उन दिनों -28
अथातो जिज्ञासा
यह पुनरावृत्ति थी । हमारी चर्चा लगभग उसी रीति से हो रही थी, जैसी 'सर' के साथ मेरी चर्चा कभी हुई थी । शैली वही, लेकिन सब-कुछ नया-नया । जैसे आप किसी नए, बिल्कुल नए शहर में, दूर के किसी देश में होटल में ठहरें हों, और अलग-अलग खिड़कियों को अलग-अलग समय खोलकर, बाकी को बंद रखते हुए आकाश और शहर को देखें ।
फिलहाल वे चारों ड्राइंग रूम में चुपचाप बैठे हुए थे । अविज्नान खिड़की से बाहर देख रहा था । 'सर' और मैं भी चुप ही बैठे थे । वातावरण थोड़ा सा बोझिल लग रहा था । या मुझे ही ऐसा लगा होगा ।
"तुम लोग क्या करते हो ?" -सर ने आशुतोष को देखते हुए उनसे पूछा ।
"जी मैं और राजीव बैंक में कार्य करते हैं, भरत एम आर है, और शुक्लाजी, --- --- "
-कहते-कहते वह रुक गया ।
"जी मैं फिलहाल सड़क पर हूँ, याने कि बेरोजगार हूँ । " -शुक्लाजी बोले।
शुक्लाजी उन चारों में सबसे बड़े मालूम होते थे ।
तभी रवि ने हस्तक्षेप किया -
"सर, चारुचन्द्र शुक्ला अक्सर कवि-सम्मेलनों में निमंत्रण पाते हैं, स्थानीय हिन्दी साहित्य समिति के सचिव हैं, स्तरीय साहित्यकारों में इनकी गणना होती है, और इनके दो कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं ।
"जी, क्षमा चाहूंगा, इस अकिंचन के दो 'काव्य-संग्रह' अब तक छप चुके हैं । " शुक्लाजी ने संशोधन करते हुए कहा ।
फ़िर एक और संशोधन कर बोले,
'दर-असल' प्रकाशित हुए कहने की बजाय यह कहना अधिक उचित होगा, कि उनका बाकायदा 'विमोचन' किया गया था । क्या यह एक मुकम्मल टिप्पणी नहीं है, यथार्थ पर ?"
उनके शब्दों में वेदना थी, या आत्म-प्रशंसा, या कुछ और, इसका अनुमान तो साहित्य से जुड़े लोग ही बतला सकेंगे ।
इस 'परिचय' में कुछ ऐसी बात थी जिसने अविज्नान का ध्यान अपनी ओर खींचा । उसने कनखियों से शुक्लाजी को देखा और जल्दी ही वापस खिड़की से बाहर नज़रें घुमा लीं ।
"आप उज्जैन आते रहते हैं ? "
-आशुतोष ने 'सर' से प्रश्न किया ।
"नहीं, कोई ख़ास कारण तो नहीं होता, बस कौस्तुभ से मिलने का मन होता है तो कोई बहाना ढूंढ लेता हूँ ।"
-वे सरलता से बोले ।
वे चारों असमंजस में थे कि चर्चा का प्रारंभ कहाँ से करें, और रवि या मैं बर्फ तोड़ने में बिल्कुल उत्सुक नहीं थे । अविज्नान इस बीच वहाँ से जा चुका था ।
शुक्लाजी को मंच संभालने की आदत थी । उन्होंने ही शुरुआत करते हुए कहा, :
हम सभी एक ही कॉलोनी में रहते आए हैं, बचपन ही से वहीं गुल्ली-डंडा और क्रिकेट खेलते हुए बड़े हुए, हाँ, अलग-अलग स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ते हुए हम सब थोड़े-थोड़े अलग तरीकों से विकसित हुए, यह भी सच है । मेरी दिलचस्पी पढने-लिखने में ज़्यादा थी, लेकिन साहित्यिक चीज़ें मुझे ज़्यादा अच्छी लगतीं थीं । आशुतोष और राजीव पढने में मुझसे तेज़ थे, और कैरियर-कोन्शस भी थे । इसलिए आसानी से उन्नति की सीढियाँ चढ़ने लगे । "
"उन्नति की सीढियाँ" सुनते ही मुझे बरबस हँसी छूट गयी । मेरी हँसी के संक्रमण के असर से वे लोग भी मुस्कुराने लगे थे , लेकिन कोई यह न समझ पाया कि मैं क्यों हँसा था ।
"आप हँसे क्यों ?"
-शुक्लाजी ने मुझे सन्देहपूर्वक देखते हुए पूछ ही लिया ।
"मुझे कुछ याद आ गया था ।"
-मैंने जवाब दिया ।
"फ़िर ?"
- 'सर' ने गेंद वापस शुक्लाजी के पाले में डाल दी थी ।
"हाँ, तो मैं यह कह रहा था, कि हम लोग याने तथाकथित 'बुद्धिजीवी' बस कुल मिलाकर अपनी रोजी-रोटी और तथाकथित 'भौतिक'-विकास की चिंता में उलझे रहे , -हम चारों और हमारे दूसरे दोस्त भी लगभग ऐसे ही हैं सभी । कुछ लोगों ने भौतिक सुरक्षा खोज ली, कुछ 'प्रेम' के चक्कर में पड़े, कुछ नशे की ओर मुड़ गए, तो कुछ परिस्थितियों के शिकार होकर लगभग नष्ट ही हो गए । सबसे बढ़कर , और सबसे अलग कुछ वे भी थे, जिन्होंने 'सफल' होने को अपने 'प्रतिभा-संपन्न' होने के प्रमाण, 'मैडल' की तरह स्वीकार किया, और गाहे-बगाहे उसकी नुमाइश का मौका मिलते ही, उसके मद में पुलकित रहे, -एक-दो ऐसे भी हैं ।
हममें से हर कोई फ़िर भी वर्त्तमान की चिंताओं और लालसाओं, उनके अधूरे रह जाने के भयों की आशंका से ग्रस्त है कि उनसे त्वरित मुक्ति पाने या उन्हें पूरा करने की कोशिश में ही उसका सारा विवेक, सारी 'बुद्धि' खर्च हो जाती है । वे इक्के-दुक्के तथाकथित 'सफल' भी इसका अपवाद नहीं हैं, उन्हें भी अपने शिखर पर पहुँचे होने के भ्रम को बनाए रखने के लिए लगातार 'जूझते रहना' होता है, और वे सिर्फ़ इसी कोशिश में अंतत: समाप्त हो जाते हैं । मुझे नहीं लगता कि उनमें वह तेजस्विता शेष रह पाती है, जिसकी उम्मीद उनसे की जाती है । "
'सर' बस शांतिपूर्वक सुन रहे थे । इतने ध्यानपूर्वक, कि उनका मौन सहसा दिखलाई भी नहीं देता था।
"तो यही तो जीवन है !" -मैंने चर्चा में हस्तक्षेप किया । मानता हूँ , मैं चाहता था कि चर्चा किसी फ़लप्रदता तक पहुंचे । साथ ही 'सर' का भी सक्रिय इन्वोल्वेमेंट उसमें हो ।
"हाँ, लगता तो यही है कि यही तो जीवन है, और क्या उम्मीदें जीवन से हो सकती हैं, इसकी तो हमें कभी कल्पना तक नहीं उठती । लेकिन कभी-कभी इस सब पर शक भी ज़रूर उठता है, यह भी सच है । हाँ, अगर हमारा जीवन बढिया चलता रहे, दूसरों की तुलना में हम ज़्यादा सफल रहें, सुख-सुविधाएं, और थोड़ी-बहुत परेशानियाँ भी रहें तो हमें शिकायत नहीं होती जीवन से । और हम इस कभी-कभी उठनेवाले शक को फूँक मारकर उड़ा देते हैं । "
-शुक्लाजी डटे हुए थे ।
"फ़िर ?"
-'सर' ने पूछा ।
"कुछ नहीं, इसी में ज़िंदगी गुज़र जाती है । "
- शुक्लाजी उनके मुख को स्थिर दृष्टि से देखते हुए बोले ।
"किसकी ?"
-'सर' ने पूछा ।
"मनुष्य की, हमारी, और किसकी ?"
आशुतोष ने अचानक उत्तर दिया ।
"फ़िर तुम्हें क्या लगता है ?" इसके लिए क्या करना चाहिए ?
-'सर' ने अपने प्रश्न को बदलते हुए पूछा ।
बर्फ टूट चुकी थी । संवाद शुरू हो गया था। लेकिन हिमनद बहुत धीरे-धीरे खिसक रहा था ।
"You shall not regret,"
-मैंने अपने-आपसे कहा ।
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October 17, 2009
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