी वस्तु या व्यक्ति के नाम होते हैं। इसे ही व्याकरण में 'संज्ञा' (noun) कहा जाता है। वस्तु पुनः जड अथवा चेतन होती है। जड का अर्थ हुआ, जो कि पूर्णतः प्रकृति के तीन मौलिक गुणों अर्थात् सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण के ही सम्मिलित प्रभाव से ही परिचालित होता है। किसी जड वस्तु पर जब कोई शक्ति कार्य करती है, तो उस जड वस्तु पर उसका क्या प्रभाव होगा, इसका अनुमान पहले से ही किया जा सकता है, और भौतिक विज्ञान के माध्यम से इसे ही अधिक सुनिश्चित रूप से जाना भी जाता है। इसकी तुलना यदि किसी चेतन वस्तु से करें तो ऐसा कोई अनुमान लगा पाना इतना सरल नहीं होगा,  क्योंकि जब किसी चेतन वस्तु पर कोई भी शक्ति कार्य करती है, तो उस वस्तु में विद्यमान उसकी संवेदनशीलता की विशेषता ही यह तय करती है कि उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी। किसी चेतन वस्तु में किस प्रकार की इन्द्रियगत संवेदनशीलता है और वह कितनी अधिक विकसित है, यह उसकी जैव-संरचना की स्थिति और विकास से ही तय होता है। स्वर्गीय जगदीशचन्द्र बसु ने इसे ही वैज्ञानिक रूप से सिद्ध किया था। इसलिए चेतनता या चेतना ही वह जीवन है, जिसके आधार पर किसी वस्तु को निर्जीव या जड, और सजीव या चेतन में वर्गीकृत किया जा सकता है। चूँकि ऐसा वर्गीकरण करनेवाला अपरिहार्यतः स्वयं और अवश्य ही, ऐसा ही चेतन अस्तित्व होता है, इसलिए संवेदनशीलता या जीवन यह तत्त्व है जो कि सभी सजीव वस्तुओं में समान रूप से विद्यमान सर्वनिष्ठ सत्यता है।
इसी जीवन / चेतना / चेतनता की स्थिति और उसके विकास के अनुसार प्रत्येक सजीव वस्तु अर्थात् जीव-चेतना कम या अधिक उन्नत होती है। एक और विचारणीय और दृष्टव्य सत्य / प्रश्न यह भी है कि क्या इस चेतना से ही, और इस संवेदनशीलता के ही कारण हममें अपने (शरीर के) और संसार के अस्तित्व का भान और अनुमान उत्पन्न होता है, या कि इस संसार और उसमें एक इस अपने शरीर के प्राप्त होने के बाद ही इस प्रकार की चेतना / संवेदनशीलता उत्पन्न होती है! यह संवेदनशीलता अर्थात् चेतना वैसे भी सदैव ही ध्यान का ही पर्याय ही होती है, क्योंकि इसमें एक ही साथ अपने आपका और किसी न किसी दूसरी वस्तु का भी बोध हुआ करता है। किसी भी मनुष्य को जब अपना भान होता है, तो किसी अन्य वस्तु का भी, और इसी प्रकार किसी भी अन्य वस्तु का भान होते समय अपना भान अनिवार्यतः होता ही है। इसलिए यह कहना अनुचित न होगा कि यद्यपि और मूलतः एक ही चेतना, संवेदनशीलता या जीवन ही इदं (यह) और अहं (स्वयं / मैं) इन दो रूपों में एक साथ ही अभिव्यक्त और प्रकट होता है, किन्तु बाद में इन्द्रिय-संवेदना के विकास की भिन्नता के आधार पर इदं (यह) और अहं (मैं) पृथक् पृथक् जान पड़ते हैं।
इन दोनों का ही विस्तार यद्यपि अनन्त और असंख्येय जीवों के रूप में दिखाई देता है, किन्तु ऐसी प्रतीति से यह सत्यता बाधित नहीं होती कि जीवन, चेतना और संवेदनशीलता परस्पर अभिन्न और अविभाज्य वास्तविकता है। 
पुनः, वृक्ष-वनस्पति, पशु-पक्षी, जलचर, थलचर, उभयचर आदि यद्यपि भिन्न भिन्न प्रकार की चेतन, संवेदनशील अर्थात् सजीव वस्तुएँ हैं, फिर भी सबमें अन्तर्निहित जीवन ही एकमात्र सभी में विद्यमान उन सबका समान आधार है, जिसे कोई नाम भी दिया जा सकता है। किन्तु उस नाम को शाब्दिक रूप में जान लिया जाना वैसा ही है जैसे कि हमने प्रकृति अथवा ज्ञान इन दोनों को केवल शाब्दिक रूप में, इस आलेख के प्रारंभ में जाना था।
किन्तु यह जीवन ही वह धर्म है जो वस्तु-स्वभाव है।
इसे जब व्यक्ति तक सीमित कर दिया जाता है तो यह वैयक्तिक धर्म होता है जिसका अन्त सुखद या दुःखद हो सकता है। जब कोई धर्म का अनुसंधान करते हुए अन्त सुखद कैसे हो सकेगा, इस विषय में अन्वेषण करता है तो इसे श्रेयस् कहा जाता है।  जब ऐसे ही मनुष्यों का कोई समूह अपने सामूहिक कल्याण को श्रेयस्कर समझते हुए उस दिशा में कार्य करता है तो वह उनका संघ होता है। और जब ऐसा कोई संघ समष्टि कल्याण के ध्येय से प्रेरित होकर किसी ऐसी ही महान् आत्मा की शरण लेता है, जिसने इस श्रेयस् की प्राप्ति कर ली है, तब वह उसी संबुद्ध की शरण को प्राप्त हो जाता है, जो स्वयं ही यह संपूर्ण और समग्र जीवन भी है।
यही तीन सनातन नीति-सूत्र हैं जो कि हमें सदा ही दिशा दिखा सकते हैं!

***

August 23, 2022

मौन साक्षात्कार

कविता : 23-08-2022

-------------©--------------

एक तीर सनसनाता,

कहीं दूर से हो आता, 

वेध जाता हृदय को, 

यह मौन का सन्नाटा!

***

सूर्यास्त 



August 22, 2022

विवादास्पद विषय

बीइंग लाइक-माइन्डेड

-----------©-----------

पिछले बीस वर्षों के समय में समय का पहिया बहुत ही विचित्र गति से घूमता रहा है। दुनिया छोटी से छोटी होती गई है, जबकि मनुष्य से मनुष्य के बीच की दूरियाँ अधिक और बड़ी से बड़ी ही होती चली गई हैं । 

है न यह एक विडम्बना, एक बहुत अजीब विरोधाभास!

अगर कोविड 19 का आगमन न होता तो दुनिया वैसी ही मंथर गति से चलती रहती, जैसी कि वर्ष 2000 से पहले चला करती थी।

फिर भी हर मनुष्य अपने अपने ढंग से अपनी चिन्ताओं, भयों और समस्याओं का सामना कर रहा है। और हर किसी को यह भरोसा है, कि अन्ततः एक दिन सब ठीक हो जाएगा। हर कोई ही व्यक्तिगत, सामूहिक और परिस्थितियों के आधार पर नई नई घटनाओं के बारे में अपने तरीके से तात्कालिक या दीर्घकालिक दृष्टिकोण से अपने वर्तमान का मूल्याँकन करता है, लेकिन जब यथार्थ के तल पर अनुभव करता है कि जो नई स्थितियाँ उसके समक्ष आ रही हैं वे नितान्त अप्रत्याशित हैं, तो भौंचक्का होकर रह जाता है। जो समृद्ध हैं वे और अधिक समृद्ध होना चाहते हैं, जो निर्धन हैं वे आजीविका की चिन्ताओं में डूबे रहते हैं। और मध्यम वर्ग सुविधाओं और ज़रूरतों के बीच सामञ्जस्य नहीं कर पाता। 

एक और महत्वपूर्ण जो बात हुई है वह है - तथाकथित 'लाइक-माइंडेड' लोगों द्वारा अपने अपने समूह / समुदाय बनाकर एक-दूसरे से अनेक और विभिन्न प्रकार के विषयों पर चर्चा, परिचर्चा करना। इन्टरनेट की मदद से अब यह और अधिक सुविधाजनक और आसान भी हो गया है। ऐसे कोई भी समूह किसी न किसी साहित्यिक, परंपरा, संस्कृति, धर्म, व्यापार-व्यवसाय, संगठन, खेल, कला, विज्ञान, तकनीक से लेकर भाषाई या राजनीतिक, आधार आदि पर बनते हैं, और किसी आदर्श, लक्ष्य, उद्देश्य, व आभासी, काल्पनिक या वास्तविक समस्याओं और विषयों पर चर्चाएँ करते हैं। कुछ समूह तो इस विषय में बहुत हद तक पूरी तरह सुनिश्चित होते हैं, क्योंकि वे किन्हीं ख़ास, तय धारणाओं से, निश्चयपूर्वक अत्यन्त दृढता से जुड़े होते हैं। जैसे साम्यवाद, पूँजीवाद, धर्म, मत-विशेष की विचारधारा के कट्टर अनुयायी। एक और मजे की बात यह भी है, कि उस मत-विशेष के संबंध में वे यद्यपि परस्पर सहमत होते भी हों, तो भी अपने लाभ और लोभ के अनुसार उसकी व्याख्या करने के प्रयास से प्रेरित होने के कारण, दूसरे विषयों पर उनकी मतभिन्नता, उनके बीच की द्वेष की भावना को नहीं मिटा पाती है। 

उदाहरण के लिए, नास्तिक मत के अनुयायी, उस मत को अपने तरीके से तोड़-मरोड़ कर उसे अपने निहित स्वार्थ के अनुकूल बना लेते हैं। इसलिए रूसी साम्यवाद और चीनी साम्यवाद के बीच गहरे मतभेद हैं। यह केवल एक उदाहरण है। किन्तु केवल उस मत के संदर्भ में वे अवश्य ही परस्पर चर्चा करने का प्रयास करते हैं।

और अज्ञेयवाद (agnosticism) को माननेवाले भी इतना तो जानते ही हैं कि वे कुछ नहीं जानते हैं।  किन्तु क्या वे भी अपने स्वयं के अस्तित्व को अस्वीकार और उससे अनभिज्ञ होने का दावा कर सकते हैं! क्या ऐसा कोई दावा हास्यास्पद और तर्क से विसंगत (irrational) नहीं होगा? 

तात्पर्य यह कि किसी भी विशेष समूह के पारस्परिक चिन्तन का एक तय दायरा होता है। चर्चा की स्वतंत्रता का यह दायरा जितना संकुचित या विस्तीर्ण होता है, उसी सीमा तक उनके बीच वैचारिक आदान-प्रदान संभव होता है।

इसलिए वैचारिक स्वतंत्रता जैसा कुछ होता ही नहीं है।

हाँ यह तो अवश्य हो सकता है, और प्रायः यही होता भी है, कि अपने उस विशेष समूह की गतिविधियों के माध्यम से वे अपने आपके गतिशील (या प्रगतिशील) होने के भ्रम को निरंतर पुष्ट करते रहें।

साहित्यिक या कला समूहों के बारे में भी यही होता है। इसलिए अंततः सभी समूह अपरिहार्यतः अलग अलग खेमों में बँट जाते हैं।

क्या विचार और वैचारिकता पर अवलंबित चर्चाएँ कभी किसी ठोस निश्चय पर पहुँच सकती हैं? 

समूह के हितों की दृष्टि से तो यह संभव प्रतीत होता है, किन्तु पूरे मानव-समुदाय के संदर्भ में यह लगभग असंभव ही है। 

जब तक मन किसी आग्रह, पूर्वाग्रह या दुराग्रह से बँधा होता है, तब तक वह स्वतंत्र कैसे हो सकता है। उन विषयों के बारे में, जो कि नितान्त व्यावहारिक हैं, अवश्य ही तकनीक और विज्ञान का उपयोग है, किन्तु जैसे ही तकनीक और विज्ञान किसी समूह या वर्ग विशेष के हितों से जुड़ जाते हैं, वे मनुष्य और मनुष्य के बीच द्वेष का कारण हो जाते हैं। इसलिए जब तक मानवमात्र के सन्दर्भ पर ध्यान नहीं दिया जाता, और मन आग्रहों, पूर्वाग्रहों से बँधा होता है, स्थायी समाधान नहीं प्राप्त होता।

एक अति विशिष्ट वर्ग होता है तथाकथित अध्यात्मवादियों का, जिन्हें अध्यात्म में रुचि होती है, उनकी रुचि इससे भी बढ़कर उनके जैसे ही 'लाइक-माइन्डेड' और लोगों में होती है। वे भी किसी संस्था से जुड़ जाते हैं, स्वयं ही गुरु या फिर किसी और तरह के आध्यात्मिक धार्मिक मार्गदर्शक, आचार्य आदि बन बैठते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि इस प्रकार का हर व्यक्ति ही लोगों का भावनात्मक शोषण करता हो, किन्तु चूँकि वह इतना सरल भी हो सकता है, कि लोग उसकी सरलता का दुरुपयोग करने लगते हैं, इस ओर भी उसका ध्यान नहीं जा पाता। बल्कि ऐसे लोग ही उसे गुरु आदि कहकर महिमामंडित करते हैं, और उसकी विनम्रता को उसकी कमज़ोरी समझ लेते हैं, और वह नम्रता और संकोच के कारण उनकी उपेक्षा या अवहेलना भी नहीं कर पाता।

उसके अपने आग्रह भी हो सकते हैं, उसमें महत्वाकाँक्षाएँ आदि हो सकती हैं, किन्तु ऐसी चारित्रिक दुर्बलता होने या न होने का प्रमाण और कोई कैसे तय कर सकता है! किन्तु इस प्रकार वह जाने-अनजाने ही उनकी नासमझियों का शिकार हो जाता है।

स्वयं को वह गुरु स्वीकार कर ले, तो उसे अहंकारी समझा जाने लगता है और यदि स्वीकार न करे तो इसे उसकी हुई ओढ़ी हुई, दिखावटी विनम्रता समझ लिया जाता है। अगर वह लोगों से बातचीत करने का इच्छुक न हो तो लोग उसे अहंकारी समझ लेते हैं। यदि वह पैसे और संपत्ति आदि न रखे तो उसे अकर्मण्य आलसी कहा जा सकता है। यदि वह सामाजिक तौर तरीकों का निर्वाह न करे तो भी लोग उसे नापसंद करने लगते हैं। यद्यपि उसे इस सबसे कोई मतलब नहीं होता, लेकिन उसे तब दूसरों से लगाव भी नहीं होता। इसलिए किसी से चर्चा या विवाद भी नहीं करता है, और किसी को उपदेश देना तो उसके लिए संभव ही नहीं होता क्योंकि वह किसी भी दूसरे में कोई दोष या कमी नहीं देखता। वस्तुतः तो वह न तो संसार से अपने को भिन्न समझता है, न संसार को अपने आपसे। 

विद्वान या अनपढ़, बौद्धिकता भावनात्मकता या कलात्मकता की अभिरुचियों से युक्त भी हो सकता है, किन्तु वह किन्हीं भी वैचारिक मान्यताओं से बँधा नहीं होता। क्योंकि उसे पता होता है कि बौद्धिकता, विद्वत्ता, भाषा और वैचारिक नीति-निपुणता के माध्यम से समाज में प्रतिष्ठा और मान-सम्मान, और सत्ता का सुख भी प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु इस सबके प्रति उसे कोई रुचि ही नहीं होती। 

***

August 19, 2022

बहुत दिनों बाद...

प्रेरणा :

स्व. दुष्यन्त कुमार :

"ये रौशनी हकीकत में है एक छल लोगों!

कि जैसे जल में झलकता हुआ महल लोगों!"

--

कविता : एक मायावी नदी यह!

--------------©--------------

इस नदी में तैरना मुमकिन नहीं है, 

और तुम कहते हो नौकायन करें!

इस नदी में जो झलकती है दुनिया,

दर्पण में जैसे प्रतिबिम्बित है दुनिया,

इतनी सच जैसी ये, लगती है दुनिया,

पर है आभासी, नहीं है सच ये दुनिया!

पर है सच यह, चमत्कार हो सकता है,

कोई इसकी सतह पर, चल भी सकता है!

जल की जैसे मायावी, सतह है एक यह नदी,

संचार और संपर्क करने की हमारी यह सदी!

स्नेह नहीं, न सही, संबंध तो हो सकता है,

यहाँ संचार तथा संपर्क भी हो सकता है,

जो सिर्फ वहम, विचार भी हो सकता है,

व्यापार व्यवसाय का प्रचार भी हो सकता है!

इस नदी के जल से पर न बुझ सकेगी प्यास, 

करते रहो चाहे निरंतर, सतत कितना ही प्रयास!

संचार-युग की मृग-मरीचिका, मायावी नदी,

ज्ञान की तकनीक की, इक्कीसवीं यह सदी!

इससे अच्छा यही है, कि बैठ रामायण पढ़ें,

न कि उथली इस नदी में नौकायन करें!

***




 


August 05, 2022

तुलसी जयन्ती 2022

यह रचना गोस्वामी तुलसीदास को समर्पित !!

------------------------©--------------------------





August 03, 2022

भय और संवेदनशीलता

निर्भयता और स्वतन्त्रता

-------------©------------

भय एकमात्र बन्धन है जो जीवन की सरल, सहज, स्वाभाविक अभिव्यक्ति को अवरुद्ध, कुंठित, और विकृत भी कर देता है । भय तो मन की प्रकृति-प्रदत्त एक प्रवृत्ति-विशेष है, जो इसका द्योतक है कि अस्तित्व पर कोई संकट उपस्थित है जिसका कि सामना करना है। शरीर में पहले से ही प्रकृति-प्रदत्त यह प्रवृत्ति अवचेतन स्तर पर विद्यमान होती है और फिर यही चेतन मन में  भी व्यक्त होकर स्मृति में संचित हो जाती है। इस दृष्टि से भय का प्रभाव दो प्रकार से होता है। एक, तात्कालिक आवश्यकता के रूप में होनेवाली त्वरित प्रतिक्रिया के रूप में, दूसरा स्मृति में संचित पहले के संकटों और उनसे रक्षा के लिए किए गए अपने विभिन्न अनुभवों के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न हुए, संभावित और प्रतीत होनेवाले नए और काल्पनिक संकटों से रक्षा के लिए की जानेवाली प्रतिक्रिया के रूप में। इस प्रकार से, भय चेतन और अवचेतन इन दो प्रकारों में स्मृति से उत्पन्न होता है। भविष्य का भय, आशा, आशंका आदि ऐसे ही मानसिक भय मात्र होते हैं, जो कि समय की आवश्यकता के अनुसार पैदा होते रहते हैं। परिस्थिति का, समाज का, लोगों का, विपरीत विषम संकटों आदि का भय, इस प्रकार वास्तविक या काल्पनिक हो सकता है। किन्तु इसका सही आकलन न कर पाने से व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन जटिल और मुश्किल हो जाता है। एक दूसरे के प्रति अविश्वास पैदा होता है, और मनुष्य सामाजिक बाध्यताओं से भयग्रस्त हो जाता है। उसी भय का सन्दर्भ-बिन्दु की तरह से  प्रयोग कर तमाम राजनैतिक महत्वाकाँक्षाएँ जागृत हो उठती हैं, जो मनुष्य-मात्र को प्रभावित करती हैं। उसी आधार से जुड़कर अलग अलग परंपराएँ जन्म लेती हैं और पनपती भी हैं। इन्हीं भिन्न भिन्न परंपराओं के बीच परस्पर संदेह, संशय, अविश्वास और मतभेद होने से मनुष्यों के बीच तमाम ध्येय, भय, संकल्प  आशंकाएँ, आदि पैदा हो जाते हैं। शायद यही हमारा सामूहिक अतीत, वर्तमान और भविष्य भी है।

यदि इस तथ्य पर ध्यान दिया जाए तो बहुत से अनावश्यक और काल्पनिक संकटों के अतिरंजित भयों से सिर्फ बचा ही नहीं जा सकता, बल्कि अपनी संपूर्ण मानवीय सभ्यता की और समूचे मानवीय अस्तित्व की रक्षा भी की जा सकती है। इसके लिए जरूरत है, -बुद्धि के साथ साथ संवेदनशील होने की, विवेक के आविष्कार और उसके प्रयोग से बुद्धि के दोषों को दूर करने की, क्योंकि बुद्धि कितनी भी अधिक सूक्ष्म, कुशल और सक्षम क्यों न हो, तर्क का ही क्षेत्र है, और तर्क भी पुनः छल, कुतर्क, कपट या दुराग्रह भी हो सकता है, जिससे लगभग प्रत्येक, बड़े से बड़े बुद्धिजीवी की बुद्धि भी मलिन या मोहित हो जाया करती है। प्रायः किसी भी ध्येय, आदर्श, सिद्धान्त-विशेष से बँधे बुद्धिजीवी भी अपनी बुद्धि में विद्यमान अन्तर्विरोधों, अज्ञान और संशयों से अनभिज्ञ हुआ करते हैं, और अपने मत पर एक हद तक दृढता से डटे रहते हैं। यही कारण है कि तमाम बुद्धिजीवियों में परस्पर गहरे मतभेद दिखाई देते हैं। यह स्थिति उनमें संवेदनशीलता की कमी से ही पैदा होती है। संवेदनशीलता बुद्धि का विषय कदापि नहीं होती, बल्कि मनुष्य में किसी विषय के संबंध में ही होती है, बिलकुल नहीं होती, या कम या अधिक अंशों में हो सकती है। किसी भी प्रकार की संवेदनशीलता मूलतः तो विषय-निरपेक्ष ही होती है, किन्तु उसे किसी विषय के साथ जोड़ते ही कोई और विशेष रूप ग्रहण कर लेती है। उदाहरण के लिए, हिंसा-अहिंसा के बारे में विचार करते समय मनुष्य उसे पाप-पुण्य के सन्दर्भ में, या फिर नैतिकता / अनैतिकता के सन्दर्भ  में परिभाषित करने लगता है। तब उसे धर्म-अधर्म की कसौटी पर सही-गलत कहा-समझा और समझाया जाता है। जैसे युद्ध छिड़ जाने पर शत्रु को मार डालने, या शत्रु के हाथों मर जाने को कर्तव्य माना जाता है, और उस परिस्थिति में हिंसा-अहिंसा पर ध्यान देने का कोई महत्व नहीं रह जाता है। सामान्य अर्थ में जिसे संवेदन-शीलता कहा जाता है, उसे बुद्धि की कसौटी पर इसीलिए तय नहीं किया जा सकता। 

बुद्धिजीवियों की संवेदनशीलता इस तरह, भिन्न भिन्न प्रकार की होती है इसलिए, किसी तथ्य को उनकी बुद्धि भिन्न भिन्न प्रकार से ग्रहण करती है। लेकिन, क्या इससे तथ्य बदल सकता है? किन्तु यदि उनमें संवेदनशीलता है तो वे तथ्य को और अधिक अच्छी तरह से समझ सकेंगे, और तब उनके बीच विद्यमान सारे अन्तर्विरोधों को दूर कर पाना संभव है।

***


August 02, 2022

क्या डर ज़रूरी है?

भय और निर्भयता

-----------©-----------

भय या डर वैसे तो जीवमात्र की एक स्वाभाविक जैव-प्रवृत्ति है, और प्रकृति-प्रदत्त यह प्रवृत्ति अपनी आत्म-रक्षा की प्रेरणा से ही पैदा होती है। यदि भय की यह प्रवृत्ति न हो तो जीव अपनी रक्षा नहीं कर सकता। जीव-जगत् में यह सर्वत्र और सभी प्राणियों में ही पाई जाती है किन्तु मनुष्य में यह किसी वैचारिक आधार से भी पैदा हो जाती है, या कर दी जाती है। यह मनुष्य का दुर्भाग्य ही है कि विचार, जो कि मनुष्य में चिन्तन का एक श्रेष्ठ साधन हो सकता है, वही संकीर्णता की सीमाओं में संकुचित हो जाने से वैचारिक भय का रूप ले लेता है। 

यह तो स्पष्ट ही है कि मनुष्य के अलावा कोई भी दूसरा जानवर या जीव, अपनी ही समान जाति के जीवों से तब तक भयभीत नहीं होता, जब तक इसके लिए कुछ और विशिष्ट कारण न हों। केवल मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो वैचारिक जानकारी के आधार पर मनुष्य-समाज को ऐसे विभिन्न वर्गों में बाँट लेता है, जिनमें से प्रत्येक ही वर्ग के अपने अपने, दूसरों से एक हद तक भिन्न भिन्न विशिष्ट विश्वास, और मान्यताएँ, आचार-विचार और संस्कृति आदि होते हैं। इसी आधार पर विभाजित ये सभी वर्ग एक दूसरे के प्रति सशंकित, आशंकित, और कभी कभी तो आतंकित भी होते हैं। इसी वैचारिक आधार पर उनमें अपने वर्ग विशेष के संस्कारों के अनुसार विभिन्न प्रवृत्तियाँ पनपने लगती हैं। इन्हीं प्रवृत्तियों के कारण वे दूसरे समुदायों को संशय की दृष्टि से देखने लगते हैं। 

यह हुआ कृत्रिम भय या (Artificial Fear). 

सामाजिक परंपराओं (social traditions / religions) और परिस्थितियों के प्रभाव से मनुष्य ही प्रायः ऐसे कृत्रिम भयों का शिकार होता है, जबकि दूसरे सभी जीव केवल प्रकृति-प्रदत्त भय से ही प्रेरित होते हैं, और उसी के अनुसार अपनी रक्षा करने का प्रयास करते हैं, जबकि हम तथाकथित विचारशील मनुष्य, अनेक संभावनाओं की कल्पना कर, भविष्य के विचार से त्रस्त और व्याकुल, आशान्वित या निराश हो जाया करते हैं। विचार से जकड़ा हुआ ऐसा मनुष्य और ऐसे मनुष्यों के अनेक समुदाय सतत एक-दूसरे से भयभीत और आशंकित, तथा आतंकित भी रहने लगते हैं। और तब सभी समुदाय अपनी अपनी संस्कृति, सामुदायिक पहचान, अस्मिता आदि की रक्षा के लिए संगठित होने लगते हैं। इस दृष्टि से, मनुष्य यद्यपि एक  विचारशील एवं बुद्धिमान प्राणी तो हो गया है, किन्तु अभी भी विचार और बुद्धि से ऊपर उठकर सामूहिक विवेक और उसका महत्व क्या है, इसे वह नहीं समझ सका है।

हमारी संपूर्ण जानकारी-आधारित शिक्षा-प्रणाली ऐसी है, और हम यह कल्पना भी नहीं कर पाते हैं, कि किस प्रकार से हमारी सामूहिक चेतना में यह भय हममें से सभी को, और प्रत्येक को ही विशेष प्रकार से प्रभावित कर हमें संकीर्णताओं में सीमित कर देता है। जब तक ये सीमितताएँ हैं तब तक भय रहेगा, और जब तक भय है, तब तक हम इन सीमितताओं में बँधे ही रहेंगे। यह एक ऐसा दुष्चक्र है, जिसे हम सब को ही व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों ही प्रकारों से समझकर ही तोड़ना होगा। इसके बाद ही भय क्या है, निर्भयता क्या है, और भय कितना उचित और कितना अनुचित, आवश्यक या अनावश्यक है, इस बारे में समझ पाना हमारे लिए संभव होगा। 

***

डरा हुआ कोई!

एक कविता : ट्विटर पर! 

--------------©-------------