October 21, 2009

उन दिनों -31.


उन दिनों -31.

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"क्या यह निष्कर्ष था ?"
-मैं सोच रहा था ।
"नहीं, तब मन शाँत था, विचारों की गति और फ्रीक्वेंसी (बारम्बारता) लगभग शून्य थी ।"
मैं और मेरा 'स्व' बातें कर रहे थे ।
क्या मेरा 'स्व' मेरे 'मैं' से अलग कुछ है ?
"नहीं, मैं कुछ नहीं सोचूँगा,"
मैंने अपने-आप से कहा ।
लेकिन विचारों के घोड़े सरपट भागते ही जा रहे थे ।
सचमुच, जब विचार-शून्य होता है, तो कितना अच्छा लगता है ! लेकिन ऐसा तो कोई विचारों का दौर शुरू होने से पहले, जब मन विचार-शून्य होता है, तब कहाँ कह पाता है ?
सोचता हूँ कि 'सर' 'एन्लाईटैंड' हैं, इसका क्या मतलब है ?
मैं सचमुच महसूसने लगता हूँ, कि उन्हीं से पूछूँगा । लेकिन वे तो कभी दावा तक नहीं करते हैं । और शायद ही उनके मुँह से कभी इस शब्द का उच्चार सुना हो मैंने ।
फ़िर कौन कहता है ?
हाँ, रवि कहता है, और अविज्नान भी ।
और अविज्नान?
क्या वह भी है 'एन्लाईटैंड' ?
नहीं, मुझे इन बातों में नहीं पड़ना है ।
मैं उठकर किसी काम में मन लगाने की कोशिश करता हूँ ।
दो-तीन दिन इसी ऊहा-पोह में गुजर जाते हैं । तीसरे दिन नलिनी का आगमन होता है, आज वह दोपहर तीन बजे ही आ गयी थी । तब हम सो रहे थे । 'सर' शायद उनके कमरे में ऊपर ही थे अभी । रवि कहीं गया था, अविज्नान भी आराम कर रहा था ।
'अंकल, नमस्कार ! आज मुझे कुछ काम था तो नीलम के साथ बाज़ार गयी थी, वहाँ से तय हुआ कि आपके यहाँ आयेंगे । "
-वह बेतकल्लुफी से बोली ।
नीलम और नलिनी, दोनों का नाम अचानक याद हो आया । नीलम नलिनी से बहुत अलग तरह की लडकी थी । घरेलू किस्म की । नलिनी गंभीर थी, तो नीलम चंचल थी । हम बैठक में बातें कर ही रहे थे कि सीढियों से उतर रहे 'सर' ने हमें देखा ।
वे दोनों उठ खड़ी हुईं । 'सर' के और फ़िर मेरे भी चरण छुए, और दोनों खुसुर-फुसुर करते हुए किचन में चली गईं । 'बाई' का आगमन हुआ और रवि भी आ गया था ।
"हाय,"
नीलम और रवि के बीच औपचारिकता का संवाद हुआ । फ़िर सब बैठ गए।
'बाई' कुछ सामान तश्तरियों में रख गयी थी । चाय बना रही थी । थोड़ी ही देर में अविज्नान भी अपने कमरे से बाहर आया ।
"ऑब्जेक्टिव एंड सब्जेक्टिव रियलिटी,"
- नलिनी ने शुरुआत की ।
फ़िर वह चुप हो गयी।
सचमुच इस सभा की सूत्रधार वही थी, ऐसा लग रहा था । चाय पान का दौर हुआ । चाय पान का दौर संपन्न भी हुआ ।
"ऑब्जेक्टिव एंड सब्जेक्टिव रियलिटी," -
इस बार नीलम ने दोहराया । शायद उसे डर था कि कहीं चर्चा इधर-उधर न भटक जाए ।
"सर, आप कह रहे थे कि 'ऑब्जेक्टिव' तथा 'सब्जेक्टिव' रियलिटीज़ दो परस्पर स्वतंत्र सत्ताएँ नहीं हैं ।
हम ईश्वर के बारे में खोज करते हुए यहाँ तक पहुंचे थे । क्या 'ऑब्जेक्टिव रियलिटी' और 'सब्जेक्टिव रियलिटी' को थोड़ा विस्तार से समझायेंगे ?
नलिनी ने नीलम के सूत्र को आगे बढाया ।
'सर' हमेशा थोड़ा रुककर फ़िर बोलते थे ।
इस समय भी वे शांतिपूर्वक इधर-उधर देख रहे थे । जैसे कमरे में आती- जाती रहनेवाली गौरय्या इधर-उधर देखती है, फ़िर किसी स्थान पर जाकर ठहर जाती है, यहाँ दो गौरय्याएँ थीं । नहीं, मैं नीलम या नलिनी की बात नहीं कर रहा, मैं कह रहा हूँ 'सर' के उपनेत्र (चश्मे) के पीछे से झाँकती दो काली भूरी, जलीय आँखों की दृष्टि की । दोनों का साथ-साथ कमरे में इधर-उधर उड़ान भरना, और फ़िर कहीं ठहर जाना ।
फ़िर वे पल भर के लिए मेरे चेहरे पर रुकीं, अगले ही पल अविज्नान, रवि और बाई के चेहरों पर से फिसलती-फिसलती नलिनी के चेहरे पर ठहर गईं ।
"हमारे स्कूलों में जिसे 'सब्जेक्ट' कहते हैं, उसे हिन्दी में 'विषय' कहा जाता है । वह वास्तव में 'ऑब्जेक्टिव-रियलिटी' है । फ़िर, 'जो' विषय का अध्ययन करता है, उसे 'सब्जेक्टिव-रियलिटी' कहेंगे । 'ऑब्जेक्टिव-रियलिटी' के बारे में विज्ञान में अध्ययन होता है । 'सब्जेक्टिव-रियलिटी' के बारे में मनोविज्ञान में कुछ हद तक प्रयास किया जाता है । 'मन', 'चेतना', 'स्व', 'अंत:करण', ... ... तथा अवचेतन, चेतन, अचेतन, आदि का 'अध्ययन' किया जाता है । 'मानसिक-व्यवहार', आदि का । क्या इनमें से कोई भी वस्तु इन सबका 'अध्ययनकर्त्ता' होती हो, ऐसा हो सकता है ? या क्या कोई इन सबसे पृथक ऐसी वस्तु भी कहीं होती है, जिसे हम 'अध्ययनकर्त्ता ' कह सकें ? इसे हम दूसरे उदाहरण से स्पष्ट करें । यह जिसे हम 'जानना' कहते हैं, वह 'जानना' क्या है, -स्वरूपत: ?
क्या 'जानना' 'जानकारी' के बिना हो सकता है ?"
बहुत देर तक सभी 'सर' की बात पर गौर करते रहे ।
"जाननेवाला तो कोई होता ही है, जानकारी के अभाव में भी !"
नीलम ने साहसपूर्वक कहा ।
"कोई याने ?"
'सर' ने पूछा ।
"कोई व्यक्ति, या जीव, ..."
"हम 'सब्जेक्टिव रियलिटी' के बारे में खोज कर रहे हैं, यदि तुम कहो कि कोई व्यक्ति या जीव जाननेवाला होता है, तो अभी हम अनुमान तथा जानकारी के ही क्षेत्र में विचर रहे हैं । हमारे अपने, स्वयं के बारे में क्या कहोगी ?"
"जानकारी के अभाव में क्या हम समाप्त हो जाते हैं ?"
"नहीं होते । लेकिन जानकारी के अभाव में क्या 'जानना' संभव होता है?"
वे पुन: उसी प्रश्न पर लौट आए थे । 'सर' इस बारे में हमारा ध्यान आकर्षित करना चाहते थे कि ऐसे किसी अपने 'स्वतंत्र' एक अस्तित्त्व होने का विचार भी अन्य विचारों जैसा ही एक 'विचार'-मात्र है । और निश्चित ही यह एक ऐसा दुरूह पड़ाव था जिस तक पहुँचना ही बहुत मुश्किल था । लेकिन उस बारे में फ़िर कभी, अभी तो प्रश्न यह था कि 'जानना' अपने-आपमें एक 'स्वतंत्र-तत्त्व' है, या 'कोई' और ऐसी स्वतंत्र-सत्ता होती है, जो 'जानने की क्षमता से युक्त या रहित हुआ करती हो !
"नीलम, मैं सोचता हूँ कि मैं प्रश्न दोहरा रहा हूँ । "
-'सर' बोले ।
यह दोहराव ज़रूरी था, क्योंकि नीलम शायद ऐसे ही किसी 'स्वतंत्र' 'जाननेवाले' के अस्तित्त्व का आग्रह कर रही थी, जैसा कि हम सभी का अतीव प्रबल आग्रह होता है ।
"क्या 'जानने' हेतु कोई चेतन-सत्ता आवश्यक नहीं होती, जो कि 'जानती' है ? "
-नीलम ने प्रश्न किया । ज़ाहिर है वह नलिनी की पक्की दोस्त थी, और उन दोनों के बीच अवश्य ही इन बातों पर गंभीर चिंतन हुआ ही होगा, इसलिए वह इस चर्चा में सक्रिय भागीदारी कर पा रही थी ।
"मुझे लगता है कि पहले हमें 'जानना' क्या है, इस बारे में पता लगा लेना ज़रूरी है । "
-नलिनी ने कहा ।
अभी ईश्वर नेपथ्य में चला गया था ।
(consigned to back-burner, or put-off in a cold-storage, either enjoying the sizzling heat, or shivering in the ice-age !?)

"हाँ,"
-'सर' बोले ।
सचमुच यह विषय कठिन या दुरूह न भी हो, नया तो अवश्य ही था ।
"जानने की गुणवत्ता, न कि इन्द्रिय-ज्ञान, वैचारिक ज्ञान, अभ्यासबद्ध ज्ञान, बौद्धिक ज्ञान आदि-आदि । लेकिन इसके पहले हमें इन्द्रिय-ज्ञान, वैचारिक-ज्ञान, अभ्यासबद्ध-ज्ञान, बौद्धिक-ज्ञान आदि क्या है, क्या यह समझ लेना भी बहुत ज़रूरी नहीं है ?"
"हाँ, वैसे तो हम इस सब तरह के ज्ञान को समझते हैं, लेकिन क्या इनसे अलग तरह का भी कोई ज्ञान हो भी सकता है ?"
-नीलम ने ही पूछा ।
नलिनी ऐसा प्रश्न नहीं पूछ सकती थी (शायद), क्योंकि उसका 'चित्त' (मन नहीं,) कभी-कभी 'विस्मय' की जिस भूमि पर पहुँच जाता था, वह उसी ज्ञान की पूर्वभूमिका होता होगा, जिसे 'सर' निपट 'जानना' कह रहे हैं(शायद), ऐसा मेरा अनुमान है, क्योंकि अविज्नान और 'सर' से मुलाक़ात होने के बाद मुझे ऐसा समझ में आता है, कि यह 'मैं' जो उस ज्ञान में ही, उस ज्ञान से ही उपजता है, जिसे 'सर' 'जानना'-मात्र कहते हैं, दूसरे सारे विचारों जैसा ही शायद एक विचार-मात्र ही है । लेकिन अपने विचारों की भूल-भुलैया में मैं अभी उस सत्य को ठीक से ग्रहण नहीं कर पा रहा । मैं सोचता हूँ, कि शायद किसी सुबह, मैं समझ पाऊँगा,और इसीलिये अभी मैं 'एन्लाईटेन्मेन्ट' के बारे में ज़्यादा नहीं सोचता ।
"इन्द्रिय-ज्ञान या इन्द्रिय-संवेदन के बारे में हम समझते ही हैं, यह एक प्रकार का नि:शब्द ज्ञान होता है, जैसे 'सुनना', 'देखना', 'बोलना', शुद्ध शारीरिक अनुभूतियों का 'पता' चलना, जैसे भूख-प्यास, शीत-उष्णता, दर्द आदि शारीरिक क्रियाओं, जैसे मल-मूत्र विसर्जन की आवश्यकता का पता चलना आदि ।
फ़िर स्मृतिगत ज्ञान होता है, जो विभिन्न प्रकार की शारीरिक संवेदनाओं की स्मृतियों के रूप में होता है । यह भी नि:शब्द होता है । फ़िर 'अनुभवगत-ज्ञान' होता है जो भय, आशा, आशंका, आदि के रूप में 'अभ्यासगत-ज्ञान' बन जाता है । हम शायद कह सकते हैं कि ऐसा ज्ञान मनुष्य के अलावा दूसरे जीवों में भी होता है । फ़िर शब्दगत ज्ञान होता है, जब विभिन्न शब्दों को अनुभवों के विकल्प के रूप में प्रयुक्त करते करते हम इस धारणा के शिकार हो बैठते हैं कि 'जानकारी' ही ज्ञान है । फ़िर इस जानकारी के ही विभिन्न संयोजनों से 'वैचारिक-ज्ञान' का जन्म होता है । दूसरी ओर बौद्धिक-ज्ञान नामक एक और चीज़ भी होती है, जो 'अभ्यासगत', 'नि:शब्द' और 'वैचारिक' इन तीन रूपों में व्यक्त हो सकती है । एक जानवर भी बुद्धि का प्रयोग करता ही है । लेकिन पुन: ज्ञान के ये तीनों प्रकार भी मूलत:'अनुभवगत-ज्ञान' पर ही अवलंबित होते हैं, इसलिए ऐसे 'बौद्धिक' ज्ञान की शुद्धता और सुनिश्चितता संदेह से रहित नही हो सकती । "
'सर' बहुत धीरे-धीरे बोल रहे थे, हमें सुनाने के लिए पर्याप्त समय देते हुए ।
(इस बीच "ईश्वर क्या कर / महसूस कर रहा होगा?",- मैं सोच रहा था । )

>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>> उन दिनों -32.
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