October 19, 2009
नियति (कविता) .
नियति
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हाँ,
मानता हूँ,
एक अनगढ़ पत्थर ही तो हूँ मैं ,
चाहो तो उछालो मुझको,
और पत्थर ही समझकर देवता की तरह पूजो मुझको,
बहस करो दोस्तों दुश्मनों से,
कि मैं पत्थर हूँ या कि हूँ देवता कोई !
और यदि सोचते हो कि मैं रास्ते की बाधा हूँ,
तो मुझसे बचकर के तुम निकल जाओ ।
मैं तो पत्थर ही हूँ,
एक अनगढ़ सा पत्थर !
सोचता हूँ कभी कोई पानी की लहर आयेगी,
धीरे-धीरे ही सही, गहरे पानी में ले जायेगी,
किसी नदी के आँचल में सरक जाऊंगा,
धीरे-धीरे ही सही, घिस-घिसकर
किसी न किसी दिन मैं,
गोल, चमकदार हो जाऊंगा,
खेलता पड़ा रहूँगा पानी में,
जब तक कि किसी दिन,
कोई आकर मुझे उबार न ले,
और फ़िर मुझको शिव शंकर समझकर,
मेरे बहाने सी वह भी,
ख़ुद ही ख़ुद से भी न उबर जाए,
पर अगर यह नहीं नियति मेरी,
तो शायद तुम ही कभी उठा लोगे मुझे,
प्यार से या कि फ़िर जबरदस्ती,
लेके छैनी-हथौड़ी हाथों में ,
मुझपे तुम ज़ोर आज़माओगे ।
मैं भी डरता हूँ सोचकर कि कहीं,
कि उछलकर उड़ती हुई कोई किरच,
तुम्हें लहू-लुहान ना कर दे,
और तुम्हारे साथ साथ मुझको भी,
कहीं बदनाम नहीं कर दे,
इसलिए बेहतर है -,
छोड़ दो मुझको तुम,
मेरी अपनी ही खुशनसीबी पे,
मेरे अपने ही हाल पर,
जो भी जैसा भी हूँ, -मैं ।
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कि उछलकर उड़ती हुई कोई किरच,
ReplyDeleteतुम्हें लहू-लुहान ना कर दे,
और तुम्हारे साथ साथ मुझको भी,
कहीं बदनाम नहीं कर दे,
इसलिए बेहतर है -,
छोड़ दो मुझको तुम,
dusro ke liye man me aise pavitr vichaar ek acchhe bhavuk man wala insaan hi soch sakta hai..
acchhi rachna.
हाँ,
ReplyDeleteमानता हूँ,
एक अनगढ़ पत्थर ही तो हूँ मैं ,
चाहो तो उछालो मुझको,
और पत्थर ही समझकर देवता की तरह पूजो मुझको,
बहस करो दोस्तों दुश्मनों से,
कि मैं पत्थर हूँ या कि हूँ देवता कोई !
और यदि सोचते हो कि मैं रास्ते की बाधा हूँ,
तो मुझसे बचकर के तुम निकल जाओ ।
सुन्दर लिखा है विनय जी आपने
एक निर्जीव की सम्वेदना को व्यक्त करती यह कविता अपने बिम्ब मे सुन्दर बन पड़ी है ।
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