October 31, 2009

पार्टी-टाईम (कविता)

पार्टी-टाईम ...
(कविता)
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उस पार्टी में,
बच्चे,
उल्लास ढूँढ रहे थे,
उन्हें मिल गया था,
युवा,
उत्तेजनाएँ ढूँढ रहे थे,
उन्हें मिल रहीं थी,
पिता,
नहीं जानते थे कि वे क्या तलाश रहे थे,
वे,
अन्यमनस्क से,
कोशिश कर रहे थे,
एक 'सोशल फंक्शन' में,
प्रसन्न दिखने की,

और पार्टी की व्यवस्था करने में संलग्न माँ,
तल्लीन थी,
-खुश और मगन,
पुलकित और प्रसन्न,
कर रही थी इंतज़ार अतिथियों का,
बाँट रही थी दुलार सबको,
हलाँकि 'सुख' को वहाँ निमंत्रित नहीं किया गया था,
(उसे कोई कहाँ ढूँढ रहा था !?)
लेकिन वह बिन बुलाए ही वहाँ चला आया था,
अनायास,
सौन्दर्य का हाथ थामकर,
मुस्कुरा रहा था,
माँ की आँखों में,
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त्वरित टिप्पणी -१/ (कविता)

त्वरित टिप्पणी -

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"इस दश्त में इक शहर था,... ... "
आज का अखबार,
रोज़ की तरह ,
'नया' है,
-ताज़ा !
बस 'बासी होने की 'प्रक्रिया' में है,
हो जाएगा थोड़ी देर में,
-'बासी',
आँगन में झर रहे हरसिंगार के फूलों की तरह,
-जैसे कि रोज़ हो जाया करता है ।
कल भी हुआ था,
-जब 'गुलाबी नगरी' में हुए,
'इंडियन ऑइल डिपो' के टैंकों में फूट पड़ी चिंगारी से उठी लपटों ने,
लील ली थीं कई जिंदगियाँ,
और कईको छोड़ दिया था,
अंधेरी ज़िंदगी जीने के लिए ।
याद आती है तीन-चार दिसंबर '८४
(पिछली सदी?)
की वह ठिठुरती सुबह,
जब ऐसी ही एक घटना भोपाल में हुई थी,
और हजारों जिंदगियाँ, ख़त्म हो गईं थीं ।
भोपाल भी एक खूबसूरत शहर है / था ।
क्योंकि हर शहर होता है खूबसूरत,
-
जब तक उसे कोई दूसरा 'दश्त',
चाहे कंक्रीट, गरीबी, या असंवेदनशीलता का ही क्यों न हो,
-ढँक नहीं लेता ।
कभी-कभी तो ज़हर या ज़हरीले धुएँ का !
और ज़हरीला धुआँ राजनीति की तरह,
हावी हो जाता है,
हवा में मौजूद,
'ऑक्सीजन' पर !
मैं नहीं कहता कि यह ग़लत है,
-या सही है,
यह तो बस एक 'त्वरित-टिप्पणी' है,
आज के अखबार पर,
आँगन में झर रहे हरसिंगार के फूलों पर,
एक तुच्छ, महत्वहीन टिप्पणी मात्र है यह !

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October 30, 2009

उन दिनों -32.


उन दिनों -32.
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पड़ौस के घर में एक गीत बज रहा था,
"बात निकलेगी तो फ़िर दूर तलक जायेगी ... ... "
यहाँ भी कुछ ऐसा ही लग रहा था । हमारे सामने कई मुद्दे थे :
'ईश्वर, जानना-इन्द्रिय-ज्ञान, वैचारिक ज्ञान, अभ्यासगत-ज्ञान, अनुभवगत ज्ञान, बौद्धिक ज्ञान, ... ...', अभी एन्लाइटेन्मेंट एक दूर की कल्पना था । एक 'विचार'-मात्र, और अभी तक तो मुझे ख़याल तक नहीं था कि 'ज्ञान' का स्वरूप मूलत: क्या है, इसे ठीक से समझे बिना ही ईश्वर या आत्मा, सत्य या 'ब्रह्म' जैसी चीज़ों के बारे में लंबे-चौड़ी बातें करते रहना अपने-आपको धोखा देना नहीं तो और क्या है !
लेकिन नलिनी और 'सर' के बीच की बातचीत ने मेरी इस लापरवाही की ओर मेरा ध्यान दिलाया कि अभी मुझे यही समझ में नहीं आया था, कि 'जानना' अपने-आपमें क्या होता है ?
सचमुच यह मेरे लिए एक ब्रेक-थ्रू ही था, और मैं अब तक जिसे 'ज्ञान' समझता (मानता) चला आया था, वह वास्तव में मेरा घोर अज्ञान- नहीं तो और क्या था, इस ओर मेरा ध्यान जीवन में पहली बार गया । जानने और समझने के बीच के गहरे भेद पर मेरी नज़र गयी ।
"मैं कुछ कहना चाहूंगी,"
-नीलम ने कुछ कहना चाहा ।
"मुझे यह समझ में आया कि जैसे प्रकाश में सात रंग होते हैं, लेकिन कोई भी रंग प्रकाश की उपस्थिति में ही व्यक्त हो उठता है, और प्रकाश का अपना कोई रंग होता हो, ऐसा कहना भूल है, वैसे ही, 'ज्ञान' या शुद्ध 'जानना', जो इन्द्रिय-ज्ञान,वैचारिक-ज्ञान, शब्दगत-ज्ञान, अभ्यासगत-ज्ञान, अनुभवगत-ज्ञान, और स्मृति-परक तथा बौद्धिक-ज्ञान आदि के रूप में व्यक्त होता है, वस्तुत: वैसा 'ज्ञान' या 'जानना' न होकर उससे बिल्कुल अलग कुछ है । "
'सर' प्रशंसात्मक दृष्टि से कौतूहलपूर्वक नीलम को देखने लगे ।
"तो क्या पहले यह समझना ज़रूरी नहीं है कि शुद्ध 'जानना' अपने-आपमें क्या या किस तरह की चीज़ है?
-शायद यही कहना चाहेंगे आप, है न ?"
-उसने 'सर' से पूछा ।
"हाँ ।"
अविज्नान भी अब नीलम को देख रहा था । शायद तय न कर पा रहा हो कि नलिनी और नीलम में से कौन अधिक प्रतिभाशाली है !
"क्या हम इस चर्चा में 'अतीन्द्रिय-ज्ञान' के बारे में भी कुछ विचार कर सकते हैं ?"
-नीलम ने पूछा ।
"क्या तथाकथित 'अतीन्द्रिय-ज्ञान' भी हमारी स्वप्न, जाग्रति की दशाओं में हमें होनेवाले 'ज्ञान' से किसी तरह से अलग किस्म का ज्ञान होता है ?"
-मैंने पूछा ।
'सर' ने थोड़ा विस्मयपूर्वक मेरी ओर देखा । शायद उन्हें इस चर्चा में शामिल होने-मात्र के लिए पूछ गया यह प्रश्न अनुचित लगा होगा , लेकिन वे बोले कुछ नहीं । अविज्नान भी मुझे देखने लगा था, किंतु उसके चेहरे पर निर्लिप्तता का भाव था ।
''नीलम ने एक उदाहरण दिया, -रंगों और प्रकाश का, बहुर सटीक उदाहरण था, लेकिन यह भी देखना होगा कि हम 'जानने' को 'जानना-समझना' चाहते हैं, या हमारी रूचि 'ज्ञान' के स्वरूप के बारे में कोई बौद्धिक निष्कर्ष या 'सिद्धांत' बनाने तक ही सीमित है ! क्योंकि वैसा सिद्धांत भी पुन: 'जानकारी'-मात्र होगा, जो हमें और अधिक विमूढ़ करेगा, न कि प्रबुद्ध"
-'सर' बोले ।
"सोचनेवाली बात या देखनेवाली बात यह है कि क्या नि:शब्द 'जानना' जैसी कोई चीज़ होती है ?"
'सर' ने इशारा किया ।
"हाँ ।"
-करीब पाँच मिनट तक चुप रहने के बाद नीलम बोली । बाकी सब अब भी चुप ही थे ।
शाम बीत चुकी थी ,'सर' दूर खिड़की से बाहर डी आर पी लाइन के अंग्रेजों के बाद के बने उस बंगले की ओर देख रहे थे, जहाँ छत से लटकते तार पर शायद सौ वाट का एक बल्ब मटमैली रौशनी फेंक रहा था । नीचे की खिड़की में अभी अँधेरा था । यहाँ से यह अनुमान लगाना मुश्किल था कि वह बँगला दो-मंजिला था या एक-मंजिला रहा होगा

यह सचमुच एक रहस्य है, कि हम 'ज्ञान' के स्वरूप पर कभी भूलकर भी नहीं सोचते। यदि कोई उस ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता भी है, तो हमें या तो वह बात समझ में ही नहीं आती, व्यर्थ की सनक या बौद्धिक शगल लगती है, या फ़िर महत्वहीन लगती है । कभी किसी 'प्रतिष्ठित' व्यक्ति के मुख से सुनने पर ही हमें ख़याल आ सकता है कि इस तरह से तो कभी हम देखते ही कहाँ हैं !
नलिनी ने यही पूछा था :
"मुझे लगता है कि 'ज्ञान' के स्वरूप पर विमर्श करते हुए नीलम की बात को हम 'सन्दर्भ-बिन्दु' के रूप में ले सकते हैं । "
-उसने कहा ।
"हाँ, अवश्य । "
-'सर' बोले ।
"लेकिन इन सारे भिन्न-भिन्न प्रकारों के ज्ञान या 'ज्ञानों' के बीच 'आत्म-ज्ञान' को कहाँ स्थान मिलेगा ?"
-नलिनी ने प्रश्न उठाया ।
"जैसा कि नीलम ने प्रकाश तथा रंगों का उदाहरण दिया, और हम समझ रहे हैं कि प्रकाश तथा रंग दो विजातीय चीज़ें हैं, और रंगों को प्रकट होने के लिए प्रकाश की उपस्थिति अनिवार्य होती है, जबकि प्रकाश रंगों से भिन्न 'स्वतंत्र' तत्त्व होता है -वैसे ही, क्या नि:शब्द-ज्ञान ही वह आधार-भूमि नहीं होता जिसमें अन्य सारे अनेक प्रकार के 'ज्ञान' 'प्रकट' और विलुप्त होते रहते हैं ? "
-'सर' ने प्रश्न किया ।
थोड़ी देर तक हम पुन: शान्ति से अगले वक्तव्य की प्रतीक्षा करते रहे ।
"हमारा समस्त ज्ञान उस प्रकार का होता है, जिसे हम एकत्र कर सकते हैं, खो या भूल सकते है । वह हमारा 'संग्रह' होता है , क्या उसे हम यथार्थ 'ज्ञान' कह सकते हैं ?"
-'सर' ने पूछा ।
पुन: कुछ समय तक सन्नाटा छाया रहा ।
"यदि उसे 'ज्ञान' कहें तो वह समस्त ज्ञान क्या विषयपरक (objective) ही नहीं होता ?"
"हाँ, इस दृष्टि से देखें तो यह भी प्रश्न उठता है कि यथार्थ 'ज्ञान' तो होता ही नहीं, या फ़िर 'स्व-परक', अर्थात् 'subjective' हो सकता है । "
-नलिनी उवाच ।
"फ़िर हम उस 'ज्ञान' के स्वरूप को, यथार्थ को, तत्त्व को, कैसे जान सकेंगे ?"
-'सर' ने पूछा ।
"उसे किसी भी 'विधि', तरीके, 'अभ्यास' या 'प्रयास' से कैसे जाना जा सकेगा ? क्या 'विधि', 'तरीका', 'अभ्यास' या 'प्रयास' ये सभी, 'स्व' तथा 'विषय', ('subject' and 'object') के परस्पर भिन्न होने की ही स्थिति में नहीं हुआ करते ? लेकिन उस यथार्थ ज्ञान का स्वरूप या तत्त्व ही ऐसा है कि उसे न तो 'संगृहीत' किया जा सकता है, न पाया जा सकता है, और न (प्रचलित अर्थ में) किसी को दिया ही जा सकता है । "
-
नलिनी ने आगे कहा ।
"-क्या इसका मतलब यह हुआ कि 'स्व' के स्वरूप को जानना,तथा 'ज्ञान' के स्वरूप को जानना वास्तव में एकमेव हैं ?"
-नीलम ने पूछा ।
"हाँ, मुझे तो ऐसा कहना बिल्कुल ठीक लगता है ।"
-'सर' ने उसकी पुष्टि करते हुए कहा ।
"लेकिन क्या यह सारी चर्चा उस तत्त्व को प्रत्यक्ष करने में सहायक नहीं है ?"
"हाँ ।"
-'सर' बोले ।
हम बहुत दूर निकल आए थे ।
पडौस में डेढ़ घंटे की शान्ति के बाद पुन: वही गीत बज रहा था :
"बात निकलेगी तो, फ़िर दू - - - - - - - - - - - - - - - - र तलक जायेगी । "

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>>>>>>>>>>>>>>> उन दिनों -33. >>>> >>>>>>>

October 27, 2009

मृत्यु-कामना . (कविता)

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ मृत्यु-कामना ~~~~~~~~~~~~~~~~
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ कविता ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ ( Death-Wish) ~~~~~~~~~~~~~~~~

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जैसे,
आदमी,
एक लंबे समय तक जीते रहने की इच्छा रखते हुए ,
-जीते रहने के बाद,
ऊब जाता है,
और चाहने लगता है,
मर जाना,
-किसी दिन,
किसी दिन,
- मर जाने की इच्छा करने लगता है,
दूसरी तमाम इच्छाओं की तरह,
उसकी यह इच्छा भी ,
या तो पूरी हो जाती है,
या बस कमजोरी या ताकत के साथ जीती रहती है ।
लेकिन तब हादसों का एक दौर शुरू होता है,
जब आदमी,
न तो जी रहा होता है,
न मर ही रहा होता है,
एक 'एनिमेटेड-कन्टीन्यूटी' में उम्र गुजारता हुआ ।
और यह दौर तब तक जारी रहता है,
जब तक कि वह 'इस' या 'उस' पार नहीं पहुँच जाता,
'एनिमेटेड-सस्पेंशन' से छूटकर ।
इस बीच उसे भ्रम होता रहता है कि वह ज़िंदा है,
-और कभी-कभी,
यह भी,
कि वह वाकई 'मर' चुका है ।
लेकिन कोई बिरला ऐसा भी तो होता होगा,
कि मृत्यु से पहले ही,
उसकी यह इच्छा दम तोड़ चुकी होती है,
-घूमता रहता है वह,
आकाश में,
किसी बादल सा,
कभी गरज़ता हुआ,
कभी बरसता हुआ,
कभी टूटता हुआ या जुड़ता हुआ,
-दूसरों से,
कभी सूरज को ढँकता हुआ,
कभी चन्दा को चूमता हुआ !
सब तरफ़ होकर भी,
सबसे जुदा !

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October 21, 2009

उन दिनों -31.


उन दिनों -31.

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"क्या यह निष्कर्ष था ?"
-मैं सोच रहा था ।
"नहीं, तब मन शाँत था, विचारों की गति और फ्रीक्वेंसी (बारम्बारता) लगभग शून्य थी ।"
मैं और मेरा 'स्व' बातें कर रहे थे ।
क्या मेरा 'स्व' मेरे 'मैं' से अलग कुछ है ?
"नहीं, मैं कुछ नहीं सोचूँगा,"
मैंने अपने-आप से कहा ।
लेकिन विचारों के घोड़े सरपट भागते ही जा रहे थे ।
सचमुच, जब विचार-शून्य होता है, तो कितना अच्छा लगता है ! लेकिन ऐसा तो कोई विचारों का दौर शुरू होने से पहले, जब मन विचार-शून्य होता है, तब कहाँ कह पाता है ?
सोचता हूँ कि 'सर' 'एन्लाईटैंड' हैं, इसका क्या मतलब है ?
मैं सचमुच महसूसने लगता हूँ, कि उन्हीं से पूछूँगा । लेकिन वे तो कभी दावा तक नहीं करते हैं । और शायद ही उनके मुँह से कभी इस शब्द का उच्चार सुना हो मैंने ।
फ़िर कौन कहता है ?
हाँ, रवि कहता है, और अविज्नान भी ।
और अविज्नान?
क्या वह भी है 'एन्लाईटैंड' ?
नहीं, मुझे इन बातों में नहीं पड़ना है ।
मैं उठकर किसी काम में मन लगाने की कोशिश करता हूँ ।
दो-तीन दिन इसी ऊहा-पोह में गुजर जाते हैं । तीसरे दिन नलिनी का आगमन होता है, आज वह दोपहर तीन बजे ही आ गयी थी । तब हम सो रहे थे । 'सर' शायद उनके कमरे में ऊपर ही थे अभी । रवि कहीं गया था, अविज्नान भी आराम कर रहा था ।
'अंकल, नमस्कार ! आज मुझे कुछ काम था तो नीलम के साथ बाज़ार गयी थी, वहाँ से तय हुआ कि आपके यहाँ आयेंगे । "
-वह बेतकल्लुफी से बोली ।
नीलम और नलिनी, दोनों का नाम अचानक याद हो आया । नीलम नलिनी से बहुत अलग तरह की लडकी थी । घरेलू किस्म की । नलिनी गंभीर थी, तो नीलम चंचल थी । हम बैठक में बातें कर ही रहे थे कि सीढियों से उतर रहे 'सर' ने हमें देखा ।
वे दोनों उठ खड़ी हुईं । 'सर' के और फ़िर मेरे भी चरण छुए, और दोनों खुसुर-फुसुर करते हुए किचन में चली गईं । 'बाई' का आगमन हुआ और रवि भी आ गया था ।
"हाय,"
नीलम और रवि के बीच औपचारिकता का संवाद हुआ । फ़िर सब बैठ गए।
'बाई' कुछ सामान तश्तरियों में रख गयी थी । चाय बना रही थी । थोड़ी ही देर में अविज्नान भी अपने कमरे से बाहर आया ।
"ऑब्जेक्टिव एंड सब्जेक्टिव रियलिटी,"
- नलिनी ने शुरुआत की ।
फ़िर वह चुप हो गयी।
सचमुच इस सभा की सूत्रधार वही थी, ऐसा लग रहा था । चाय पान का दौर हुआ । चाय पान का दौर संपन्न भी हुआ ।
"ऑब्जेक्टिव एंड सब्जेक्टिव रियलिटी," -
इस बार नीलम ने दोहराया । शायद उसे डर था कि कहीं चर्चा इधर-उधर न भटक जाए ।
"सर, आप कह रहे थे कि 'ऑब्जेक्टिव' तथा 'सब्जेक्टिव' रियलिटीज़ दो परस्पर स्वतंत्र सत्ताएँ नहीं हैं ।
हम ईश्वर के बारे में खोज करते हुए यहाँ तक पहुंचे थे । क्या 'ऑब्जेक्टिव रियलिटी' और 'सब्जेक्टिव रियलिटी' को थोड़ा विस्तार से समझायेंगे ?
नलिनी ने नीलम के सूत्र को आगे बढाया ।
'सर' हमेशा थोड़ा रुककर फ़िर बोलते थे ।
इस समय भी वे शांतिपूर्वक इधर-उधर देख रहे थे । जैसे कमरे में आती- जाती रहनेवाली गौरय्या इधर-उधर देखती है, फ़िर किसी स्थान पर जाकर ठहर जाती है, यहाँ दो गौरय्याएँ थीं । नहीं, मैं नीलम या नलिनी की बात नहीं कर रहा, मैं कह रहा हूँ 'सर' के उपनेत्र (चश्मे) के पीछे से झाँकती दो काली भूरी, जलीय आँखों की दृष्टि की । दोनों का साथ-साथ कमरे में इधर-उधर उड़ान भरना, और फ़िर कहीं ठहर जाना ।
फ़िर वे पल भर के लिए मेरे चेहरे पर रुकीं, अगले ही पल अविज्नान, रवि और बाई के चेहरों पर से फिसलती-फिसलती नलिनी के चेहरे पर ठहर गईं ।
"हमारे स्कूलों में जिसे 'सब्जेक्ट' कहते हैं, उसे हिन्दी में 'विषय' कहा जाता है । वह वास्तव में 'ऑब्जेक्टिव-रियलिटी' है । फ़िर, 'जो' विषय का अध्ययन करता है, उसे 'सब्जेक्टिव-रियलिटी' कहेंगे । 'ऑब्जेक्टिव-रियलिटी' के बारे में विज्ञान में अध्ययन होता है । 'सब्जेक्टिव-रियलिटी' के बारे में मनोविज्ञान में कुछ हद तक प्रयास किया जाता है । 'मन', 'चेतना', 'स्व', 'अंत:करण', ... ... तथा अवचेतन, चेतन, अचेतन, आदि का 'अध्ययन' किया जाता है । 'मानसिक-व्यवहार', आदि का । क्या इनमें से कोई भी वस्तु इन सबका 'अध्ययनकर्त्ता' होती हो, ऐसा हो सकता है ? या क्या कोई इन सबसे पृथक ऐसी वस्तु भी कहीं होती है, जिसे हम 'अध्ययनकर्त्ता ' कह सकें ? इसे हम दूसरे उदाहरण से स्पष्ट करें । यह जिसे हम 'जानना' कहते हैं, वह 'जानना' क्या है, -स्वरूपत: ?
क्या 'जानना' 'जानकारी' के बिना हो सकता है ?"
बहुत देर तक सभी 'सर' की बात पर गौर करते रहे ।
"जाननेवाला तो कोई होता ही है, जानकारी के अभाव में भी !"
नीलम ने साहसपूर्वक कहा ।
"कोई याने ?"
'सर' ने पूछा ।
"कोई व्यक्ति, या जीव, ..."
"हम 'सब्जेक्टिव रियलिटी' के बारे में खोज कर रहे हैं, यदि तुम कहो कि कोई व्यक्ति या जीव जाननेवाला होता है, तो अभी हम अनुमान तथा जानकारी के ही क्षेत्र में विचर रहे हैं । हमारे अपने, स्वयं के बारे में क्या कहोगी ?"
"जानकारी के अभाव में क्या हम समाप्त हो जाते हैं ?"
"नहीं होते । लेकिन जानकारी के अभाव में क्या 'जानना' संभव होता है?"
वे पुन: उसी प्रश्न पर लौट आए थे । 'सर' इस बारे में हमारा ध्यान आकर्षित करना चाहते थे कि ऐसे किसी अपने 'स्वतंत्र' एक अस्तित्त्व होने का विचार भी अन्य विचारों जैसा ही एक 'विचार'-मात्र है । और निश्चित ही यह एक ऐसा दुरूह पड़ाव था जिस तक पहुँचना ही बहुत मुश्किल था । लेकिन उस बारे में फ़िर कभी, अभी तो प्रश्न यह था कि 'जानना' अपने-आपमें एक 'स्वतंत्र-तत्त्व' है, या 'कोई' और ऐसी स्वतंत्र-सत्ता होती है, जो 'जानने की क्षमता से युक्त या रहित हुआ करती हो !
"नीलम, मैं सोचता हूँ कि मैं प्रश्न दोहरा रहा हूँ । "
-'सर' बोले ।
यह दोहराव ज़रूरी था, क्योंकि नीलम शायद ऐसे ही किसी 'स्वतंत्र' 'जाननेवाले' के अस्तित्त्व का आग्रह कर रही थी, जैसा कि हम सभी का अतीव प्रबल आग्रह होता है ।
"क्या 'जानने' हेतु कोई चेतन-सत्ता आवश्यक नहीं होती, जो कि 'जानती' है ? "
-नीलम ने प्रश्न किया । ज़ाहिर है वह नलिनी की पक्की दोस्त थी, और उन दोनों के बीच अवश्य ही इन बातों पर गंभीर चिंतन हुआ ही होगा, इसलिए वह इस चर्चा में सक्रिय भागीदारी कर पा रही थी ।
"मुझे लगता है कि पहले हमें 'जानना' क्या है, इस बारे में पता लगा लेना ज़रूरी है । "
-नलिनी ने कहा ।
अभी ईश्वर नेपथ्य में चला गया था ।
(consigned to back-burner, or put-off in a cold-storage, either enjoying the sizzling heat, or shivering in the ice-age !?)

"हाँ,"
-'सर' बोले ।
सचमुच यह विषय कठिन या दुरूह न भी हो, नया तो अवश्य ही था ।
"जानने की गुणवत्ता, न कि इन्द्रिय-ज्ञान, वैचारिक ज्ञान, अभ्यासबद्ध ज्ञान, बौद्धिक ज्ञान आदि-आदि । लेकिन इसके पहले हमें इन्द्रिय-ज्ञान, वैचारिक-ज्ञान, अभ्यासबद्ध-ज्ञान, बौद्धिक-ज्ञान आदि क्या है, क्या यह समझ लेना भी बहुत ज़रूरी नहीं है ?"
"हाँ, वैसे तो हम इस सब तरह के ज्ञान को समझते हैं, लेकिन क्या इनसे अलग तरह का भी कोई ज्ञान हो भी सकता है ?"
-नीलम ने ही पूछा ।
नलिनी ऐसा प्रश्न नहीं पूछ सकती थी (शायद), क्योंकि उसका 'चित्त' (मन नहीं,) कभी-कभी 'विस्मय' की जिस भूमि पर पहुँच जाता था, वह उसी ज्ञान की पूर्वभूमिका होता होगा, जिसे 'सर' निपट 'जानना' कह रहे हैं(शायद), ऐसा मेरा अनुमान है, क्योंकि अविज्नान और 'सर' से मुलाक़ात होने के बाद मुझे ऐसा समझ में आता है, कि यह 'मैं' जो उस ज्ञान में ही, उस ज्ञान से ही उपजता है, जिसे 'सर' 'जानना'-मात्र कहते हैं, दूसरे सारे विचारों जैसा ही शायद एक विचार-मात्र ही है । लेकिन अपने विचारों की भूल-भुलैया में मैं अभी उस सत्य को ठीक से ग्रहण नहीं कर पा रहा । मैं सोचता हूँ, कि शायद किसी सुबह, मैं समझ पाऊँगा,और इसीलिये अभी मैं 'एन्लाईटेन्मेन्ट' के बारे में ज़्यादा नहीं सोचता ।
"इन्द्रिय-ज्ञान या इन्द्रिय-संवेदन के बारे में हम समझते ही हैं, यह एक प्रकार का नि:शब्द ज्ञान होता है, जैसे 'सुनना', 'देखना', 'बोलना', शुद्ध शारीरिक अनुभूतियों का 'पता' चलना, जैसे भूख-प्यास, शीत-उष्णता, दर्द आदि शारीरिक क्रियाओं, जैसे मल-मूत्र विसर्जन की आवश्यकता का पता चलना आदि ।
फ़िर स्मृतिगत ज्ञान होता है, जो विभिन्न प्रकार की शारीरिक संवेदनाओं की स्मृतियों के रूप में होता है । यह भी नि:शब्द होता है । फ़िर 'अनुभवगत-ज्ञान' होता है जो भय, आशा, आशंका, आदि के रूप में 'अभ्यासगत-ज्ञान' बन जाता है । हम शायद कह सकते हैं कि ऐसा ज्ञान मनुष्य के अलावा दूसरे जीवों में भी होता है । फ़िर शब्दगत ज्ञान होता है, जब विभिन्न शब्दों को अनुभवों के विकल्प के रूप में प्रयुक्त करते करते हम इस धारणा के शिकार हो बैठते हैं कि 'जानकारी' ही ज्ञान है । फ़िर इस जानकारी के ही विभिन्न संयोजनों से 'वैचारिक-ज्ञान' का जन्म होता है । दूसरी ओर बौद्धिक-ज्ञान नामक एक और चीज़ भी होती है, जो 'अभ्यासगत', 'नि:शब्द' और 'वैचारिक' इन तीन रूपों में व्यक्त हो सकती है । एक जानवर भी बुद्धि का प्रयोग करता ही है । लेकिन पुन: ज्ञान के ये तीनों प्रकार भी मूलत:'अनुभवगत-ज्ञान' पर ही अवलंबित होते हैं, इसलिए ऐसे 'बौद्धिक' ज्ञान की शुद्धता और सुनिश्चितता संदेह से रहित नही हो सकती । "
'सर' बहुत धीरे-धीरे बोल रहे थे, हमें सुनाने के लिए पर्याप्त समय देते हुए ।
(इस बीच "ईश्वर क्या कर / महसूस कर रहा होगा?",- मैं सोच रहा था । )

>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>> उन दिनों -32.
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न जाने किस पल (कविता)

जाने किस पल
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(
अवचेतन)
मौसम मेरा दोस्त था,
-उन दिनों
उस मौसम में टूरिस्ट वहाँ नहीं आते ।
और मुझे सस्ती दर पर 'एकोमोडेशन' मिल जाता है ।
'ऑफ़-सीज़न' में।
उस शांत नीरव रात्रि में,
होटल के कमरे में,
-जहाँ मैं ठहरा था,
देर रात गए,
वैसे तो बहुत ही अच्छा लग रहा था,
और जब आभास तक नहीं था किसी अनहोनी का,
न जाने किस पल एक खूबसूरत तितली,
किसी रौशनदान से,
भीतर चली आई थी ।
कमरे में नाईट-लैंप की मंद रौशनी में,
इधर-उधर भटकती रही ।
उसे देखता हुआ,
न जाने किस पल, मैं एक कच्ची नींद में चला गया था ।
किसी अर्ध-जाग्रत स्वप्न में ।
टेबल पर रखे गुलदस्ते में,
यूँ तो कई फूल थे,
लेकिन एक सुर्ख गुलाब,
जो कुछ स्याह भी था,
लाजवाब था ।
न जाने किस पल,
मैं सोफे से उठा,
उसे धीरे-धीरे गुलदस्ते से आजाद किया,
हाँ, वह बहुत खूबसूरत था,
-मेरी साँसें तेज़ हो चलीं थीं।
यह इतना खूबसूरत क्यों हैं ?
-मैं सोचने लगा था,
मेरा शरीर ,
उत्तेजना से काँपने लगा था,
उँगली से एक लकीर खून की छलक पड़ी थी ।
मैं उसे चूमता रहा देर तक ।
न जाने कब खो गया था,
-निविड़ अन्धकार में,
सुबह उठते ही ,
वह सपना याद आया था ।
और मैं हड़बड़ाकर,
दौड़ पड़ा था टेबल की ओर,
वहाँ गुलदस्ते को देखकर तसल्ली हुई,
उठते ही जो शर्म, और ग्लानि,
अपराध और अवसाद, और अफ़सोस सा महसूस हुआ था,
वह खो गया था,
उस गुलाब को सही-सलामत देखकर ।
और फ़िर पलटा ही था,
कि नज़र गयी,
खिड़की के कोने के ऊपर,
जहाँ एक मोटी सी, लिजलिजी छिपकिली,
कोशिश कर रही थी,
स्विच-बोर्ड के पीछे छिप जाने की,
और मेरे पैरों के पास, फर्श पर,
दिखलाई दिए थे,
'मोनार्क' के पंख,
चार टुकड़ों में ।


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October 19, 2009

उन दिनों -30.

उन दिनों -30.

अथातो ईश जिज्ञासा
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शाम की चाय बन रही थी । अब लगने लगा था कि दिन छोटे होते जा रहे हैं ।
जब राजा रवि वर्मा चाय लेकर हाज़िर हुए तभी द्वार पर आहट सी हुई । दरवाजा खुला ही था । शुक्लाजी और उनके साथ कोई लड़की भी थी । उसे देखकर मुझे अपर्णा की याद आई । वे आकर बैठ गए। लड़की ने और शुक्लाजी ने भी आकर 'सर' को और मुझे भी चरण-स्पर्श किया ।
"आप बैठिये !"
-उसने रवि से कहा और 'मग्ज़' में चाय भरने लगी ।
"नलिनी है यह, वैसे तो मेरी दूर के रिश्ते की बहन है, लेकिन बचपन से ही एक ही मोहल्ले में रहने के कारण , यह बहन से कुछ अधिक है मेरे लिए ।"
रवि से उसकी पहचान थी, कभी-कभी वह रवि के अखबार में कुछ लिखती भी थी ।
"आपका प्रश्न !"
-शुक्लाजी ने उसे याद दिलाया ।
"मेरा प्रश्न ?"
-उसने तुरन्त ही प्रश्नवाचक मुद्रा में शुक्लाजी को देखते हुए पूछा ।
"सर, सुबह का प्रश्न दर-असल मेरा नहीं, नलिनी का प्रश्न था, जो उसे पूछना चाहिए था, लेकिन, सुबह उसे कॉलेज जाना था । इसलिए वह नहीं आ सकी थी ।"
""जी मैडम, शुरू कीजिये ।"
-शुक्लाजी ने आजिजी से कहा ।
"मैं बचपन से भगवान् के बारे में उत्सुक रही हूँ । मैं नहीं जानती कि 'भगवान' क्या है, कैसा है, स्त्री है, पुरूष है, साकार है, या निराकार है, 'है' या "हैं", लेकिन मन्दिर जाना मुझे बहुत अच्छा लगता है, शिव-पार्वती हों, सीता-राम या राधा-कृष्ण हों, दुर्गा माँ हो, या गणेशजी हों, साधारणत: किसी भी मन्दिर में जाना मुझे बहुत अच्छा लगता है ।
संस्कृत के स्तोत्र भी बहुत अच्छे लगते हैं, और हिन्दी के भजन भी, लेकिन मैं नहीं सोचती कि इन सब बातों में मेरे लिए किसी किस्म की भावुकता का कोई स्थान कहीं है । मुझे नहीं पता यह सब खामखयाली है, या सचमुच देवी-देवता कहीं होते हैं । लेकिन मुझे उस सबसे कोई मतलब नहीं है । मैं तो बस 'भगवान्' के बारे में जानना चाहती थी । "
हम सब शांतिपूर्वक सुन रहे थे ।
"क्यों ?'
"लोग सोचते हैं कि भगवान् कहीं है, कुछ लोग कहते हैं कि भगवान् कहीं नहीं है ,"
"लोगों की राय से तुम्हें कैसे पता चलेगा ?"
"मुझे लगता है, कि पहले हमें यह समझना चाहिए कि भगवान् से हमारा क्या तात्पर्य है । इसके बाद ही यह खोजना आसान होगा कि हम भगवान् का जो मतलब समझते हैं, वैसा कुछ है, या नहीं । "
"हाँ । "
कुछ देर तक फ़िर शान्ति रही चाय का दौर समाप्त होते ही वह उठी और सारे 'मग्ज़', केतली तथा ट्रे उठाकर 'किचन' में रख आई ।
अब चर्चा का दौर शुरू हुआ ।
"तो, तुम क्या सोचती हो, भगवान् कैसा है, या कैसे हैं ?"
-'सर' ने ही आरंभ किया ।
"भगवान के बारे में जानकारी तो हमें किताबों से, और लोगों से ही मिलती है, या तो हम उसे जस का तस मान लेते हैं, और वह जानकारी हमारी मानसिक आदत का एक हिस्सा बन जाती है । शायद उसमें भी कोई हर्ज नहीं है, लेकिन उसके बावजूद हमारे मन में निश्चिंतता नहीं आ पाती । फ़िर हम उस जानकारी से ही येन-केन-प्रकारेण एक धारणा बना लेते हैं भगवान् के बारे में । "
"हाँ,"
"फ़िर ?"
"फ़िर क्या, कभी-कभी हमें कुछ ऐसी 'रहस्यमय अनुभूतियाँ' भी हो जाती हैं, जिनसे हमें गहरा भरोसा हो जाता है कि भगवान् शिव, पार्वती, गणेश, षड़ानन, राम, कृष्ण, आदि के रूप में है, और हम उनकी भक्ति करने लगते हैं ।
लेकिन कभी-कभी हमारा विश्वास किसी घटना के कारण कम भी तो हो जाता है ? "
"फ़िर ?"
"इसका मतलब यही हुआ कि हम भगवान् को ठीक से नहीं जान पा रहे हैं । "
"हाँ । "
"इसलिए मैं सोचती हूँ कि भगवान् को ठीक से कैसे जाना जा सकता है ?"
"मैं भी तुम्हारी तरह सोचा करता था । लेकिन कुछ अलग ढंग से । भगवान् के बारे में हमें दो तरह से बताया जाता है । कुछ लोग कहते हैं, -'भगवान् है, वह /वे इस-इस तरह के हैं,' आदि । दूसरी ओर कुछ लोग घोर नास्तिक होते हैं, वे कहते हैं, '-भगवान् जैसा कुछ कहीं नहीं होता । ' पर क्या यह भी सच नहीं है कि 'भगवान्' शब्द का अर्थ ही सबके लिए अलग-अलग होता है ?"
"हाँ, यही तो, ..." उसने अचानक खुश होकर कहा ।
हम सब हँसने लगे .
वह और शुक्लाजी अचकचाकर हमें देखने लगे ।
"अविज्नान से परमिशन ली थी ?"
रवि ने मुस्कुराते हुए, तिरछी नज़रों से अविज्नान को देखते हुए नलिनी से पूछा ।
दर-असल 'यही तो ...' अविज्नान का पेटेंटेड वाक्य था, इसीलिये हम सब को हँसी आ गयी थी ।
"तो,
'सर' ने बात का रुख मोड़ते हुए पूछा,
... हम भगवान् के बारे में नहीं जानते ऐसा लगने के बाद ही हम भगवान् को जानने के लिए उत्सुक होते हैं न ?"
"हाँ, "
"लेकिन क्या कोई और कारण भी हो सकता है, हमारी इस 'भगवान् को जानने' की उत्सुकता के पीछे ? "
"हाँ, शायद हम 'भगवान्' के 'विशेषज्ञ' के रूप में समाज में कोई विशिष्ट महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर सकते हैं, ऐसा ख़याल भी शायद किसी के मन में उठता होगा, और मैं किसी और के बारे में नहीं कह रही, मेरे ही अपने मन में कभी-कभी ऐसा ख़याल उठता था । "
'नलिनी की साफगोई की दाद देनी होगी । '
-मैं सोच रहा था ।
अविज्नान ने पहली बार उसे गौर से देखा ।
हाँ, वह सुंदर थी, तेज-तर्रार थी, मृदु थी, सौम्य थी, मधुर कंठ था उसका और सुरीली आवाज भी उसकी एक ऐसी विशेषता थी कि वह शायद इस क्षेत्र में अच्छी 'प्रवचनकार' तो बन ही सकती थी । लेकिन वह इस बारे में पर्याप्त सावधान थी । वह शायद ही कभी किसी प्रवचनकार के प्रवचनों में जाती हो । फ़िर 'भगवान्' में उसकी क्या दिलचस्पी थी, मैंने सोचा ।
"तुम 'ईश्वर' शब्द को किस अर्थ में ग्रहण करती हो ? "
-'सर' ने पूछा ।
एक पिन-ड्रॉप सन्नाटा छाया हुआ था ।
'हाँ यह ठीक है ,' -मैं सोच रहा था ।
"ईश्वर की खोज करने के भी सबके अपने-अपने प्रयोजन होते हैं, और हर कोई 'भगवान्' की उसकी धारणा के ही प्रकाश में किसी ऐसी वस्तु की, या कहें पदार्थ या तत्त्व की खोज करता है, जिसे वह 'ईश्वर' कहता है । "
वह कुछ देर के लिए चुप हो गयी ।
"और यह प्रयोजन एक बाध्यता भी हो सकता है, जैसे कोई भय, कोई लोभ या लालच, कोई असुरक्षा की आशंका, कोई सुरक्षा की उम्मीद,...."
-उसने अपना वाक्य पूरा किया ।
"या कोई और वज़ह भी तो हो सकती है ! "
-'सर' ने पूछा ।
"हाँ, मैं सोचती हूँ, कि मेरी 'भगवान्' के प्रति उत्सुकता की वज़ह इनमें से कोई भी नहीं है । "
पुन: कुछ क्षणों तक सन्नाटा छाया रहा ।
"मेरी उत्सुकता की वज़ह है, -विस्मय, "
उसने शांतिपूर्वक कहा ।
"यह सारा अस्तित्व, हमारा जीवन, जीवन के अनोखे अद्भुत रंग, जीवन में विद्यमान गहरा सौन्दर्य, और सिर्फ़ सौन्दर्य ही नहीं, और भी बहुत-कुछ, जिसे हम हर पल महसूस करते हैं, यह सब कहाँ से उद्गमित होता है ? वह क्या है ? क्या है वह ? "
-कहते-कहते वह आंसू पोंछने लगी, उसका गला भर आया और उसकी आवाज़ बेसुरी हो उठी ।
लेकिन जल्दी ही उसने अपने-आपको संभाल लिया ।
हम सब हलके-हलके मुस्कुरा रहे थे । हम जानते थे कि उसे बुरा नहीं लगेगा ।
"क्या यह भावुकता नहीं है ?"
-मैं सोच रहा था ।
"ईश्वर है, या नहीं, इस प्रश्न का उत्तर खोजने से पहले हमें यह समझना ज़रूरी है कि 'ईश्वर' से हमारा क्या तात्पर्य है, किस किस्म की वस्तु है वह, किस रूप में हम उसे खोजने जा रहे हैं, संक्षेप में, ईश्वर है या नहीं, इसे जानने से पहले यह समझना ज़रूरी है, कि ईश्वर क्या है । और उसके अन्तर्गत एक चीज़ और भी जानना आवश्यक है, कि 'ईश्वर' क्या 'नहीं' है। इसे और ध्यान से समझें तो हम कहें कि वह जिसकी हम 'ईश्वर' की हमारी कसौटी पर जाँच कर रहे हैं, वह ईश्वर का एक पहलू भर है, या वही पूर्ण ईश्वर है । उदाहरण के लिए ईश्वर मात्र शब्द तो नहीं है, शब्द भी ईश्वर के अन्तर्गत है, यह हम अनायास समझ सकते है, लेकिन सिर्फ़ 'शब्द' शब्द का जो तात्पर्य हम ग्रहण करते हैं, ईश्वर उतना ही तो नहीं है न ?
इसलिए, ईश्वर, या भगवान्, हमारी कल्पना, उसके बारे में हमारे किसी भी अनुमान, आकलन, तर्क, सिद्धांत, ध्येय, आदि से परिबद्ध नहीं है । फ़िर भी उसे हम एक यथार्थ, एक सत्ता, एक परम सत्य के रूप में स्वीकार तो कर ही सकते हैं । वह सिर्फ़ प्रारम्भिक बिन्दु है । हम ईश्वर का ऐसा भौतिक या मानसिक चित्र या प्रतिमा नहीं बना सकते जो संपूर्णत:ईश्वर हो, इसलिए वह 'क्या नहीं है', इसे भी जानना होगा ।
फ़िर भी यदि ईश्वर एक सत्ता है, '-है', तो उसका वह 'होना' 'सत्य' है, तत्त्व है, कल्पना है, या कुछ अलग है ? "
-इतना कहकर 'सर' प्रतिक्रया का इंतज़ार करने लगे ।
"तात्पर्य यह हुआ, कि क्या 'ईश्वर' को समझने के लिए उसे अपनी धारणाओं से अलग किसी और सन्दर्भ में देखना ज़रूरी नहीं है ?"
"तुम्हें क्या लगता है ? "
"हाँ, लगता तो यही है । "
"क्या अब प्रश्न और भी जटिल नहीं हो उठा है ? "
-मैं सोच रहा था ।
"देखिये हम ऐसे तत्त्व को कहाँ खोजेंगे ? क्या वह हमसे बाहर ही कहीं है, कोई ऑब्जेक्टिव रियलिटी मात्र है क्या वह ?"
-वह सचमुच तैयार होकर आई थी । उसने चर्चा को जो मोड़ दिया, सचमुच वह प्रशंसनीय था ।
अविज्नान की आंखों में चमक आयी, नहीं तो ऐसी चर्चाओं में वह सामान्यत: उदासीन ही होता है ।
"क्या ऑब्जेक्टिव और सब्जेक्टिव , 'स्व' और जिसे 'स्व' जानता है वह ऑब्जेक्टिव, एक दूसरे से परस्पर स्वतंत्र दो 'सत्ताएँ' हो सकती हैं ?"
-'सर' ने पूछा ।
बहुत देर तक कहीं से कोई प्रतिक्रिया नहीं उठी ।
सूर्य अस्त हो चुका था । रवि ने उठकर बत्ती जलाई , कमरे में एक आलोक छा गया था । कृत्रिम आलोक था यह बिजली का, लेकिन बाहर के अंधेरे की तुलना में कम तेजस्वी नहीं था । और अभी तो यही पर्याप्त था ।
"न जाने क्यों जब भी वह आता है, हमारी वाणी मौन हो जाती है । "
-मैं 'ईश्वर' के बारे में सोचने लगा था । वे दोनों उठे, जाने से पहले पुन: 'सर' के और मेरे भी चरण छुए, और जब जा रहे थे, तो कुछ-कुछ अविज्नान से लगने लगे थे, जब वह कहीं और होता है !
>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>> उन दिनों -31.
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नियति (कविता) .


नियति
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हाँ,
मानता हूँ,
एक अनगढ़ पत्थर ही तो हूँ मैं ,
चाहो तो उछालो मुझको,
और पत्थर ही समझकर देवता की तरह पूजो मुझको,
बहस करो दोस्तों दुश्मनों से,
कि मैं पत्थर हूँ या कि हूँ देवता कोई !
और यदि सोचते हो कि मैं रास्ते की बाधा हूँ,
तो मुझसे बचकर के तुम निकल जाओ ।
मैं तो पत्थर ही हूँ,
एक अनगढ़ सा पत्थर !
सोचता हूँ कभी कोई पानी की लहर आयेगी,
धीरे-धीरे ही सही, गहरे पानी में ले जायेगी,
किसी नदी के आँचल में सरक जाऊंगा,
धीरे-धीरे ही सही, घिस-घिसकर
किसी न किसी दिन मैं,
गोल, चमकदार हो जाऊंगा,
खेलता पड़ा रहूँगा पानी में,
जब तक कि किसी दिन,
कोई आकर मुझे उबार न ले,
और फ़िर मुझको शिव शंकर समझकर,
मेरे बहाने सी वह भी,
ख़ुद ही ख़ुद से भी न उबर जाए,
पर अगर यह नहीं नियति मेरी,
तो शायद तुम ही कभी उठा लोगे मुझे,
प्यार से या कि फ़िर जबरदस्ती,
लेके छैनी-हथौड़ी हाथों में ,
मुझपे तुम ज़ोर आज़माओगे ।
मैं भी डरता हूँ सोचकर कि कहीं,
कि उछलकर उड़ती हुई कोई किरच,
तुम्हें लहू-लुहान ना कर दे,
और तुम्हारे साथ साथ मुझको भी,
कहीं बदनाम नहीं कर दे,
इसलिए बेहतर है -,
छोड़ दो मुझको तुम,
मेरी अपनी ही खुशनसीबी पे,
मेरे अपने ही हाल पर,
जो भी जैसा भी हूँ, -मैं ।

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October 18, 2009

उन दिनों -29.

उन दिनों -29.
"बस हम चाहते हैं कि कोई हमें बतलाये कि इस सब का क्या मतलब है ? हम, हमारा जीवन, हमारे तथाकथित 'धर्म', ईश्वर, आध्यात्म, इन सब चीज़ों के बारे में क्या कोई हमें बतलाता है ?"
-शुक्लाजी बोले ।
"तुम लोग आध्यात्म की शरण में, ग्रंथों की शरण में, गुरुओं के चरणों में नहीं गए ? "
-'सर' ने पूछा ।
"हाँ, हम तमाम बाबाओं, आचार्यों, विद्वानों, बुद्धिजीवियों, पंडितों, समाज-सुधारकों के पास गए, ज्योतिषियों, तांत्रिकों, दार्शनिकों, विचारकों, संतों, फकीरों योगियों, भक्तों आदि के पास भी गए, ख़ुद भी खोजने की कोशिश की, बहुत सी किताबें भी पढ़ते रहे, राजनीतिक विचारधाराओं को समझने की कोशिश भी हमने की । लेकिन सारे प्रयास करते हुए किसी एक को भी पूरी तरह समर्पित हुए हों ऐसा नहीं कह सकते । "
"यह तो अच्छा है न ?"
'सर' ने पूछा ।
"हाँ, एक दृष्टि से बहुत ही अच्छा रहा, क्योंकि हम किसी प्रकार के सिद्धांत या मतवाद के आग्रह से मुक्त रहकर खोज करते रह सके, पर, बस इतना ही । "
"फ़िर ?'
"फ़िर क्या, एक तरह से यह अच्छा तो है, लेकिन 'what next?' तो अभी भी हमारे सामने यक्ष-प्रश्न सा खड़ा है । ईश्वर है या नहीं ? इस सीधे से प्रश्न का भी कोई संतोषजनक उत्तर आज तक हमें किसी ने नहीं दिया । "
"हाँ । I see the point."
-सर बोले ।
"तुमने शायद पूरी मेहनत नहीं की । "
"हाँ, संभव है, पर वैसे भी यह कोई आसान सवाल तो नहीं है न ?"
"नहीं, मैं नहीं कहता कि यह सवाल आसान है या मुश्किल , लेकिन यदि तुम मेहनत करने के बाद भी इस सवाल का उत्तर नहीं ढूँढ सके, और दूसरे भी तुम्हें इसका संतोषप्रद उत्तर नहीं दे सके, तो ... ... ... "
-कहकर 'सर' चुप हो गए ।
"तो ?"
-बहुत लंबे एक पल तक प्रतीक्षा करने के बाद शुक्लाजी ने आख़िर पूछ ही लिया ।
'सर' फ़िर भी खामोश ही रहे ।
एक और लंबे पल की खामोशी के बाद बोले :
"क्या तुम्हें कभी ऐसा ख़याल नहीं आया कि शायद कहीं इस प्रश्न में ही कोई गहरी भूल है ?"
यह एक ज़बरदस्त आघात था । शुक्लाजी उबर सकते थे । उबर भी गए । फ़िर शान्ति से 'सर' के वचन पर चिंतन करने लगे ।
नहीं, उन्हें कोई ठेस नहीं पहुँच सकी थी । लेकिन अपने अभी तक अंधेरे में संघर्षरत रहने के तथ्य पर रौशनी पडी तो आश्चर्य का एक सदमा ज़रूर उन्हें पहुंचा ।
"पर आपसे पहले आज तक हमें किसी ने यह क्यों नहीं बताया ? "
-वे बोले ।
"क्योंकि वे पुराने उत्तरों से संतुष्ट थे, या उन्हें इतनी गहरी जिज्ञासा नहीं थी कि अंत तक खोजें ।"
-शांतिपूर्वक 'सर' बोले ।
एक सन्नाटा सा छाया हुआ था ।
हम सबको अंधेरे में ही छोड़कर 'सर' उठ खड़े हुए ।
"मेरे नहाने का वक्त है अब, फ़िर बातें करेंगे । "
-कहते हुए वे स्मितवदन उठ खड़े हुए ।
सबने विदा ली । लेकिन उनके जाने के बाद थोड़ी देर सब चुपचाप बैठे ही रहे । फ़िर वे चारों भी चले गए ।

>>>>>>>>>>>>>>>>> >>> उन दिनों - 30. >>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>

October 17, 2009

उन दिनों -28.

उन दिनों -28

अथातो जिज्ञासा
यह पुनरावृत्ति थी । हमारी चर्चा लगभग उसी रीति से हो रही थी, जैसी 'सर' के साथ मेरी चर्चा कभी हुई थी । शैली वही, लेकिन सब-कुछ नया-नया । जैसे आप किसी नए, बिल्कुल नए शहर में, दूर के किसी देश में होटल में ठहरें हों, और अलग-अलग खिड़कियों को अलग-अलग समय खोलकर, बाकी को बंद रखते हुए आकाश और शहर को देखें ।
फिलहाल वे चारों ड्राइंग रूम में चुपचाप बैठे हुए थे । अविज्नान खिड़की से बाहर देख रहा था । 'सर' और मैं भी चुप ही बैठे थे । वातावरण थोड़ा सा बोझिल लग रहा था । या मुझे ही ऐसा लगा होगा ।
"तुम लोग क्या करते हो ?" -सर ने आशुतोष को देखते हुए उनसे पूछा ।
"जी मैं और राजीव बैंक में कार्य करते हैं, भरत एम आर है, और शुक्लाजी, --- --- "
-कहते-कहते वह रुक गया ।
"जी मैं फिलहाल सड़क पर हूँ, याने कि बेरोजगार हूँ । " -शुक्लाजी बोले।
शुक्लाजी उन चारों में सबसे बड़े मालूम होते थे ।
तभी रवि ने हस्तक्षेप किया -
"सर, चारुचन्द्र शुक्ला अक्सर कवि-सम्मेलनों में निमंत्रण पाते हैं, स्थानीय हिन्दी साहित्य समिति के सचिव हैं, स्तरीय साहित्यकारों में इनकी गणना होती है, और इनके दो कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं ।
"जी, क्षमा चाहूंगा, इस अकिंचन के दो 'काव्य-संग्रह' अब तक छप चुके हैं । " शुक्लाजी ने संशोधन करते हुए कहा ।
फ़िर एक और संशोधन कर बोले,
'दर-असल' प्रकाशित हुए कहने की बजाय यह कहना अधिक उचित होगा, कि उनका बाकायदा 'विमोचन' किया गया था । क्या यह एक मुकम्मल टिप्पणी नहीं है, यथार्थ पर ?"
उनके शब्दों में वेदना थी, या आत्म-प्रशंसा, या कुछ और, इसका अनुमान तो साहित्य से जुड़े लोग ही बतला सकेंगे ।
इस 'परिचय' में कुछ ऐसी बात थी जिसने अविज्नान का ध्यान अपनी ओर खींचा । उसने कनखियों से शुक्लाजी को देखा और जल्दी ही वापस खिड़की से बाहर नज़रें घुमा लीं ।
"आप उज्जैन आते रहते हैं ? "
-आशुतोष ने 'सर' से प्रश्न किया ।
"नहीं, कोई ख़ास कारण तो नहीं होता, बस कौस्तुभ से मिलने का मन होता है तो कोई बहाना ढूंढ लेता हूँ ।"
-वे सरलता से बोले ।
वे चारों असमंजस में थे कि चर्चा का प्रारंभ कहाँ से करें, और रवि या मैं बर्फ तोड़ने में बिल्कुल उत्सुक नहीं थे । अविज्नान इस बीच वहाँ से जा चुका था ।
शुक्लाजी को मंच संभालने की आदत थी । उन्होंने ही शुरुआत करते हुए कहा, :
हम सभी एक ही कॉलोनी में रहते आए हैं, बचपन ही से वहीं गुल्ली-डंडा और क्रिकेट खेलते हुए बड़े हुए, हाँ, अलग-अलग स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ते हुए हम सब थोड़े-थोड़े अलग तरीकों से विकसित हुए, यह भी सच है । मेरी दिलचस्पी पढने-लिखने में ज़्यादा थी, लेकिन साहित्यिक चीज़ें मुझे ज़्यादा अच्छी लगतीं थीं । आशुतोष और राजीव पढने में मुझसे तेज़ थे, और कैरियर-कोन्शस भी थे । इसलिए आसानी से उन्नति की सीढियाँ चढ़ने लगे । "
"उन्नति की सीढियाँ" सुनते ही मुझे बरबस हँसी छूट गयी । मेरी हँसी के संक्रमण के असर से वे लोग भी मुस्कुराने लगे थे , लेकिन कोई यह न समझ पाया कि मैं क्यों हँसा था ।
"आप हँसे क्यों ?"
-शुक्लाजी ने मुझे सन्देहपूर्वक देखते हुए पूछ ही लिया ।
"मुझे कुछ याद आ गया था ।"
-मैंने जवाब दिया ।
"फ़िर ?"
- 'सर' ने गेंद वापस शुक्लाजी के पाले में डाल दी थी
"
हाँ, तो मैं यह कह रहा था, कि हम लोग याने तथाकथित 'बुद्धिजीवी' बस कुल मिलाकर अपनी रोजी-रोटी और तथाकथित 'भौतिक'-विकास की चिंता में उलझे रहे , -हम चारों और हमारे दूसरे दोस्त भी लगभग ऐसे ही हैं सभी । कुछ लोगों ने भौतिक सुरक्षा खोज ली, कुछ 'प्रेम' के चक्कर में पड़े, कुछ नशे की ओर मुड़ गए, तो कुछ परिस्थितियों के शिकार होकर लगभग नष्ट ही हो गए । सबसे बढ़कर , और सबसे अलग कुछ वे भी थे, जिन्होंने 'सफल' होने को अपने 'प्रतिभा-संपन्न' होने के प्रमाण, 'मैडल' की तरह स्वीकार किया, और गाहे-बगाहे उसकी नुमाइश का मौका मिलते ही, उसके मद में पुलकित रहे, -एक-दो ऐसे भी हैं ।
हममें से हर कोई फ़िर भी वर्त्तमान की चिंताओं और लालसाओं, उनके अधूरे रह जाने के भयों की आशंका से ग्रस्त है कि उनसे त्वरित मुक्ति पाने या उन्हें पूरा करने की कोशिश में ही उसका सारा विवेक, सारी 'बुद्धि' खर्च हो जाती है । वे इक्के-दुक्के तथाकथित 'सफल' भी इसका अपवाद नहीं हैं, उन्हें भी अपने शिखर पर पहुँचे होने के भ्रम को बनाए रखने के लिए लगातार 'जूझते रहना' होता है, और वे सिर्फ़ इसी कोशिश में अंतत: समाप्त हो जाते हैं । मुझे नहीं लगता कि उनमें वह तेजस्विता शेष रह पाती है, जिसकी उम्मीद उनसे की जाती है । "

'सर' बस शांतिपूर्वक सुन रहे थे । इतने ध्यानपूर्वक, कि उनका मौन सहसा दिखलाई भी नहीं देता था।
"तो यही तो जीवन है !" -मैंने चर्चा में हस्तक्षेप किया । मानता हूँ , मैं चाहता था कि चर्चा किसी फ़लप्रदता तक पहुंचे । साथ ही 'सर' का भी सक्रिय इन्वोल्वेमेंट उसमें हो ।
"हाँ, लगता तो यही है कि यही तो जीवन है, और क्या उम्मीदें जीवन से हो सकती हैं, इसकी तो हमें कभी कल्पना तक नहीं उठती । लेकिन कभी-कभी इस सब पर शक भी ज़रूर उठता है, यह भी सच है । हाँ, अगर हमारा जीवन बढिया चलता रहे, दूसरों की तुलना में हम ज़्यादा सफल रहें, सुख-सुविधाएं, और थोड़ी-बहुत परेशानियाँ भी रहें तो हमें शिकायत नहीं होती जीवन से । और हम इस कभी-कभी उठनेवाले शक को फूँक मारकर उड़ा देते हैं । "
-शुक्लाजी डटे हुए थे ।
"फ़िर ?"
-'सर' ने पूछा ।
"कुछ नहीं, इसी में ज़िंदगी गुज़र जाती है । "
- शुक्लाजी उनके मुख को स्थिर दृष्टि से देखते हुए बोले ।
"किसकी ?"
-'सर' ने पूछा ।
"मनुष्य की, हमारी, और किसकी ?"
आशुतोष ने अचानक उत्तर दिया ।
"फ़िर तुम्हें क्या लगता है ?" इसके लिए क्या करना चाहिए ?
-'सर' ने अपने प्रश्न को बदलते हुए पूछा ।
बर्फ टूट चुकी थी । संवाद शुरू हो गया था। लेकिन हिमनद बहुत धीरे-धीरे खिसक रहा था ।
"You shall not regret,"
-मैंने अपने-आपसे कहा ।

>>>>>>>>>>>>>>>> उन दिनों -29. >>>>>>>>>>>>>>>>
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October 11, 2009

उन दिनों -27

उन दिनों - 27.
"दर-असल होता यह है कि मैं जब उस 'अवस्था' में होता हूँ , और अचानक माहौल बदल जाता है, तो नए लोगों और बदले हुए माहौल में अपनी नए सिरे से एक 'पहचान' स्थापित करना मेरी पहली ज़रूरत होती है । नहीं तो मैं किसी से कनेक्ट ही नहीं हो सकता । क्योंकि कनेक्ट हो पाने के लिए कोई तो टर्मिनल होना चाहिए । उस अवस्था में तो कोई टर्मिनल कहाँ होता है ? पहले अपने एक 'मैं' को जगाना होता है, फ़िर औरों से इस 'मैं' के संबंध को माहौल के परिप्रेक्ष्य में समझना होता है, और फ़िर उस परिचय के चित्र को जीवन देना होता है, -सत्यता देनी होती है । यह सब बड़ा कठिन होता है । अगर 'व्यक्ति' को सत्य कहें तो उस अवस्था से 'व्यक्ति' के स्तर पर रूपांतरित होना, आसान तो नहीं हो सकता ।
हालांकि बचपन में उस पार्टी में उस दिन उस लड़की से हुई मुलाक़ात के बाद जो महसूस हुआ था, और जिसे उपयुक्त शब्द के अभाव में मैं अवस्था कह रह हूँ, यदि वह विशेष तरह की अनुभूति मेरे समक्ष न प्रकट हुई होती, तो शायद मैं भी औरों की तरह आसानी से दूसरों में घुल-मिल सकता, और सदा किसी दूसरे का सहारा खोजता रहता, -अपने से बाहर कहीं । "
अविज्नान की ईमानदारी और गंभीरता पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता था । 'सर' में जो हाज़िर-जवाबी देखी है मैंने, उसमें एक उल्लास और एक आकुलता हुआ करती है, जबकि अविज्नान की हाज़िर-जवाबी यथासंभव गंभीर और ईमानदार होती थी, जैसे कोई बारीक हिसाब समझा रहा हो ।
"तुमने एक बात और कही थी, कि स्मृति और विचार से रहित चेतना , -शुद्ध चेतना क्या है, यह तुम्हें उस अनुभूति से ही पता चला था । " -मैंने उसका पीछा नहीं छोड़ा था ।
वह बस अपलक मेरी ओर देखता रहा था ।
"हां," वह आगे बोला,
"देखिये कई चीज़ें हमें जब समझ में आती भी हैं, तो वे समझ में आई हैं, ऐसा तत्काल ही पता चले यह ज़रूरी नहीं, कभी कभी तो बरसों तक भी पता नहीं चल पाता है । वह तो समय गुजरने पर ही पता चलता है कि ... ... । "
-उसने वाक्य को वहीं छोड़ दिया ।
"जैसे ?"
-मैंने अधीरता से पूछा ।
"जैसे आपको किसी से प्यार हो जाता है, तो क्या तुंरत ही समझ में आ जाता है ? " -उसने गंभीरतापूर्वक पूछा ।
मुझे झटका सा लगा । प्यार की बात वह ऐसे कर रहा था जैसे जेब कट जाने की बात हो । शायद जेब कट जाने का उदाहरण ज़्यादा मुनासिब होता ।
"या जैसे जेब कट जाए । " -मैंने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा था ।
"जेब कटने पर तो तुंरत ही समझ में आ जाता है । " -उसने हँसते हुए कहा ।
"अच्छा, क्या तुम्हें कभी-कभी ऐसा नहीं लगता कि तुम्हारी हालत कोई न्यूरोटिक-कंडीशन तो नहीं है ?"
"मैं आपको बतला चुका हूँ कि यह कोई 'अनुभव' या कंडीशन नहीं है । यही एकमात्र अनकंडीशनल चीज़ है, जिसके आधार पर अन्य सभी दशाएं, सारे अनुभव, होते, बनते-बिगड़ते , टिकते-मिटते रहते हैं । "
-उसका 'कूल' याने ठंडा जवाब आया ।
यह पुनरावृत्ति थी । हमारी चर्चा लगभग उसी रीति से चल रही थी जैसी 'सर' के साथ कभी मेरी चर्चा हुई थी ।
"अच्छा, तुम 'चित्त' और 'मन' इन दो शब्दों का अलग-अलग अर्थ करते हो । उससे भी तुम्हारी बातें समझने में मुश्किल आती है । " -मैंने चर्चा आगे बढ़ाई ।
"देखिये मैं आपको कुछ सुनाता हूँ, " कहकर उसने अपने झोले से वही पुरानी डायरी निकाली, जिसमें से उसने कभी पुरी के समुद्र-तट पर मुझे 'सेतु-सोपान-सूत्र' सुनाया था ।
'चित्तं चित् विजानीयात् 'त'-कार-रहितं यदा,
'त'-कार विषयाध्यासो ... ... ... ... ... ... ... ... "
कहकर उसने विस्तार से समझाना शुरू किया ।
"हम पता नहीं क्या-क्या जानते हैं । लेकिन यह 'जानना' अपने-आप में क्या चीज़ है, इस पर कभी हमारा ध्यान ही नहीं जाता । इतना अमूर्त्त तत्त्व है , यह "जानना"; कि यद्यपि इसके माध्यम से ही सब-कुछ जाना जाता है, लेकिन स्वयं इसे किसके माध्यम से जाना जाए?
'जानना' तो आधारभूत तत्त्व है सारे ज्ञान का । जैसे किसी भव्य भवन की प्रशंसा करते समय उसकी नींव पर हमारा ध्यान नहीं जाता, वैसा ही कुछ इस 'जानने' और ज्ञान के पारस्परिक संबंध के बारे में है । जब हम 'ज्ञान' को, 'जानकारी' को, 'सूचना' को, 'इन्फ़ोर्मेशन' को ही सब कुछ समझते हैं, तो यह वैसा ही है, जैसे किसी भव्य भवन की तारीफ करते समय उसकी नींव पर ध्यान न देना । हम विचार को ही ज्ञान समझ बैठते हैं । या फ़िर हम विचारों की प्रस्तुति की कला को ही ज्ञान समझ बैठते हैं । ऐसा ज्ञान सदैव विकल्पात्मक होता है । ऐसा ज्ञान, ज्ञान नहीं, ज्ञान का आभास मात्र होता है । इसे स्थूल ज्ञान भी कह सकते हैं । यह 'विषयों' के बारे में हमारी 'जानकारी' का सूचक होता है । इसका अपना उपयोग है, खासकर भौतिक पदार्थ, भौतिक काल, भौतिक स्थान आदि के परिप्रेक्ष्य में । लेकिन वह सारा ज्ञान स्वयं 'जानने' का स्वरूप तत्त्वत: क्या है, इस बारे में कोई संकेत तक नहीं देता । हम अपने बारे में भी जानते हैं । लेकिन यह अपने बारे में 'जानना' न तो जानकारी होता है, न सूचना, और न कोई इन्फ़ोर्मेशन होता है । लेकिन वह आधारभूत 'जानना' है, जिस के सहारे बुद्धि, विचार, स्मृति, भावनाएं, निश्चय आदि का भव्य भवन खडा होता है, और इस बुनियादी 'जानने' की ओर ध्यान देने की हमें सूझती ही नहीं । फ़िर, यह भी उल्लेखनीय है कि यह 'जानना', नि:शब्द होता है, अपने 'होने' और अपने 'होने' के बारे में यह 'जानना तो हमें स्वभाव से ही मिला हुआ है । क्या उसे प्रमाणित किए जाने की ज़रूरत होगी ? या, क्या उसके अस्तित्त्व को इनकार किया जा सकता है ? लेकिन वह 'जानना' हमारा इतना अन्तरंग है, कि उसे किसी तर्क या तकनीक से निरस्त नहीं किया जा सकता । वह हमारा स्वरूपभूत अकाट्य सत्य है । इस 'जानने' के तत्त्व को हम वैयक्तिक समझ बैठते हैं, जो कि हमारा एक भ्रम है । जब हमारी बुद्धि काम नहीं करती, तब भी हमें पता होता है कि मेरी बुद्धि काम नहीं कर रही । जब हम सोच नहीं पाते, तो 'जानते' हैं कि मैं सोच नहीं पा रहा । तो यह 'जानना' एक अमूर्त्त तत्त्व है, जो हममें आवश्यक रूप से अन्तर्निहित है । लेकिन दूसरी ओर जिस तथ्य को देख पाने में हमें अत्यन्त कठिनाई होती है, वह यह है, कि हम 'जानने' में ही अन्तर्निहित हैं । यदि 'जानना' नहीं, तो हम नहीं । यह 'दर्शन-शास्त्र' नहीं 'दर्शन' है, शुद्ध दर्शन, जो कोई फिलोसोफी या बौद्धिक 'निष्कर्ष' या अनुमान कदापि नहीं है । वे भी इस 'जानने' में ही , इस पर ही अवलंबित होते हैं, जबकि 'जानना' उन सबसे असंलग्न , परम स्वतंत्र है । फ़िर 'वह वैयक्तिक है', हमारा ऐसा ख़याल भी बुनयादी भूल है हमारी । वह सबमें व्याप्त है, और सब उसमें व्याप्त है । जब वह व्यक्ति-विशेष में अभिव्यक्त होता है , तो उसे 'चेतना' कहा जा सकता है ! उस 'चित्' अर्थात् 'शुद्ध जानने' का व्यक्तिगत रूप है चेतना / 'जीवनं सर्वभूतेषु' (गीता अध्याय / श्लोक ), इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना (गीता अध्याय १०, श्लोक २२)
यहाँ से मुझे 'चित्', 'चित्त', और 'मन' को परस्पर भिन्न समझने का युक्तिसंगत आधार मिलता है ।
'जानना' है सबसे स्वतंत्र अमूर्त्त 'चित्' तत्त्व, जिसमें सब अन्तर्निहित है, और जो सबमें अन्तर्निहित है ।
'चेतना' है वैयक्तिक 'चित्त', जो सदैव होता तो है लेकिन अमूर्त्त होते हुए भी भिन्न भिन्न व्यक्तिगत अनुभवों का आधार होता है ।
और 'मन' वह है, जो कि चित्त से 'विषयों' के जुड़ने पर अस्तित्त्व ग्रहण कर लेता है
इसलिए मूलत: तो 'चित्त', 'चित्' की ही स्थानीय (localised) अभिव्यक्ति है , जो जीव-विशेष में प्रकट होती है जब 'चित्त' विषय-मात्र से रहित होता है, तो शुद्ध चित्-रूप पाया जाता है -
चित्तं चित् विजानीयात् 'त्'-कार-रहितं यदा,
''-कार विषयाध्यासो ... ... ... ... ... ... ... ...
''-कार का अर्थ है 'गुण', फैलाव, विशेषता, 'त्व', जैसे एकता और एकत्व एक का का गुण होते हैं ''-कार है, चित्त से विषय की संलग्नता, निकटता तब अपनी एक कृत्रिम 'पहचान' पैदा होती है । " -कहकर उसने डायरी बंद कर दी ।

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October 10, 2009

उन दिनों -26.

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उन दिनों - 26.
अविज्नान 'अवस्था' की etymology बतलाने लगा ।
फ़िर मैंने चर्चा में हस्तक्षेप करते हुए पूछा , :
'अच्छा, तो क्या अवस्था के इस स्वरूप का दर्शन करना कोई 'अनुभव' है ?'
'यही तो समस्या है ! यद्यपि सारी अनुभव इसी की पृष्ठ-भूमि में होने से घटित होते हैं, किंतु यह 'पृष्ठ-भूमि' किसी किस्म का अनुभव है, ऐसा कहना अनुचित होगा । फ़िर भी, अनुभवों की श्रंखला के अवरुद्ध होते ही वह अवस्था अकस्मात् प्रत्यक्ष हो उठती है , बस इतना ज़रूर कह सकते हैं । '
हम फ़िर मौन हो गए । मैं पूछना तो और भी बहुत कुछ चाहता था, लेकिन उसके चारों और 'मौन' का जो प्रभामंडल मुझे आलिंगित कर रहा था उसमें मेरे सारे प्रश्न मुझे निपट अर्थहीन लगने लगे थे ।
उस मौन में टिके रहना फ़िर भी मेरे लिए कुछ कठिन था । मेरा अपना ही मन मुझे उसमें डूबने में बाधा बन रहा था । जैसे सुबह-सुबह बहुत अच्छी नींद आ रही हो, और सड़क का शोर आपको सोने न दे ।
लेकिन तब मैं सो भी कहाँ रहा था ? तब मैं बिल्कुल जागृत था, -ऐसी जागृति तो कभी-कभी ही हुआ करती है ।
उस मौन में टिके रहना कठिन इसलिए भी था, क्योंकि तब चित्त में कुछ कौंध रहा था । यह शोर तो नहीं था, लेकिन मन की ही पुरानी मूर्खताओं के क्रम की एक कड़ी था ।
यह कुछ वैसा था, जब सूरज क्षितिज पर होता है, और आप तय नहीं कर पाते की अब सुबह होने जा रही है, या शाम ।
लेकिन अविज्नान मानों मेरे मन तथा चित्त को भी खुली किताब की भाँति पढ़ रहा हो । उसने ही मौन भंग किया, वह बोला, :
"कभी-कभी ऐसा होता है कि आपका चित्त समय को धोखा देकर अस्तित्त्व के गहनतर स्तरों को छूने के लिए व्याकुल होता है, और 'मन' के विचार, ऐसा होने में खलल डालते हैं । फ़िर भी कभी-कभी खुशकिस्मती से , चित्त समय को (या मन को) धोखा दे पाने में सफल हो जाता है, और उन स्तरों से 'एकात्म' हो जाता है । उस विभोर स्थिति में अनायास उस अवस्था के दर्शन हो सकते हैं, जो सम्पूर्ण अस्तित्त्व का सारतम सत्य है , -जो विचार या मन कदापि नहीं है । मन या विचार तो उस पर छाये बादल या आवरण मात्र हैं । फ़िर उस 'सत्य' का दर्शन 'किसे ' हुआ / होता है, यह प्रश्न भी एक असंगत प्रश्न जान पड़ता है ।
मैं उसे 'प्रज्ञा' कहना चाहूंगा । क्योंकि विचार या मन के न होने पर 'मैं' जैसी कोई चीज़, - अस्तित्त्व से अपनी कोई पृथक 'पहचान ही कहाँ शेष रह जाती है ?
लेकिन इसीलिये तब आप 'कहीं-और' होते हों, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता । आप स्वप्न में, नशे में, निद्रा में, या बेहोशी में नहीं होते, आप किसी कल्पना में भी निमग्न नहीं होते । "
"क्या यह आत्म-साक्षात्कार (enlightenment) है ? " -मेरे मन में तुंरत ही प्रश्न उठा, लेकिन एक दूसरा प्रश्न उसे किनारे करता हुआ प्रबल हो उठा ।
"फ़िर अविज्नान के साथ ही ऐसा क्यों होता है ? वह अजनबी माहौल में लोगों को उस विशेष दृष्टि से क्यों देखने लगता है, जो लोगों को स्तब्ध कर देती है ?" -मैंने अपने भीतर, और उससे भी सवाल किया ।
"हाँ, मैंने ख़ुद भी इस पर सोचा है, और 'सोचा है' कहने से बेहतर होगा, यह कहना कि मैंने इसका पता लगाने की कोशिश की है । "
मैं चुपचाप सुनने लगा, इंतज़ार कर रहा था मैं, उसके जवाब का ।
>>>>>>>>>>>>>>>>>उन दिनों -27 >>>>>>>>>>>>>>>>
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October 01, 2009

मूढ़-मति !

मूढ़-मति !

तब और अब में,
कितना-कुछ बदला है !
तब, न भविष्य था,
-और न 'तब' किसी 'भविष्य' का कोई ख़याल तक था ।
बस, वर्त्तमान -ही वर्त्तमान था ।
समय ?
-समय भी कहाँ अस्तित्त्व में था ?
लेकिन गुज़र गया, फ़िर भी ।
न जाने कैसे !
-कब हवा हो गया ,
-जो नहीं था,
वह !
... ... ... बाल: तावत् क्रीडासक्त: !

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और अब ?
अब समय ही समय है,
मेरे पास !
-सोचने के लिए !
अब भी भविष्य कहीं नहीं है,
लेकिन उसका ख़याल ज़रूर है !
-ख्याल क्या ?
मेरे सामने मुँह फाड़े खड़ा एक बाघ ,
जिसे मैं मुँह बाये देख रहा हूँ ।
और ,
समय वह अंतराल है,
-जब वह बाघ मुझे फाड़ खायेगा ।
शायद एक लंबे पल में ।
ख़याल क्या,
-छाती पर पड़ा एक बोझ,
एक दु:स्वप्न ।
अंतहीन, .... , अनवरत ।
... ... ... वृद्ध: तावत् चिंतामग्न: ।

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हाँ,
बीच में वह भी वक्त था,
जब समय कैसे गुजर गया,
ठीक से कभी समझ ही नहीं सका ।
(- जो होता ही नहीं , वह गुजरने का सवाल ही कहाँ है ?
-पूछता हूँ मैं,
अपने-आप से ! )
प्यार, शादी, बच्चे,
और नौकरी !
हाँ मानता हूँ मैं,
कि तलाक़ का सुख मेरे नसीब में नहीं था !
( क्षमा करें, एक मसखरा विचार बीच में दखलंदाजी कर गया ।)
संबंध, व्यस्तताएँ, और 'कर्त्तव्य' !
डर, आशंकाएँ, और आकांक्षाएं !
-तरुण: तावत् तरुणी-रक्त: ... ... ... !

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लेकिन अब 'भजन' भी कहाँ हो पाता है ?
फ़िर भी हर रोज गीतापाठ करता हूँ,
-नियम से !
और रोज ही पढ़ता हूँ,
-द्वादश पंजरिका स्तोत्र !
-"भज गोविन्दम मूढ़-मते !"
सोचता हूँ,
शायद कहीं,
शायद कभी,
कुछ नया हो जाए !
या,
मरने से पहले,
कहीं कोई अघटित न हो जाए,
इस डर से ग्रस्त रहता हूँ,
-मैं  !
-आशावायु साथ जो नहीं छोड़ती !
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लेकिन,
"परमे ब्रह्मणि को 'पि न लग्न: "
पढ़ता हूँ मैं,
प्रतिदिन ।
शायद, शायद, शायद,
शायद !!!!!!!!!!!!!!!!

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