October 18, 2009

उन दिनों -29.

उन दिनों -29.
"बस हम चाहते हैं कि कोई हमें बतलाये कि इस सब का क्या मतलब है ? हम, हमारा जीवन, हमारे तथाकथित 'धर्म', ईश्वर, आध्यात्म, इन सब चीज़ों के बारे में क्या कोई हमें बतलाता है ?"
-शुक्लाजी बोले ।
"तुम लोग आध्यात्म की शरण में, ग्रंथों की शरण में, गुरुओं के चरणों में नहीं गए ? "
-'सर' ने पूछा ।
"हाँ, हम तमाम बाबाओं, आचार्यों, विद्वानों, बुद्धिजीवियों, पंडितों, समाज-सुधारकों के पास गए, ज्योतिषियों, तांत्रिकों, दार्शनिकों, विचारकों, संतों, फकीरों योगियों, भक्तों आदि के पास भी गए, ख़ुद भी खोजने की कोशिश की, बहुत सी किताबें भी पढ़ते रहे, राजनीतिक विचारधाराओं को समझने की कोशिश भी हमने की । लेकिन सारे प्रयास करते हुए किसी एक को भी पूरी तरह समर्पित हुए हों ऐसा नहीं कह सकते । "
"यह तो अच्छा है न ?"
'सर' ने पूछा ।
"हाँ, एक दृष्टि से बहुत ही अच्छा रहा, क्योंकि हम किसी प्रकार के सिद्धांत या मतवाद के आग्रह से मुक्त रहकर खोज करते रह सके, पर, बस इतना ही । "
"फ़िर ?'
"फ़िर क्या, एक तरह से यह अच्छा तो है, लेकिन 'what next?' तो अभी भी हमारे सामने यक्ष-प्रश्न सा खड़ा है । ईश्वर है या नहीं ? इस सीधे से प्रश्न का भी कोई संतोषजनक उत्तर आज तक हमें किसी ने नहीं दिया । "
"हाँ । I see the point."
-सर बोले ।
"तुमने शायद पूरी मेहनत नहीं की । "
"हाँ, संभव है, पर वैसे भी यह कोई आसान सवाल तो नहीं है न ?"
"नहीं, मैं नहीं कहता कि यह सवाल आसान है या मुश्किल , लेकिन यदि तुम मेहनत करने के बाद भी इस सवाल का उत्तर नहीं ढूँढ सके, और दूसरे भी तुम्हें इसका संतोषप्रद उत्तर नहीं दे सके, तो ... ... ... "
-कहकर 'सर' चुप हो गए ।
"तो ?"
-बहुत लंबे एक पल तक प्रतीक्षा करने के बाद शुक्लाजी ने आख़िर पूछ ही लिया ।
'सर' फ़िर भी खामोश ही रहे ।
एक और लंबे पल की खामोशी के बाद बोले :
"क्या तुम्हें कभी ऐसा ख़याल नहीं आया कि शायद कहीं इस प्रश्न में ही कोई गहरी भूल है ?"
यह एक ज़बरदस्त आघात था । शुक्लाजी उबर सकते थे । उबर भी गए । फ़िर शान्ति से 'सर' के वचन पर चिंतन करने लगे ।
नहीं, उन्हें कोई ठेस नहीं पहुँच सकी थी । लेकिन अपने अभी तक अंधेरे में संघर्षरत रहने के तथ्य पर रौशनी पडी तो आश्चर्य का एक सदमा ज़रूर उन्हें पहुंचा ।
"पर आपसे पहले आज तक हमें किसी ने यह क्यों नहीं बताया ? "
-वे बोले ।
"क्योंकि वे पुराने उत्तरों से संतुष्ट थे, या उन्हें इतनी गहरी जिज्ञासा नहीं थी कि अंत तक खोजें ।"
-शांतिपूर्वक 'सर' बोले ।
एक सन्नाटा सा छाया हुआ था ।
हम सबको अंधेरे में ही छोड़कर 'सर' उठ खड़े हुए ।
"मेरे नहाने का वक्त है अब, फ़िर बातें करेंगे । "
-कहते हुए वे स्मितवदन उठ खड़े हुए ।
सबने विदा ली । लेकिन उनके जाने के बाद थोड़ी देर सब चुपचाप बैठे ही रहे । फ़िर वे चारों भी चले गए ।

>>>>>>>>>>>>>>>>> >>> उन दिनों - 30. >>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>

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