प्रेरणा :
स्व. दुष्यन्त कुमार :
"ये रौशनी हकीकत में है एक छल लोगों!
कि जैसे जल में झलकता हुआ महल लोगों!"
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कविता : एक मायावी नदी यह!
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इस नदी में तैरना मुमकिन नहीं है,
और तुम कहते हो नौकायन करें!
इस नदी में जो झलकती है दुनिया,
दर्पण में जैसे प्रतिबिम्बित है दुनिया,
इतनी सच जैसी ये, लगती है दुनिया,
पर है आभासी, नहीं है सच ये दुनिया!
पर है सच यह, चमत्कार हो सकता है,
कोई इसकी सतह पर, चल भी सकता है!
जल की जैसे मायावी, सतह है एक यह नदी,
संचार और संपर्क करने की हमारी यह सदी!
स्नेह नहीं, न सही, संबंध तो हो सकता है,
यहाँ संचार तथा संपर्क भी हो सकता है,
जो सिर्फ वहम, विचार भी हो सकता है,
व्यापार व्यवसाय का प्रचार भी हो सकता है!
इस नदी के जल से पर न बुझ सकेगी प्यास,
करते रहो चाहे निरंतर, सतत कितना ही प्रयास!
संचार-युग की मृग-मरीचिका, मायावी नदी,
ज्ञान की तकनीक की, इक्कीसवीं यह सदी!
इससे अच्छा यही है, कि बैठ रामायण पढ़ें,
न कि उथली इस नदी में नौकायन करें!
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