August 26, 2022

संघं शरणं गच्छामि

बुद्धं शरणं गच्छामि  
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धर्म का अर्थ है स्वभाव, जो शरीर के ही साथ प्राप्त होता है। 
और उसी धर्म के अनुसार किसी भी मनुष्य का या जड-चेतन, सजीव अथवा निर्जीव पिंड का आचरण होता है।
यह जिन नियमों से होता है उसे समष्टि प्रकृति कह सकते हैं, उसे प्रकृति कह देने से हमें बस एक शब्द अवश्य प्राप्त हो जाता है और मन में यह विचार आता है कि हमने कुछ ज्ञान प्राप्त कर लिया है। फिर हमारा ध्यान इस पर नहीं जाता है कि एक और ऐसा ही एक शब्द 'ज्ञान' हमारी स्मृति और जानकारी का हिस्सा हो गया है। किन्तु वस्तुतः हमें शब्द या शब्दों के अतिरिक्त और क्या प्राप्त हो पाता है? जिन शब्दों का प्रयोग हम प्रायः करते हैं व्यवहार में उनका उपयोग हम समय समय पर करते हैं और वे सभी शब्द किसी न किसी वस्तु या व्यक्ति के नाम होते हैं। इसे ही व्याकरण में 'संज्ञा' (noun) कहा जाता है। वस्तु पुनः जड अथवा चेतन होती है। जड का अर्थ हुआ, जो कि पूर्णतः प्रकृति के तीन मौलिक गुणों अर्थात् सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण के ही सम्मिलित प्रभाव से ही परिचालित होता है। किसी जड वस्तु पर जब कोई शक्ति कार्य करती है, तो उस जड वस्तु पर उसका क्या प्रभाव होगा, इसका अनुमान पहले से ही किया जा सकता है, और भौतिक विज्ञान के माध्यम से इसे ही अधिक सुनिश्चित रूप से जाना भी जाता है। इसकी तुलना यदि किसी चेतन वस्तु से करें तो ऐसा कोई अनुमान लगा पाना इतना सरल नहीं होगा,  क्योंकि जब किसी चेतन वस्तु पर कोई भी शक्ति कार्य करती है, तो उस वस्तु में विद्यमान उसकी संवेदनशीलता की विशेषता ही यह तय करती है कि उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी। किसी चेतन वस्तु में किस प्रकार की इन्द्रियगत संवेदनशीलता है और वह कितनी अधिक विकसित है, यह उसकी जैव-संरचना की स्थिति और विकास से ही तय होता है। स्वर्गीय जगदीशचन्द्र बसु ने इसे ही वैज्ञानिक रूप से सिद्ध किया था। इसलिए चेतनता या चेतना ही वह जीवन है, जिसके आधार पर किसी वस्तु को निर्जीव या जड, और सजीव या चेतन में वर्गीकृत किया जा सकता है। चूँकि ऐसा वर्गीकरण करनेवाला अपरिहार्यतः स्वयं और अवश्य ही, ऐसा ही चेतन अस्तित्व होता है, इसलिए संवेदनशीलता या जीवन यह तत्त्व है जो कि सभी सजीव वस्तुओं में समान रूप से विद्यमान सर्वनिष्ठ सत्यता है।
इसी जीवन / चेतना / चेतनता की स्थिति और उसके विकास के अनुसार प्रत्येक सजीव वस्तु अर्थात् जीव-चेतना कम या अधिक उन्नत होती है। एक और विचारणीय और दृष्टव्य सत्य / प्रश्न यह भी है कि क्या इस चेतना से ही, और इस संवेदनशीलता के ही कारण हममें अपने (शरीर के) और संसार के अस्तित्व का भान और अनुमान उत्पन्न होता है, या कि इस संसार और उसमें एक इस अपने शरीर के प्राप्त होने के बाद ही इस प्रकार की चेतना / संवेदनशीलता उत्पन्न होती है! यह संवेदनशीलता अर्थात् चेतना वैसे भी सदैव ही ध्यान का ही पर्याय ही होती है, क्योंकि इसमें एक ही साथ अपने आपका और किसी न किसी दूसरी वस्तु का भी बोध हुआ करता है। किसी भी मनुष्य को जब अपना भान होता है, तो किसी अन्य वस्तु का भी, और इसी प्रकार किसी भी अन्य वस्तु का भान होते समय अपना भान अनिवार्यतः होता ही है। इसलिए यह कहना अनुचित न होगा कि यद्यपि और मूलतः एक ही चेतना, संवेदनशीलता या जीवन ही इदं (यह) और अहं (स्वयं / मैं) इन दो रूपों में एक साथ ही अभिव्यक्त और प्रकट होता है, किन्तु बाद में इन्द्रिय-संवेदना के विकास की भिन्नता के आधार पर इदं (यह) और अहं (मैं) पृथक् पृथक् जान पड़ते हैं।
इन दोनों का ही विस्तार यद्यपि अनन्त और असंख्येय जीवों के रूप में दिखाई देता है, किन्तु ऐसी प्रतीति से यह सत्यता बाधित नहीं होती कि जीवन, चेतना और संवेदनशीलता परस्पर अभिन्न और अविभाज्य वास्तविकता है। 
पुनः, वृक्ष-वनस्पति, पशु-पक्षी, जलचर, थलचर, उभयचर आदि यद्यपि भिन्न भिन्न प्रकार की चेतन, संवेदनशील अर्थात् सजीव वस्तुएँ हैं, फिर भी सबमें अन्तर्निहित जीवन ही एकमात्र सभी में विद्यमान उन सबका समान आधार है, जिसे कोई नाम भी दिया जा सकता है। किन्तु उस नाम को शाब्दिक रूप में जान लिया जाना वैसा ही है जैसे कि हमने प्रकृति अथवा ज्ञान इन दोनों को केवल शाब्दिक रूप में, इस आलेख के प्रारंभ में जाना था।
किन्तु यह जीवन ही वह धर्म है जो वस्तु-स्वभाव है।
इसे जब व्यक्ति तक सीमित कर दिया जाता है तो यह वैयक्तिक धर्म होता है जिसका अन्त सुखद या दुःखद हो सकता है। जब कोई धर्म का अनुसंधान करते हुए अन्त सुखद कैसे हो सकेगा, इस विषय में अन्वेषण करता है तो इसे श्रेयस् कहा जाता है।  जब ऐसे ही मनुष्यों का कोई समूह अपने सामूहिक कल्याण को श्रेयस्कर समझते हुए उस दिशा में कार्य करता है तो वह उनका संघ होता है। और जब ऐसा कोई संघ समष्टि कल्याण के ध्येय से प्रेरित होकर किसी ऐसी ही महान् आत्मा की शरण लेता है, जिसने इस श्रेयस् की प्राप्ति कर ली है, तब वह उसी संबुद्ध की शरण को प्राप्त हो जाता है, जो स्वयं ही यह संपूर्ण और समग्र जीवन भी है।
यही तीन सनातन नीति-सूत्र हैं जो कि हमें सदा ही दिशा दिखा सकते हैं!

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