October 11, 2009

उन दिनों -27

उन दिनों - 27.
"दर-असल होता यह है कि मैं जब उस 'अवस्था' में होता हूँ , और अचानक माहौल बदल जाता है, तो नए लोगों और बदले हुए माहौल में अपनी नए सिरे से एक 'पहचान' स्थापित करना मेरी पहली ज़रूरत होती है । नहीं तो मैं किसी से कनेक्ट ही नहीं हो सकता । क्योंकि कनेक्ट हो पाने के लिए कोई तो टर्मिनल होना चाहिए । उस अवस्था में तो कोई टर्मिनल कहाँ होता है ? पहले अपने एक 'मैं' को जगाना होता है, फ़िर औरों से इस 'मैं' के संबंध को माहौल के परिप्रेक्ष्य में समझना होता है, और फ़िर उस परिचय के चित्र को जीवन देना होता है, -सत्यता देनी होती है । यह सब बड़ा कठिन होता है । अगर 'व्यक्ति' को सत्य कहें तो उस अवस्था से 'व्यक्ति' के स्तर पर रूपांतरित होना, आसान तो नहीं हो सकता ।
हालांकि बचपन में उस पार्टी में उस दिन उस लड़की से हुई मुलाक़ात के बाद जो महसूस हुआ था, और जिसे उपयुक्त शब्द के अभाव में मैं अवस्था कह रह हूँ, यदि वह विशेष तरह की अनुभूति मेरे समक्ष न प्रकट हुई होती, तो शायद मैं भी औरों की तरह आसानी से दूसरों में घुल-मिल सकता, और सदा किसी दूसरे का सहारा खोजता रहता, -अपने से बाहर कहीं । "
अविज्नान की ईमानदारी और गंभीरता पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता था । 'सर' में जो हाज़िर-जवाबी देखी है मैंने, उसमें एक उल्लास और एक आकुलता हुआ करती है, जबकि अविज्नान की हाज़िर-जवाबी यथासंभव गंभीर और ईमानदार होती थी, जैसे कोई बारीक हिसाब समझा रहा हो ।
"तुमने एक बात और कही थी, कि स्मृति और विचार से रहित चेतना , -शुद्ध चेतना क्या है, यह तुम्हें उस अनुभूति से ही पता चला था । " -मैंने उसका पीछा नहीं छोड़ा था ।
वह बस अपलक मेरी ओर देखता रहा था ।
"हां," वह आगे बोला,
"देखिये कई चीज़ें हमें जब समझ में आती भी हैं, तो वे समझ में आई हैं, ऐसा तत्काल ही पता चले यह ज़रूरी नहीं, कभी कभी तो बरसों तक भी पता नहीं चल पाता है । वह तो समय गुजरने पर ही पता चलता है कि ... ... । "
-उसने वाक्य को वहीं छोड़ दिया ।
"जैसे ?"
-मैंने अधीरता से पूछा ।
"जैसे आपको किसी से प्यार हो जाता है, तो क्या तुंरत ही समझ में आ जाता है ? " -उसने गंभीरतापूर्वक पूछा ।
मुझे झटका सा लगा । प्यार की बात वह ऐसे कर रहा था जैसे जेब कट जाने की बात हो । शायद जेब कट जाने का उदाहरण ज़्यादा मुनासिब होता ।
"या जैसे जेब कट जाए । " -मैंने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा था ।
"जेब कटने पर तो तुंरत ही समझ में आ जाता है । " -उसने हँसते हुए कहा ।
"अच्छा, क्या तुम्हें कभी-कभी ऐसा नहीं लगता कि तुम्हारी हालत कोई न्यूरोटिक-कंडीशन तो नहीं है ?"
"मैं आपको बतला चुका हूँ कि यह कोई 'अनुभव' या कंडीशन नहीं है । यही एकमात्र अनकंडीशनल चीज़ है, जिसके आधार पर अन्य सभी दशाएं, सारे अनुभव, होते, बनते-बिगड़ते , टिकते-मिटते रहते हैं । "
-उसका 'कूल' याने ठंडा जवाब आया ।
यह पुनरावृत्ति थी । हमारी चर्चा लगभग उसी रीति से चल रही थी जैसी 'सर' के साथ कभी मेरी चर्चा हुई थी ।
"अच्छा, तुम 'चित्त' और 'मन' इन दो शब्दों का अलग-अलग अर्थ करते हो । उससे भी तुम्हारी बातें समझने में मुश्किल आती है । " -मैंने चर्चा आगे बढ़ाई ।
"देखिये मैं आपको कुछ सुनाता हूँ, " कहकर उसने अपने झोले से वही पुरानी डायरी निकाली, जिसमें से उसने कभी पुरी के समुद्र-तट पर मुझे 'सेतु-सोपान-सूत्र' सुनाया था ।
'चित्तं चित् विजानीयात् 'त'-कार-रहितं यदा,
'त'-कार विषयाध्यासो ... ... ... ... ... ... ... ... "
कहकर उसने विस्तार से समझाना शुरू किया ।
"हम पता नहीं क्या-क्या जानते हैं । लेकिन यह 'जानना' अपने-आप में क्या चीज़ है, इस पर कभी हमारा ध्यान ही नहीं जाता । इतना अमूर्त्त तत्त्व है , यह "जानना"; कि यद्यपि इसके माध्यम से ही सब-कुछ जाना जाता है, लेकिन स्वयं इसे किसके माध्यम से जाना जाए?
'जानना' तो आधारभूत तत्त्व है सारे ज्ञान का । जैसे किसी भव्य भवन की प्रशंसा करते समय उसकी नींव पर हमारा ध्यान नहीं जाता, वैसा ही कुछ इस 'जानने' और ज्ञान के पारस्परिक संबंध के बारे में है । जब हम 'ज्ञान' को, 'जानकारी' को, 'सूचना' को, 'इन्फ़ोर्मेशन' को ही सब कुछ समझते हैं, तो यह वैसा ही है, जैसे किसी भव्य भवन की तारीफ करते समय उसकी नींव पर ध्यान न देना । हम विचार को ही ज्ञान समझ बैठते हैं । या फ़िर हम विचारों की प्रस्तुति की कला को ही ज्ञान समझ बैठते हैं । ऐसा ज्ञान सदैव विकल्पात्मक होता है । ऐसा ज्ञान, ज्ञान नहीं, ज्ञान का आभास मात्र होता है । इसे स्थूल ज्ञान भी कह सकते हैं । यह 'विषयों' के बारे में हमारी 'जानकारी' का सूचक होता है । इसका अपना उपयोग है, खासकर भौतिक पदार्थ, भौतिक काल, भौतिक स्थान आदि के परिप्रेक्ष्य में । लेकिन वह सारा ज्ञान स्वयं 'जानने' का स्वरूप तत्त्वत: क्या है, इस बारे में कोई संकेत तक नहीं देता । हम अपने बारे में भी जानते हैं । लेकिन यह अपने बारे में 'जानना' न तो जानकारी होता है, न सूचना, और न कोई इन्फ़ोर्मेशन होता है । लेकिन वह आधारभूत 'जानना' है, जिस के सहारे बुद्धि, विचार, स्मृति, भावनाएं, निश्चय आदि का भव्य भवन खडा होता है, और इस बुनियादी 'जानने' की ओर ध्यान देने की हमें सूझती ही नहीं । फ़िर, यह भी उल्लेखनीय है कि यह 'जानना', नि:शब्द होता है, अपने 'होने' और अपने 'होने' के बारे में यह 'जानना तो हमें स्वभाव से ही मिला हुआ है । क्या उसे प्रमाणित किए जाने की ज़रूरत होगी ? या, क्या उसके अस्तित्त्व को इनकार किया जा सकता है ? लेकिन वह 'जानना' हमारा इतना अन्तरंग है, कि उसे किसी तर्क या तकनीक से निरस्त नहीं किया जा सकता । वह हमारा स्वरूपभूत अकाट्य सत्य है । इस 'जानने' के तत्त्व को हम वैयक्तिक समझ बैठते हैं, जो कि हमारा एक भ्रम है । जब हमारी बुद्धि काम नहीं करती, तब भी हमें पता होता है कि मेरी बुद्धि काम नहीं कर रही । जब हम सोच नहीं पाते, तो 'जानते' हैं कि मैं सोच नहीं पा रहा । तो यह 'जानना' एक अमूर्त्त तत्त्व है, जो हममें आवश्यक रूप से अन्तर्निहित है । लेकिन दूसरी ओर जिस तथ्य को देख पाने में हमें अत्यन्त कठिनाई होती है, वह यह है, कि हम 'जानने' में ही अन्तर्निहित हैं । यदि 'जानना' नहीं, तो हम नहीं । यह 'दर्शन-शास्त्र' नहीं 'दर्शन' है, शुद्ध दर्शन, जो कोई फिलोसोफी या बौद्धिक 'निष्कर्ष' या अनुमान कदापि नहीं है । वे भी इस 'जानने' में ही , इस पर ही अवलंबित होते हैं, जबकि 'जानना' उन सबसे असंलग्न , परम स्वतंत्र है । फ़िर 'वह वैयक्तिक है', हमारा ऐसा ख़याल भी बुनयादी भूल है हमारी । वह सबमें व्याप्त है, और सब उसमें व्याप्त है । जब वह व्यक्ति-विशेष में अभिव्यक्त होता है , तो उसे 'चेतना' कहा जा सकता है ! उस 'चित्' अर्थात् 'शुद्ध जानने' का व्यक्तिगत रूप है चेतना / 'जीवनं सर्वभूतेषु' (गीता अध्याय / श्लोक ), इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना (गीता अध्याय १०, श्लोक २२)
यहाँ से मुझे 'चित्', 'चित्त', और 'मन' को परस्पर भिन्न समझने का युक्तिसंगत आधार मिलता है ।
'जानना' है सबसे स्वतंत्र अमूर्त्त 'चित्' तत्त्व, जिसमें सब अन्तर्निहित है, और जो सबमें अन्तर्निहित है ।
'चेतना' है वैयक्तिक 'चित्त', जो सदैव होता तो है लेकिन अमूर्त्त होते हुए भी भिन्न भिन्न व्यक्तिगत अनुभवों का आधार होता है ।
और 'मन' वह है, जो कि चित्त से 'विषयों' के जुड़ने पर अस्तित्त्व ग्रहण कर लेता है
इसलिए मूलत: तो 'चित्त', 'चित्' की ही स्थानीय (localised) अभिव्यक्ति है , जो जीव-विशेष में प्रकट होती है जब 'चित्त' विषय-मात्र से रहित होता है, तो शुद्ध चित्-रूप पाया जाता है -
चित्तं चित् विजानीयात् 'त्'-कार-रहितं यदा,
''-कार विषयाध्यासो ... ... ... ... ... ... ... ...
''-कार का अर्थ है 'गुण', फैलाव, विशेषता, 'त्व', जैसे एकता और एकत्व एक का का गुण होते हैं ''-कार है, चित्त से विषय की संलग्नता, निकटता तब अपनी एक कृत्रिम 'पहचान' पैदा होती है । " -कहकर उसने डायरी बंद कर दी ।

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