उन दिनों -30.
अथातो ईश जिज्ञासा
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शाम की चाय बन रही थी । अब लगने लगा था कि दिन छोटे होते जा रहे हैं ।
जब राजा रवि वर्मा चाय लेकर हाज़िर हुए तभी द्वार पर आहट सी हुई । दरवाजा खुला ही था । शुक्लाजी और उनके साथ कोई लड़की भी थी । उसे देखकर मुझे अपर्णा की याद आई । वे आकर बैठ गए। लड़की ने और शुक्लाजी ने भी आकर 'सर' को और मुझे भी चरण-स्पर्श किया ।
"आप बैठिये !"
-उसने रवि से कहा और 'मग्ज़' में चाय भरने लगी ।
"नलिनी है यह, वैसे तो मेरी दूर के रिश्ते की बहन है, लेकिन बचपन से ही एक ही मोहल्ले में रहने के कारण , यह बहन से कुछ अधिक है मेरे लिए ।"
रवि से उसकी पहचान थी, कभी-कभी वह रवि के अखबार में कुछ लिखती भी थी ।
"आपका प्रश्न !"
-शुक्लाजी ने उसे याद दिलाया ।
"मेरा प्रश्न ?"
-उसने तुरन्त ही प्रश्नवाचक मुद्रा में शुक्लाजी को देखते हुए पूछा ।
"सर, सुबह का प्रश्न दर-असल मेरा नहीं, नलिनी का प्रश्न था, जो उसे पूछना चाहिए था, लेकिन, सुबह उसे कॉलेज जाना था । इसलिए वह नहीं आ सकी थी ।"
""जी मैडम, शुरू कीजिये ।"
-शुक्लाजी ने आजिजी से कहा ।
"मैं बचपन से भगवान् के बारे में उत्सुक रही हूँ । मैं नहीं जानती कि 'भगवान' क्या है, कैसा है, स्त्री है, पुरूष है, साकार है, या निराकार है, 'है' या "हैं", लेकिन मन्दिर जाना मुझे बहुत अच्छा लगता है, शिव-पार्वती हों, सीता-राम या राधा-कृष्ण हों, दुर्गा माँ हो, या गणेशजी हों, साधारणत: किसी भी मन्दिर में जाना मुझे बहुत अच्छा लगता है ।
संस्कृत के स्तोत्र भी बहुत अच्छे लगते हैं, और हिन्दी के भजन भी, लेकिन मैं नहीं सोचती कि इन सब बातों में मेरे लिए किसी किस्म की भावुकता का कोई स्थान कहीं है । मुझे नहीं पता यह सब खामखयाली है, या सचमुच देवी-देवता कहीं होते हैं । लेकिन मुझे उस सबसे कोई मतलब नहीं है । मैं तो बस 'भगवान्' के बारे में जानना चाहती थी । "
हम सब शांतिपूर्वक सुन रहे थे ।
"क्यों ?'
"लोग सोचते हैं कि भगवान् कहीं है, कुछ लोग कहते हैं कि भगवान् कहीं नहीं है ,"
"लोगों की राय से तुम्हें कैसे पता चलेगा ?"
"मुझे लगता है, कि पहले हमें यह समझना चाहिए कि भगवान् से हमारा क्या तात्पर्य है । इसके बाद ही यह खोजना आसान होगा कि हम भगवान् का जो मतलब समझते हैं, वैसा कुछ है, या नहीं । "
"हाँ । "
कुछ देर तक फ़िर शान्ति रही चाय का दौर समाप्त होते ही वह उठी और सारे 'मग्ज़', केतली तथा ट्रे उठाकर 'किचन' में रख आई ।
अब चर्चा का दौर शुरू हुआ ।
"तो, तुम क्या सोचती हो, भगवान् कैसा है, या कैसे हैं ?"
-'सर' ने ही आरंभ किया ।
"भगवान के बारे में जानकारी तो हमें किताबों से, और लोगों से ही मिलती है, या तो हम उसे जस का तस मान लेते हैं, और वह जानकारी हमारी मानसिक आदत का एक हिस्सा बन जाती है । शायद उसमें भी कोई हर्ज नहीं है, लेकिन उसके बावजूद हमारे मन में निश्चिंतता नहीं आ पाती । फ़िर हम उस जानकारी से ही येन-केन-प्रकारेण एक धारणा बना लेते हैं भगवान् के बारे में । "
"हाँ,"
"फ़िर ?"
"फ़िर क्या, कभी-कभी हमें कुछ ऐसी 'रहस्यमय अनुभूतियाँ' भी हो जाती हैं, जिनसे हमें गहरा भरोसा हो जाता है कि भगवान् शिव, पार्वती, गणेश, षड़ानन, राम, कृष्ण, आदि के रूप में है, और हम उनकी भक्ति करने लगते हैं ।
लेकिन कभी-कभी हमारा विश्वास किसी घटना के कारण कम भी तो हो जाता है ? "
"फ़िर ?"
"इसका मतलब यही हुआ कि हम भगवान् को ठीक से नहीं जान पा रहे हैं । "
"हाँ । "
"इसलिए मैं सोचती हूँ कि भगवान् को ठीक से कैसे जाना जा सकता है ?"
"मैं भी तुम्हारी तरह सोचा करता था । लेकिन कुछ अलग ढंग से । भगवान् के बारे में हमें दो तरह से बताया जाता है । कुछ लोग कहते हैं, -'भगवान् है, वह /वे इस-इस तरह के हैं,' आदि । दूसरी ओर कुछ लोग घोर नास्तिक होते हैं, वे कहते हैं, '-भगवान् जैसा कुछ कहीं नहीं होता । ' पर क्या यह भी सच नहीं है कि 'भगवान्' शब्द का अर्थ ही सबके लिए अलग-अलग होता है ?"
"हाँ, यही तो, ..." उसने अचानक खुश होकर कहा ।
हम सब हँसने लगे .
वह और शुक्लाजी अचकचाकर हमें देखने लगे ।
"अविज्नान से परमिशन ली थी ?"
रवि ने मुस्कुराते हुए, तिरछी नज़रों से अविज्नान को देखते हुए नलिनी से पूछा ।
दर-असल 'यही तो ...' अविज्नान का पेटेंटेड वाक्य था, इसीलिये हम सब को हँसी आ गयी थी ।
"तो,
'सर' ने बात का रुख मोड़ते हुए पूछा,
... हम भगवान् के बारे में नहीं जानते ऐसा लगने के बाद ही हम भगवान् को जानने के लिए उत्सुक होते हैं न ?"
"हाँ, "
"लेकिन क्या कोई और कारण भी हो सकता है, हमारी इस 'भगवान् को जानने' की उत्सुकता के पीछे ? "
"हाँ, शायद हम 'भगवान्' के 'विशेषज्ञ' के रूप में समाज में कोई विशिष्ट महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर सकते हैं, ऐसा ख़याल भी शायद किसी के मन में उठता होगा, और मैं किसी और के बारे में नहीं कह रही, मेरे ही अपने मन में कभी-कभी ऐसा ख़याल उठता था । "
'नलिनी की साफगोई की दाद देनी होगी । '
-मैं सोच रहा था ।
अविज्नान ने पहली बार उसे गौर से देखा ।
हाँ, वह सुंदर थी, तेज-तर्रार थी, मृदु थी, सौम्य थी, मधुर कंठ था उसका और सुरीली आवाज भी उसकी एक ऐसी विशेषता थी कि वह शायद इस क्षेत्र में अच्छी 'प्रवचनकार' तो बन ही सकती थी । लेकिन वह इस बारे में पर्याप्त सावधान थी । वह शायद ही कभी किसी प्रवचनकार के प्रवचनों में जाती हो । फ़िर 'भगवान्' में उसकी क्या दिलचस्पी थी, मैंने सोचा ।
"तुम 'ईश्वर' शब्द को किस अर्थ में ग्रहण करती हो ? "
-'सर' ने पूछा ।
एक पिन-ड्रॉप सन्नाटा छाया हुआ था ।
'हाँ यह ठीक है ,' -मैं सोच रहा था ।
"ईश्वर की खोज करने के भी सबके अपने-अपने प्रयोजन होते हैं, और हर कोई 'भगवान्' की उसकी धारणा के ही प्रकाश में किसी ऐसी वस्तु की, या कहें पदार्थ या तत्त्व की खोज करता है, जिसे वह 'ईश्वर' कहता है । "
वह कुछ देर के लिए चुप हो गयी ।
"और यह प्रयोजन एक बाध्यता भी हो सकता है, जैसे कोई भय, कोई लोभ या लालच, कोई असुरक्षा की आशंका, कोई सुरक्षा की उम्मीद,...."
-उसने अपना वाक्य पूरा किया ।
"या कोई और वज़ह भी तो हो सकती है ! "
-'सर' ने पूछा ।
"हाँ, मैं सोचती हूँ, कि मेरी 'भगवान्' के प्रति उत्सुकता की वज़ह इनमें से कोई भी नहीं है । "
पुन: कुछ क्षणों तक सन्नाटा छाया रहा ।
"मेरी उत्सुकता की वज़ह है, -विस्मय, "
उसने शांतिपूर्वक कहा ।
"यह सारा अस्तित्व, हमारा जीवन, जीवन के अनोखे अद्भुत रंग, जीवन में विद्यमान गहरा सौन्दर्य, और सिर्फ़ सौन्दर्य ही नहीं, और भी बहुत-कुछ, जिसे हम हर पल महसूस करते हैं, यह सब कहाँ से उद्गमित होता है ? वह क्या है ? क्या है वह ? "
-कहते-कहते वह आंसू पोंछने लगी, उसका गला भर आया और उसकी आवाज़ बेसुरी हो उठी ।
लेकिन जल्दी ही उसने अपने-आपको संभाल लिया ।
हम सब हलके-हलके मुस्कुरा रहे थे । हम जानते थे कि उसे बुरा नहीं लगेगा ।
"क्या यह भावुकता नहीं है ?"
-मैं सोच रहा था ।
"ईश्वर है, या नहीं, इस प्रश्न का उत्तर खोजने से पहले हमें यह समझना ज़रूरी है कि 'ईश्वर' से हमारा क्या तात्पर्य है, किस किस्म की वस्तु है वह, किस रूप में हम उसे खोजने जा रहे हैं, संक्षेप में, ईश्वर है या नहीं, इसे जानने से पहले यह समझना ज़रूरी है, कि ईश्वर क्या है । और उसके अन्तर्गत एक चीज़ और भी जानना आवश्यक है, कि 'ईश्वर' क्या 'नहीं' है। इसे और ध्यान से समझें तो हम कहें कि वह जिसकी हम 'ईश्वर' की हमारी कसौटी पर जाँच कर रहे हैं, वह ईश्वर का एक पहलू भर है, या वही पूर्ण ईश्वर है । उदाहरण के लिए ईश्वर मात्र शब्द तो नहीं है, शब्द भी ईश्वर के अन्तर्गत है, यह हम अनायास समझ सकते है, लेकिन सिर्फ़ 'शब्द' शब्द का जो तात्पर्य हम ग्रहण करते हैं, ईश्वर उतना ही तो नहीं है न ?
इसलिए, ईश्वर, या भगवान्, हमारी कल्पना, उसके बारे में हमारे किसी भी अनुमान, आकलन, तर्क, सिद्धांत, ध्येय, आदि से परिबद्ध नहीं है । फ़िर भी उसे हम एक यथार्थ, एक सत्ता, एक परम सत्य के रूप में स्वीकार तो कर ही सकते हैं । वह सिर्फ़ प्रारम्भिक बिन्दु है । हम ईश्वर का ऐसा भौतिक या मानसिक चित्र या प्रतिमा नहीं बना सकते जो संपूर्णत:ईश्वर हो, इसलिए वह 'क्या नहीं है', इसे भी जानना होगा ।
फ़िर भी यदि ईश्वर एक सत्ता है, '-है', तो उसका वह 'होना' 'सत्य' है, तत्त्व है, कल्पना है, या कुछ अलग है ? "
-इतना कहकर 'सर' प्रतिक्रया का इंतज़ार करने लगे ।
"तात्पर्य यह हुआ, कि क्या 'ईश्वर' को समझने के लिए उसे अपनी धारणाओं से अलग किसी और सन्दर्भ में देखना ज़रूरी नहीं है ?"
"तुम्हें क्या लगता है ? "
"हाँ, लगता तो यही है । "
"क्या अब प्रश्न और भी जटिल नहीं हो उठा है ? "
-मैं सोच रहा था ।
"देखिये हम ऐसे तत्त्व को कहाँ खोजेंगे ? क्या वह हमसे बाहर ही कहीं है, कोई ऑब्जेक्टिव रियलिटी मात्र है क्या वह ?"
-वह सचमुच तैयार होकर आई थी । उसने चर्चा को जो मोड़ दिया, सचमुच वह प्रशंसनीय था ।
अविज्नान की आंखों में चमक आयी, नहीं तो ऐसी चर्चाओं में वह सामान्यत: उदासीन ही होता है ।
"क्या ऑब्जेक्टिव और सब्जेक्टिव , 'स्व' और जिसे 'स्व' जानता है वह ऑब्जेक्टिव, एक दूसरे से परस्पर स्वतंत्र दो 'सत्ताएँ' हो सकती हैं ?"
-'सर' ने पूछा ।
बहुत देर तक कहीं से कोई प्रतिक्रिया नहीं उठी ।
सूर्य अस्त हो चुका था । रवि ने उठकर बत्ती जलाई , कमरे में एक आलोक छा गया था । कृत्रिम आलोक था यह बिजली का, लेकिन बाहर के अंधेरे की तुलना में कम तेजस्वी नहीं था । और अभी तो यही पर्याप्त था ।
"न जाने क्यों जब भी वह आता है, हमारी वाणी मौन हो जाती है । "
-मैं 'ईश्वर' के बारे में सोचने लगा था । वे दोनों उठे, जाने से पहले पुन: 'सर' के और मेरे भी चरण छुए, और जब जा रहे थे, तो कुछ-कुछ अविज्नान से लगने लगे थे, जब वह कहीं और होता है !
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October 19, 2009
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