October 30, 2009

उन दिनों -32.


उन दिनों -32.
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पड़ौस के घर में एक गीत बज रहा था,
"बात निकलेगी तो फ़िर दूर तलक जायेगी ... ... "
यहाँ भी कुछ ऐसा ही लग रहा था । हमारे सामने कई मुद्दे थे :
'ईश्वर, जानना-इन्द्रिय-ज्ञान, वैचारिक ज्ञान, अभ्यासगत-ज्ञान, अनुभवगत ज्ञान, बौद्धिक ज्ञान, ... ...', अभी एन्लाइटेन्मेंट एक दूर की कल्पना था । एक 'विचार'-मात्र, और अभी तक तो मुझे ख़याल तक नहीं था कि 'ज्ञान' का स्वरूप मूलत: क्या है, इसे ठीक से समझे बिना ही ईश्वर या आत्मा, सत्य या 'ब्रह्म' जैसी चीज़ों के बारे में लंबे-चौड़ी बातें करते रहना अपने-आपको धोखा देना नहीं तो और क्या है !
लेकिन नलिनी और 'सर' के बीच की बातचीत ने मेरी इस लापरवाही की ओर मेरा ध्यान दिलाया कि अभी मुझे यही समझ में नहीं आया था, कि 'जानना' अपने-आपमें क्या होता है ?
सचमुच यह मेरे लिए एक ब्रेक-थ्रू ही था, और मैं अब तक जिसे 'ज्ञान' समझता (मानता) चला आया था, वह वास्तव में मेरा घोर अज्ञान- नहीं तो और क्या था, इस ओर मेरा ध्यान जीवन में पहली बार गया । जानने और समझने के बीच के गहरे भेद पर मेरी नज़र गयी ।
"मैं कुछ कहना चाहूंगी,"
-नीलम ने कुछ कहना चाहा ।
"मुझे यह समझ में आया कि जैसे प्रकाश में सात रंग होते हैं, लेकिन कोई भी रंग प्रकाश की उपस्थिति में ही व्यक्त हो उठता है, और प्रकाश का अपना कोई रंग होता हो, ऐसा कहना भूल है, वैसे ही, 'ज्ञान' या शुद्ध 'जानना', जो इन्द्रिय-ज्ञान,वैचारिक-ज्ञान, शब्दगत-ज्ञान, अभ्यासगत-ज्ञान, अनुभवगत-ज्ञान, और स्मृति-परक तथा बौद्धिक-ज्ञान आदि के रूप में व्यक्त होता है, वस्तुत: वैसा 'ज्ञान' या 'जानना' न होकर उससे बिल्कुल अलग कुछ है । "
'सर' प्रशंसात्मक दृष्टि से कौतूहलपूर्वक नीलम को देखने लगे ।
"तो क्या पहले यह समझना ज़रूरी नहीं है कि शुद्ध 'जानना' अपने-आपमें क्या या किस तरह की चीज़ है?
-शायद यही कहना चाहेंगे आप, है न ?"
-उसने 'सर' से पूछा ।
"हाँ ।"
अविज्नान भी अब नीलम को देख रहा था । शायद तय न कर पा रहा हो कि नलिनी और नीलम में से कौन अधिक प्रतिभाशाली है !
"क्या हम इस चर्चा में 'अतीन्द्रिय-ज्ञान' के बारे में भी कुछ विचार कर सकते हैं ?"
-नीलम ने पूछा ।
"क्या तथाकथित 'अतीन्द्रिय-ज्ञान' भी हमारी स्वप्न, जाग्रति की दशाओं में हमें होनेवाले 'ज्ञान' से किसी तरह से अलग किस्म का ज्ञान होता है ?"
-मैंने पूछा ।
'सर' ने थोड़ा विस्मयपूर्वक मेरी ओर देखा । शायद उन्हें इस चर्चा में शामिल होने-मात्र के लिए पूछ गया यह प्रश्न अनुचित लगा होगा , लेकिन वे बोले कुछ नहीं । अविज्नान भी मुझे देखने लगा था, किंतु उसके चेहरे पर निर्लिप्तता का भाव था ।
''नीलम ने एक उदाहरण दिया, -रंगों और प्रकाश का, बहुर सटीक उदाहरण था, लेकिन यह भी देखना होगा कि हम 'जानने' को 'जानना-समझना' चाहते हैं, या हमारी रूचि 'ज्ञान' के स्वरूप के बारे में कोई बौद्धिक निष्कर्ष या 'सिद्धांत' बनाने तक ही सीमित है ! क्योंकि वैसा सिद्धांत भी पुन: 'जानकारी'-मात्र होगा, जो हमें और अधिक विमूढ़ करेगा, न कि प्रबुद्ध"
-'सर' बोले ।
"सोचनेवाली बात या देखनेवाली बात यह है कि क्या नि:शब्द 'जानना' जैसी कोई चीज़ होती है ?"
'सर' ने इशारा किया ।
"हाँ ।"
-करीब पाँच मिनट तक चुप रहने के बाद नीलम बोली । बाकी सब अब भी चुप ही थे ।
शाम बीत चुकी थी ,'सर' दूर खिड़की से बाहर डी आर पी लाइन के अंग्रेजों के बाद के बने उस बंगले की ओर देख रहे थे, जहाँ छत से लटकते तार पर शायद सौ वाट का एक बल्ब मटमैली रौशनी फेंक रहा था । नीचे की खिड़की में अभी अँधेरा था । यहाँ से यह अनुमान लगाना मुश्किल था कि वह बँगला दो-मंजिला था या एक-मंजिला रहा होगा

यह सचमुच एक रहस्य है, कि हम 'ज्ञान' के स्वरूप पर कभी भूलकर भी नहीं सोचते। यदि कोई उस ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता भी है, तो हमें या तो वह बात समझ में ही नहीं आती, व्यर्थ की सनक या बौद्धिक शगल लगती है, या फ़िर महत्वहीन लगती है । कभी किसी 'प्रतिष्ठित' व्यक्ति के मुख से सुनने पर ही हमें ख़याल आ सकता है कि इस तरह से तो कभी हम देखते ही कहाँ हैं !
नलिनी ने यही पूछा था :
"मुझे लगता है कि 'ज्ञान' के स्वरूप पर विमर्श करते हुए नीलम की बात को हम 'सन्दर्भ-बिन्दु' के रूप में ले सकते हैं । "
-उसने कहा ।
"हाँ, अवश्य । "
-'सर' बोले ।
"लेकिन इन सारे भिन्न-भिन्न प्रकारों के ज्ञान या 'ज्ञानों' के बीच 'आत्म-ज्ञान' को कहाँ स्थान मिलेगा ?"
-नलिनी ने प्रश्न उठाया ।
"जैसा कि नीलम ने प्रकाश तथा रंगों का उदाहरण दिया, और हम समझ रहे हैं कि प्रकाश तथा रंग दो विजातीय चीज़ें हैं, और रंगों को प्रकट होने के लिए प्रकाश की उपस्थिति अनिवार्य होती है, जबकि प्रकाश रंगों से भिन्न 'स्वतंत्र' तत्त्व होता है -वैसे ही, क्या नि:शब्द-ज्ञान ही वह आधार-भूमि नहीं होता जिसमें अन्य सारे अनेक प्रकार के 'ज्ञान' 'प्रकट' और विलुप्त होते रहते हैं ? "
-'सर' ने प्रश्न किया ।
थोड़ी देर तक हम पुन: शान्ति से अगले वक्तव्य की प्रतीक्षा करते रहे ।
"हमारा समस्त ज्ञान उस प्रकार का होता है, जिसे हम एकत्र कर सकते हैं, खो या भूल सकते है । वह हमारा 'संग्रह' होता है , क्या उसे हम यथार्थ 'ज्ञान' कह सकते हैं ?"
-'सर' ने पूछा ।
पुन: कुछ समय तक सन्नाटा छाया रहा ।
"यदि उसे 'ज्ञान' कहें तो वह समस्त ज्ञान क्या विषयपरक (objective) ही नहीं होता ?"
"हाँ, इस दृष्टि से देखें तो यह भी प्रश्न उठता है कि यथार्थ 'ज्ञान' तो होता ही नहीं, या फ़िर 'स्व-परक', अर्थात् 'subjective' हो सकता है । "
-नलिनी उवाच ।
"फ़िर हम उस 'ज्ञान' के स्वरूप को, यथार्थ को, तत्त्व को, कैसे जान सकेंगे ?"
-'सर' ने पूछा ।
"उसे किसी भी 'विधि', तरीके, 'अभ्यास' या 'प्रयास' से कैसे जाना जा सकेगा ? क्या 'विधि', 'तरीका', 'अभ्यास' या 'प्रयास' ये सभी, 'स्व' तथा 'विषय', ('subject' and 'object') के परस्पर भिन्न होने की ही स्थिति में नहीं हुआ करते ? लेकिन उस यथार्थ ज्ञान का स्वरूप या तत्त्व ही ऐसा है कि उसे न तो 'संगृहीत' किया जा सकता है, न पाया जा सकता है, और न (प्रचलित अर्थ में) किसी को दिया ही जा सकता है । "
-
नलिनी ने आगे कहा ।
"-क्या इसका मतलब यह हुआ कि 'स्व' के स्वरूप को जानना,तथा 'ज्ञान' के स्वरूप को जानना वास्तव में एकमेव हैं ?"
-नीलम ने पूछा ।
"हाँ, मुझे तो ऐसा कहना बिल्कुल ठीक लगता है ।"
-'सर' ने उसकी पुष्टि करते हुए कहा ।
"लेकिन क्या यह सारी चर्चा उस तत्त्व को प्रत्यक्ष करने में सहायक नहीं है ?"
"हाँ ।"
-'सर' बोले ।
हम बहुत दूर निकल आए थे ।
पडौस में डेढ़ घंटे की शान्ति के बाद पुन: वही गीत बज रहा था :
"बात निकलेगी तो, फ़िर दू - - - - - - - - - - - - - - - - र तलक जायेगी । "

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