April 25, 2024

जिन्दगी यहाँ और वहाँ!

संभवतः निर्मल वर्मा की किसी कहानी का शीर्षक है, यह पोस्ट लिखते लिखते ध्यान आया। इसमें मेरे जंगल हाउस में बिताए गए पिछले दिनों, और अब सिटी हाउस में बीत रहे दिनों की समानता पर मेरा ध्यान गया और महसूस हुआ कि कहीं कुछ अलग नहीं है!   

मौसम की अनिश्चितता कुछ यूँ है कि चाहकर भी कुछ तय नहीं किया जा सकता। फिर भी आराम है क्योंकि मौसम के लगातार विषम होने के बावजूद बीच बीच में कुछ पल आराम के ही नहीं उमंग और उत्साह के भी चले आते हैं। तीन चार दिनों से असह्य गरमी के बाद आज सुबह से मौसम के रंग ढंग बदल से रहे हैं। जहाँ सुबह तक कुछ समझ में नहीं आ रहा था, अब रिमझिम बारिश हो रही है। धूप कहीं नहीं है और लोग घरों में या घरों के बाहर भी आराम से घूमते फिरते नजर आ रहे हैं। जहाँ मैं रह रहा हूँ उस क्षेत्र में धनाढ्य वर्ग के लोग अधिक रहते हैं। कुछ लोगों के पास दो से अधिक टू व्हीलर्स और एक से अधिक फोर व्हीलर्स हैं। शायद ही किसी किसी घर में कार खड़ी करने के लिए गैराज़ हो। सभी लोग घर के बाहर फुटपाथ पर ही अपनी कार खड़ी करते हैं। समृद्धि हर तरफ है और मेरे जैसे या मुझसे भी अधिक आयु के वृद्धजन प्रायः अकेले या पति पत्नी ही इन घरों में रहते हैं। बेटे बेटियाँ भी अपने अपने नौकरी, काम धन्धे आदि में लगे रहने से कहीं आसपास या बहुत दूर भी रहते हैं और हर दिन या सुविधा के अनुसार कभी भी आवश्यक होने पर माता-पिता से मिलने आ जाते हैं। बेटों बेटियों के एक-दो साल की उम्र के बच्चे नाना नानी या दादा दादी के साथ रहते हैं और प्रायः सभी घरों में घर पर काम करनेवाले दो तीन नौकर भी दिखाई पड़ते हैं। किसी घर से किसी शोर या लड़ाई झगड़े की आवाजें नहीं आती हैं और जीवन शान्त और धीमी गति से चल रहा है। मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि जंगल हाउस में ग्यारह माह बिताने के बाद सिटी हाउस में इतनी शान्त जगह पर रहने का सौभाग्य मुझे मिलने जा रहा है। हाँ मेरी किताबें जरूर मुझसे दूर, बहुत दूर हैं और कोई उम्मीद नहीं, कि बाद में फिर कभी उनके दर्शन भी हो सकेंगे या नहीं।

इस बदलते मौसम में, दिन, रात, सुबह, दोपहर या शाम को भी जब मन होता है, सोता, जागता, ब्लॉग लिखता या पढ़ता रहता हूँ, घर में और बाहर सड़क पर भी वॉकिंग करता रहता हूँ। इस नए स्थान पर क़रीब 25 फुट लंबा आँगन है जिस पर प्रतिदिन  लगभग 25-50 बार वॉकिंग की जा सकती है। घर के पिछले हिस्से में 6 बाय 15 फीट की जगह है जहाँ अमरूद के दो बड़े बड़े पेड़ हैं और जब से उन्हें पानी देने लगा हूँ उन पर नई नई कलियाँ और पत्ते आने लगे हैं। दो चार छोटे बड़े फल भी पत्तों में छिपे हैं जिन्हें कभी कभी कोई पंछी आकर चोंच मार देता है और चख लेता है, कुछ फल आधे से अधिक खाए हुए पेड़ पर टँगा हैं और किसी पल एकाएक टपक जाते हैं। उनकी सुगंध और रंग-रूप बहुत आकर्षित करते हैं, और बचपन के वे दिन याद आने लगते हैं जब स्कूल आते जाते हुए सड़क किनारे लगे किसी पेड़ से अमरूद गिरने पर कौतूहल से उन्हें हम देखा करते थे। वही कौतूहल आज भी महसूस होने लगता है और बीच की लंबी उम्र की दूरी एकाएक मिट सी जाती है।

किसी पड़ोसी से परिचय भी नहीं है, न बात करने के लिए कोई कारण। बस वैसा ही अनुभव होता है जैसा जंगल हाउस में और उसके आसपास के क्षेत्र में घूमते हुए महसूस हुआ करता था। शुरू में वहाँ बाइक से आते जाते लोग कभी कभी पूछ लेते थे कि मैं इतने लंबे रास्ते पर अकेला ही पैदल ही क्यों आया जाया करता हूँ। किन्तु बहुत बाद में उन्होंने अंततः मुझे जैसा हूँ वैसा स्वीकार कर लिया था, और वे मुझसे उदासीन हो गए थे।

सिटी हाउस में वह प्रश्न भी नहीं है। एक दो दिनों तक लोगों ने प्रतीक्षा की होगी लेकिन अब वे आदी हो चुके हैं। अखबार मैं पढ़ता नहीं और "क्या करूँ?" यह सवाल तो मन में कभी उठ ही नहीं सकता है। न ऊब, न बोरियत, और न किसी गतिविधि में व्यस्त होने की उद्विग्नता या मन के खालीपन से दूर भागने या उसे भोगने / न भोग पाने की आतुरता।

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दिया अमृत, पाया जहर!

समाजवाद से सावधान!

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इस पुस्तक को 80 के दशक में लिखा था आधुनिक युग के महान और विश्वविख्यात दार्शनिक / विचारक ओशो / आचार्य रजनीश ने।

वैसे तो मैं अपनी आध्यात्मिक जिज्ञासा से प्रेरित होने के कारण उनका प्रशंसक था और उनसे अत्यन्त प्रभावित भी, और मेरी उम्र के उस दौर में यह बिल्कुल स्वाभाविक भी था, किन्तु जैसा कि अनेक लोगों के साथ हुआ होगा, अन्ततः मेरा भी उनसे मोहभंग हो गया। मैं चूँकि किसी भी व्यक्ति का आध्यात्मिक या और भी किसी भी प्रकार से मूल्यांकन नहीं करता इसलिए यह प्रश्न भी मेरे लिए व्यर्थ था कि उन्हें आत्मज्ञान हो गया था या नहीं। वैसे भी किसी भी दूसरे व्यक्ति का मूल्यांकन करना मेरी दृष्टि में अनावश्यक धृष्टता ही है इसलिए भी मैं उनका प्रशंसक होते हुए भी यह कार्य नहीं कर सकता था। किन्तु जैसा कि कहा जाता है, किसी भी कर्म का फल तो होता ही है, और न केवल शुद्ध कर्तव्य की भावना से प्रेरित किसी भी कार्य का, बल्कि उन समस्त कार्यों का भी, जिन्हें शास्त्रों ने निषिद्ध कहा है। और प्रायः प्रमाद / आलस्य लोभ या भय के कारण भी मनुष्य अनेक बार शास्त्र-विहित उन कर्मों को करने से भी पलायन कर जाता है जिसे करना उसका आवश्यक कर्तव्य हो सकता है। इस पर कभी शायद ही किसी का ध्यान जा पाता है।

इसलिए ओशो की आध्यात्मिक उपलब्धि और शिक्षाओं के बारे में कुछ कहना वैसे भी मेरे अधिकार क्षेत्र से बाहर है, किन्तु यह तो प्रतीत होता है कि उनके धार्मिक / धर्म से संबंधित शिक्षाओं और राजनीतिक विचारों के कारण उनके अनेक शत्रु पैदा हो गए। जैसा कि कहा जाता है, उन्हें 21 देशों ने प्रतिबंधित कर दिया था। इस्लामी देशों में तो उनकी किताबें तक प्रतिबंधित थीं और उन देशों से इसकी अपेक्षा भी नहीं की जा सकती थी कि वहाँ उनकी शिक्षाओं का प्रचार प्रसार संभव हो पाता, किन्तु ईसाई और कैथोलिक भी ओशो से भयभीत थे इसमें सन्देह नहीं। स्पष्ट है कि उन तथाकथित उदारवादी, प्रगतिशील देशों की हर किसी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (freedom of speech) का समर्थन करने का नाटक भी दिखावटी ही था जिसमें भारत और भारतीयता से घृणा करने की अति तक पहुँचा हुआ छल और पाखंड असानी से छिप जाता था। शायद इसीलिए यह बिलकुल संभव जान पड़ता है कि अमेरिका या यूरोप के किसी देश में उन्हें जहर दे दिया गया हो।

70-80 के उस दशक में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में नेहरू जी के निधन के तुरन्त बाद ही लालबहादुर शास्त्रीजी का भी सन्देहास्पद परिस्थितियों में निधन हो गया, तब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी दो धडों में बँट गई।

एक ओर 'सिंडीकेट' के रूप में श्री के. कामराज, निजलिंगप्पा, मोरारजी देसाई आदि थे, और दूसरी तरफ नेहरू-गाँधी वंश से जुड़ी श्रीमती इन्दिरा गांधी। और उस समय की कम्यूनिस्ट पार्टी के साप्ताहिक समाचारपत्र "ब्लिट्ज़" के संपादक आर. के. करंजिया की भूमिका क्या थी, इसे भी समझा जाना जरूरी है। तब जिन भी शक्तियों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री को श्रीमती इन्दिरा गाँधी के प्रधानमंत्री बनने के रास्ते से हटाया था वे कम्यूनिस्ट रूस की ही गुप्त शक्तियाँ थीं, इस पर संदेह नहीं किया जा सकता। साम्यवादी रूस और चीन, और पूँजीवादी अमेरिका तथा यूरोप इन दो सांडों की लड़ाई में भारत की जो क्षति हो रही थी उस पर न किसी का कोई ध्यान था, न वश और न किसी को इसकी चिन्ता थी। उस समय ओशो ने कहा था :

"मैंने तब इन्दिरा (जी) से कहा था - इन बूढ़े कांग्रेसियों को निकाल बाहर करो और युवा लोगों को अपने साथ लो। तो इन्दिरा (जी) ने यही किया ..."

जाहिर है कि ओशो को मोरारजी देसाई से घृणा की हद तक द्वेष था और प्रायः अपने "प्रवचनों" में भी वे उनका मज़ाक उड़ाने से नहीं चूकते थे। वे उनके नाम तक को परिवर्तित कर दिया करते थे और स्वमूत्र-चिकित्सा के उनके प्रयोगों का भी इसी तरह उपहास करते थे। ओशो इस तथ्य से शायद अनभिज्ञ ही रहे होंगे कि वे कौन सी शक्तियाँ थीं जो उनकी (ओशो की) प्रतिभा का दुरुपयोग कर रही थीं।

तात्पर्य यह कि अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित करने के उत्साह में ओशो यह भी न समझ सके कि कौन सी शक्तियाँ अपने निहित स्वार्थों को पूर्ण करने के लिए उन्हें साधन बना रही थीं।

दूसरी ओर, बहुत से तथाकथित बुद्धिजीवी भी ओशो की प्रतिभा के कायल थे और ओशो ने जहाँ एक ओर तो सनातन धर्म पर निरंतर अनेक आघात किए वहीं दूसरी ओर 'अमेरिकन' कल्चर के प्रभाव में, वे न सिर्फ कैथोलिक और ईसाइयत का, बल्कि यहूदी तथा इस्लाम जैसे मजहबों का भी मज़ाक उड़ाते रहे।

इसी दौरान उनके प्रश्नों के संग्रह "भारत, गाँधी और मेरी चिन्ता" तथा "समाजवाद से सावधान" आदि पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हुए, और 80 के उस दशक में, अपनी 27-28 वर्ष की आयु में उनकी उन पुस्तकों को मैं जाने अनजाने मनोरंजन की दृष्टि से पढ़ते हुए यह तक न देख पाया कि उनसे मुझे केवल उनके आध्यात्मिक ज्ञान की ही अपेक्षा रखनी चाहिए थी, न कि उनके राजनीतिक और / या सामाजिक विचारों आदि की । कुछ वर्षों बाद मेरा ध्यान इस पर गया। तब श्री जे. कृष्णमूर्ति और श्री रमण महर्षि की शिक्षाओं में मुझे समाधान प्राप्त हुआ और ओशो मेरे लिए अप्रासंगिक और अनावश्यक हो गए।

वर्ष 1984 के बाद जब मुझे श्री निसर्गदत्त महाराज की शिक्षाओं को जानने-समझने का अवसर मिला तब तक ओशो मेरे मन-मस्तिष्क से बहुत दूर जा चुके थे।

वर्ष 1991 में मुझे तीव्र प्रेरणा हुई तो मैंने श्री निसर्गदत्त महाराज की शिक्षाओं के विश्वप्रसिद्ध संग्रह  I AM THAT का हिन्दी में अनुवाद करना प्रारंभ कर दिया था। वर्ष 2001 में चेतना, मुम्बई ने इसे प्रकाशित किया और इस संबंध में मेरी भूमिका भी पूर्ण हो गई।

2001 के बाद मैंने श्री जे. कृष्णमूर्ति की  Varanasi 1954, -Talks with students को हिन्दी में अनुवादित किया, जिसे राजपाल ऐन्ड सन्स द्वारा प्रकाशित किया गया। श्री रमण महर्षि के भी कुछ ग्रन्थों का अनुवाद किया, जिन्हें Ramana Maharshi Center for Learning Bangalore  ने प्रकाशित किया।

इसके बाद ब्लॉग लिखना सर्वाधिक उचित जान पड़ा और तब से, वर्ष 2009 से यही क्रम चल रहा है।

इस बीच ओशो कहाँ छूट गए, स्मरण ही नहीं रहा। यद्यपि उनसे गहरी आत्मीयता आज भी है, किन्तु उस बारे में फिर कभी।

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April 24, 2024

यू-ट्यूब पर,

अहं ब्रह्मास्मि 

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23 मई 2023 के दिन 19, बालाजी एवेन्यू छोड़ने का मन हुआ तो तुरन्त ही एक मित्र के आने पर उसके साथ उसकी स्कूटी पर बैठकर वहाँ से निकल पड़ा। वहाँ मेरा काफी सामान पड़ा हुआ है जिसमें बहुत सी किताबें तो खास हैं जिनकी जरूरत मुझे ब्लॉग लिखने के लिए हुआ करती थी। फिर मैंने पलटकर उस तरफ कभी देखा तक नहीं! जंगल हाउस में गाँव की खुली हवा में साँस ले रहा था। पिछले माह मार्च की 24 तारीख को जंगल हाउस छोड़कर सिटी में रहने लगा हूँ, बालाजी एवेन्यू से बहुत दूर। एक मित्र मिलने आए तो उन्होंने इस विषय में पूछा। मैंने कहा - जो मेरा है वह लौटकर मेरे पास आ ही जाना है, जो मेरा नहीं है, उसके बारे में मैं कुछ नहीं सोचता! 

वहाँ अहं ब्रह्मास्मि  I AM THAT की भी दस बीस या और अधिक प्रतियाँ हैं

अभी हफ्ते भर पहले यू-ट्यूब पर "आनन्द यात्रा" के द्वारा प्रस्तुत एक वीडियो में "अहं ब्रह्मास्मि" से उद्धृत एक अध्याय दिखलाई दिया। और फिर देखा कुछ और लोग भी उस पुस्तक के अंश यू-ट्यूब पर प्रस्तुत कर रहे हैं। शायद एक दो साल से! यह जानकर खुशी हुई कि वे उस पुस्तक के अंशों में छेड़छाड़ किए बिना यथासंभव यथावत् ही उन्हें प्रस्तुत कर रहे हैं। मैंने इसके लिए उन्हें धन्यवाद दिया। आखिर मेरी वस्तु लौटकर मेरे पास आ गई! देर आयद दुरुस्त आयद!! 

बचपन में श्रीरामरक्षास्तोत्रम् पढ़ा करता था। उक्त स्तोत्र के इस श्लोक का पाठ प्रायः करता था -

आदिष्टवान् यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हरः।।

तथा लिखितवान् प्रातः प्रबुद्धो बुधकौशिकः।। 

(ऋषि बुधकौशिक को भगवान् शिव ने स्वप्न में दर्शन देकर इस श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का उपदेश दिया और इसे यथावत् लिखने का आदेश उन्हें दिया, प्रबुद्ध बुधकौशिक ऋषि ने प्रातः उठते ही इसे अक्षरशः वैसा ही लिखा।) 

I AM THAT पुस्तक का हिन्दी अनुवाद करते समय मुझे यही लगता था कि इसे यथासंभव वैसा ही लिखा जाए जैसा कि मराठी ग्रन्थ सुखसंवाद (का आशय) हो सकता है।

अब इसे यू-ट्यूब पर देखते-सुनते हुए यही लगता है कि मेरे पास मेरी किताब इस रूप में ही सही, लौट आई है!

अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड नायक राजाधिराज योगिराज श्री सिद्धरामेश्वर महाराज की जय! 

अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड नायक राजाधिराज योगिराज श्री निसर्गदत्त महाराज की जय!! 

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April 23, 2024

चन्द लफ्ज़!

यूँ भी होता है!! 

हौसले ऐसे भी होंगे, ये कभी सोचा न था!

वक़्त आएगा कभी, ऐसा भी ये सोचा न था!!

जब भी कुछ करने का, दिल में उठता है ख़याल,

हर कोई होगा मुख़ालिफ़, ये कभी सोचा न था!!

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April 17, 2024

70 कामेच्छा और मृत्यु कामना

Question  / प्रश्न  70.

कामेच्छा और मृत्य-कामना के बीच क्या संबंध (या अन्तर) है?

How are sex-desire and death-wish related to one another? Or are they totally unrelated?

Answer  / उत्तर :

कामेच्छा की अभिव्यक्ति दो रूपों में होती है। प्रथमतः जैस कि प्रायः सभी प्राणियों में हुआ करती है। किसी भी प्राणी में काम-भावना का उन्मेष और उत्स्फूर्ति होते ही वह अपनी ही जाति, किन्तु विपरीत-लिंगीय प्राणी की ओर आकर्षित होता है। यदि पशु-पक्षियों आदि प्राणियों के व्यवहार का निरीक्षण करें तो दिखलाई देगा कि ऋतु आने पर ही ऐसा होता है, जब वे विपरीत-लिंगीय अपने जैसे किसी प्राणी के प्रति आकर्षित होते हैं। प्रायः ही वे जोड़ा बना लेते हैं और अपनी प्रकृति के और होनेवाली अपनी संतान के भविष्य की आवश्यकता के अनुसार कुछ समय तक दोनों साथ रहते हैं और संतान के पूर्ण विकसित होने तक उसकी देखभाल और रक्षा करते हैं। विशेषतः पक्षियों की स्थिति में देखा जाता है। पशुओं की स्थिति कुछ भिन्न होती है। फिर भी प्रायः सभी पशु भी जोड़ा बनाकर ही संतानोत्पत्ति के कार्य में संलग्न होते हैं और कार्य के पूर्ण होने तक एक दूसरे के साथ मिलकर कर्तव्य का निर्वाह करते हैं। पुरुष हो या स्त्री, मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी होता है जो विकृत मन और दूषित मस्तिष्क होने के कारण प्रायः काम-भावना को सुख प्राप्त करने अर्थात् कामोपभोग का सुख प्राप्त करने का साधन समझने की भूल कर बैठता है, कल्पना से ग्रस्त हो जाया करता है, और इस प्रकार के सुख का उपभोग करने के लिए उसे मर्यादा का विस्मरण भी हो जाता है। और शायद केवल इसीलिए भी सनातन धर्म के शास्त्रों में विवाह को एक धार्मिक संस्कार का रूप दिया गया है, ताकि पुरुष या स्त्री, वंश की वृद्धि और प्रजा की उत्पत्ति को एक पुण्य-कर्म और कर्तव्य के रूप में स्वीकार करे, न कि केवल कामोपभोग के सुख को प्राप्त करने का माध्यम समझ बैठे। विवाह के महत्व की ऐसी कल्पना करना तो दूर, इस प्रकार की अवधारणा तक सनातन धर्म से इतर परम्पराओं में कहीं नहीं देखी जाती। यहाँ तक कि उनमें "विवाह-विच्छेद" तक स्वीकार्य होता है। इसका मूल कारण है स्त्री को पुरुष के उपभोग करने की कोई वस्तुमात्र मान लेना, और पुरुषप्रधान समाज द्वारा स्त्री को उस दृष्टि से Use and throw की जानेवाली वस्तु की तरह मान बैठने की प्रवृत्ति। सामान्यतः भारतीय नैतिक मूल्यों का पालन करनेवाला समाज किसी भी स्त्री को कभी इस तरह असहाय नहीं छोड़ देता, बल्कि ऐसा करने या होने की स्थिति में भी यह उसे अपने कुल पर लगा कलंक ही अनुभव कर लज्जित भी होता है। फिर भी ऐसे उदाहरण भी कम नहीं हैं जब आर्थिक कारणों से या निर्धनता के कारण कोई अपने परिवार की किसी स्त्री को असहाय भी छोड़ दिया करता हो। वैसे भी यह एक जटिल विषय तो है ही। ऐसी ही स्थिति में पड़ी हुई किसी स्त्री के मन में इस समस्या के हल, और इससे मुक्ति पाने के एकमात्र उपाय के रूप में यदि आत्महत्या करने का विचार आए तो यह आश्चर्य की बात नहीं हो सकता। 

तब यह हुई "मृत्यु कामना" ।

इस प्रकार की मृत्यु कोई नया "अनुभव" या "एक और अनुभव" तक नहीं हो सकता, जिसे "प्राप्त करने" की कल्पना या आशा तक की जा सकती हो, और जिससे दूर दूर तक किसी सुख की प्राप्ति होने की संभावना हो। 

किन्तु "मृत्यु-कामना" या आत्महत्या करने की प्रवृत्ति के पैदा होने के बहुत से और दूसरे भिन्न कारण भी अवश्य हो सकते हैं, जब मनुष्य में निराशा, अवसाद, सतत कष्टों और दुःखों, दुश्चिन्ताओं से पीड़ित, ग्रस्त और त्रस्त होने के कारण मृत्यु की कामना पैदा हो जाती हो। यह तो हो सकता है कि परिस्थितियों से विवश और विवेक से प्रेरित होकर कोई अपनी कामेच्छा पर संयम कर ले, लेकिन इससे भी कहीं अधिक कठिन होता होगा - तीव्र निराशा और अवसाद के कारण उत्पन्न हुई "मृत्यु-कामना" से प्रभावित न होना। कामेच्छा की संतुष्टि होने पर जहाँ मनुष्य को एक तृप्ति अनुभव हो सकती है, वहीं "मृत्यु-कामना" पूर्ण हो जाने पर ऐसा कुछ शायद ही हो सकता है। और विडम्बना यह भी है कि कभी कभी तो "मृत्यु-कामना" कामेच्छा की संतुष्टि न हो पाने के कारण भी उत्पन्न हो सकती है।

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(त्वरित टिप्पणी : पता नहीं यह सब मैंने क्यों लिखा!)

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April 12, 2024

अक्षवर्त और संभृगु

ऋषि अङ्गिरा और भृगु

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मुण्डकोपनिषद्, तैत्तिरीय उपनिषद् और कठोपनिषद् के अध्ययन से मौलिक वैदिक शिक्षा के उद्गम के प्रारंभिक तत्वों का पता चल सकता है। यह संयोग नहीं है कि वेद वैश्विक ज्ञान का शाश्वत स्रोत और नित्य आविष्कार है। जहाँ मुण्डकोपनिषद् का प्रारम्भ :

ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव

विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता

इस प्रथम मुण्डक के प्रथम मंत्र से होता है वहीं इस क्रम में अङ्गिरा / अङ्गिरस् से महाशालः शौनक ऋषि के द्वारा दीक्षा ग्रहण करने के लिए निवेदन किये जाने पर अङ्गिरा द्वारा उनसे यह कहा जाना :

द्वे विद्ये वेदितव्ये इति पराचैवापरा... 

जिसमें वेद, उपनिषद् व्याकरण, ज्यौतिष्, कल्प और शिक्षा को "अपरा", और "जिसे जान लेने पर यह सब कुछ" अर्थात् "ब्रह्म, सत्य और आत्म-तत्व के यथार्थ स्वरूप को जान लिया जाता है, उसे "परा" कहा गया।

कठोपनिषद् के प्रमुख चरित्र नचिकेता, भृगु के कुल में उत्पन्न वाजश्रवा कौशिक के पुत्र हैं जिसे आचार्य यम ने इसी पराविद्या का उपदेश दिया था।

गीता (अध्याय ४) के सन्दर्भ में यम, सूर्य के अर्थात् उस "विवस्वान्" के ही पुत्र हैं जिन्हें सृष्टि के प्रारंभ में परमेश्वर परमात्मा ने "योग" का उपदेश किया था :

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।।

विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।।

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।

स एव मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।।

भक्तोऽसि सखा चेति रहस्यमेतदनुत्तमम्।।३।।

इक्ष्वाकु भगवान् श्रीराम के सूर्यवंश के कुल में हुए, जिन्हें मनु महाराज ने इसी "योग" का उपदेश दिया। इस प्रकार साँख्य दर्शन जिसके आचार्य कपिल मुनि हैं, और योग जिसके आचार्य पतञ्जलि ऋषि हैं, पराविद्या की प्राप्ति के दो उपाय (approach) हैं। उपाय का अर्थ है बुद्धि  जो स्थान और समय से स्वतंत्र होती है, उन पर आश्रित नहीं होती, जबकि मार्ग का अर्थ है चलना, प्रयास करना, जिसे स्थान और समय के अन्तर्गत किया जाता है, जहाँ कर्तृत्व, स्वतंत्र कर्ता और उस कर्ता द्वारा किए जानेवाले किसी कर्म (की अवधारणा) की सत्यता पर अनवधानता और प्रमादवश सन्देह तक नहीं उठता।

"मार्ग" सरल, वक्र, कुटिल, विषम, दुरूह, भ्रमकारी, और संशयपूर्ण हो सकता है, जबकि "उपाय" त्वरित, तत्क्षण और प्रत्यक्ष है। इसलिए -

"सत्य एक पथहीन भूमि है।"

Truth is pathless land.

आविष्कार के लिए प्रत्यक्ष उपाय है, न कि मार्ग।

अक्षवर्त और संभृगु 

Oxford and Cambridge

उसी शौनक ऋषि की परम्परा का विस्तार हैं जिसकी शिक्षा महर्षि अङ्गिरा ने महाशालः शौनक को प्रदान की थी।  यही अङ्गिरा शैक्षं  Anglo-Saxon मार्ग है, जो "कालेनेह महता योगो नष्टः" की वास्तविकता भी है।

अङ्गिरा की तुलना "गिरा" अर्थात् "वाणी" से करें तो "ग्रीक" संस्कृति और सभ्यता, "न्याय" पर आधारित जीवन-दर्शन का उद्गम कहाँ से हुआ, यह स्पष्ट होता है।

मूल स्रोत से विच्छिन्न होने पर क्रमशः वैदिक सिद्धांतों में विकार उत्पन्न हुआ और पाश्चात्य परंपराओं का आगमन हुआ। अङ्गिरा ने जहाँ  Angel का रूप ग्रहण कर लिया, वहीं जाबाल-ऋषि ने Gabriel का, किन्तु उन्हें भी अङ्गिरा से संबद्ध कर Angel की कोटि में रख दिया गया। Gabriel को आर्ष अङ्गिरा / Arch-Angel इसीलिए कहा जाता है। 

यह सब खोज का विषय है न कि आग्रह करने का।

यत्र मज्जितः तत्र मज्जितेति ।

और संस्कृत "अल्" प्रत्यय से "अल् अक्ष मज्जीति" के संबंध को देखने पर "अल् अक्सा मस्जिद" के पुरातत्व के महत्व को भी रेखांकित किया जा सकता है। 

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April 11, 2024

क्षोभ

जटिल आघात प्रवणता क्षोभ प्रभाव

शायद इसे ही अंग्रेजी भाषा में :

Complex Post Trauma  Stress  Disorder 

कहा जाता  होगा!

जब तक स्मृति है तब तक कोई 'अतीत' और 'पहचान' है, जो यद्यपि 'वृत्ति' ही है और 'वृत्तिमात्र' पुनः पतञ्जलि के योगसूत्र साधनपाद के अनुसार --

वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।५।।

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।

'मन' की ही गतिविधि है जो अनित्य होते हुए भी पुनः पुनः प्रकट और विलीन होती रहती है। इस प्रकार, 'स्मृति' भी अस्थायी स्वप्नावस्था ही है, किन्तु यह जान लेने के बाद में फिर किसी अप्रिय या दुःखद घटना की पुनरावृत्ति की आशंका समाप्त तो नहीं हो जाती, - विशेषरूप से तब जब आपने उन समस्त स्मृतियों और उन स्मृतियोंसे संबद्ध समस्त व्यक्तियों से संबंध-विच्छेद भी क्यों न कर लिया हो। क्योंकि वे अपनी मूढता और दुष्टता त्याग देंगे ऐसी आशा करना व्यर्थ है। यह सब तो उनकी कल्पना में भी नहीं होता होगा, न आप उनका ध्यान इस सच्चाई की ओर आकर्षित ही कर सकते हैं।  इसलिए अतीत में घटित किसी विशेष क्षोभप्रद घटना को विस्मृत कर पाना जीते जी लगभग असंभव ही है। किसी सिद्धांत, तर्क, उदाहरण, नैतिक या तथाकथित धार्मिक उपदेश के आधार पर भले ही मनुष्य स्वयं को सान्त्वना देता रहे, तो भी उस क्षोभ से जीते-जी उसे कोई राहत शायद ही कभी मिल सकती हो।

तथाकथित नैतिकता और धर्म की शिक्षा हमें आग्रह और बलपूर्वक सिखाती है कि किसी से घृणा मत करो, क्रोध मत करो ... ईर्ष्या और द्वेष, हिंसा मत करो, या किसी के प्रति मन में कोई दुर्भावना मत रखो ... आदि आदि। किन्तु जब तक मन (के रूप) में अतीत और अतीत की स्मृति (जो कि एक ही घटना / यथार्थ के दो नाम भर हैं) नामक वृत्ति है तब तक उसके आघात से उत्पन्न क्षोभ के प्रभाव से छुटकारा नहीं पाया जा सकता। हाँ यह अवश्य हो सकता है कि मनुष्य उन व्यक्तियों से इतनी दूर चला जाए कि उनसे संपर्क तक हो पाना, उनका पुनः सामना तक हो पाना ही असंभव हो जाए। मैं नहीं कह सकता कि कितने लोग यह सोच / कर पाते हैं। मेरे अपने मन की स्थिति यह है कि जब मेरे अतीत से जुड़ा ऐसा कोई व्यक्ति मेरा ब्लॉग न सिर्फ पढ़ता या देखता है बल्कि उस बहाने से किसी भी तरह से मुझसे संबंधित होना चाहता है तो उसके इस निर्लज्ज और धृष्ट दुस्साहस करने पर मैं क्रोध से पागल ही हो जाता हूँ।

यह मेरा जीवन है जिसे बिना कोई अपराध-बोथ हुए मैं जीता रहा हूँ और जीता रहूँगा।

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March 26, 2024

दिल ही तो है!

उम्र  के इस मोड़  पर

अचानक खयाल आया, काश मैं शादीशुदा होता। एक दो बच्चे होते जो बुढ़ापे में मेरा खयाल रखते! और कुछ नहीं तो किसी दिन कहीं साथ ले जाते और किसी धार्मिक या पवित्र नगरी में सड़क पर अकेला कहीं छोड़कर "अभी आता हूँ" कहकर मुझे मेरे हाल पर छोड़कर रफूचक्कर हो जाते!

लेकिन उस उम्र में जब मैंने अपनी आजीविका के लिए काम करना शुरू ही किया था, यह भी तय कर लिया था कि बस बारह वर्ष तक ही कार्य करने के बाद मुझे कार्य से अवकाश ग्रहण करना है। क्योंकि अगर वैसे ही किसी आध्यात्मिक आश्रम में चला जाता तो वहाँ के नियमों का पालन करना होता, किसी परंपरा में दीक्षा ग्रहण करनी होती और संभवतः मेरा आध्यात्मिक विकास भी होता, किन्तु सौभाग्य से ऐसा कोई अवसर मुझे मिला ही नहीं इसलिए जो भी आध्यात्मिक साधना मैंने की वह अपने विवेक से ही प्रेरणा लेकर हुई। शायद इसे "भगवान की मरजी" भी कह सकते हैं किन्तु यह भी सच है कि इतने लम्बे समय के बाद भी मैं कभी किसी भी ऐसे भगवान के अस्तित्व को नहीं स्वीकार कर सका, जिससे संवाद कर सकूँ, या कि  जिसकी क्या मरजी है यह समझ सकूँ। हो सकता है यह मेरा कोरा दंभ, अभिमान, अहंकारपूर्ण हठ या हठपूर्ण अहंकार ही रहा हो, जिससे मैं अभी तक मुक्त नहीं हो सका होऊँ! भगवान् बुद्ध की शिक्षाएँ मुझे कहीं अधिक प्रेरणा प्रदान करती हैं। व्यावहारिक दृष्टि से भी किसी भगवान या ईश्वर को मानने की अपेक्षा जानना ही उचित और तर्कसंगत भी लगता है। और फिर किसी भगवान् या ईश्वर को मानने या जानने से भी अधिक क्या यही और अधिक तर्कसंगत, आसान नहीं है कि पहले मैं स्वयं को ही जान लूँ! पर सवाल यह भी है कि क्या वैसे भी, मैं स्वयं को नहीं जानता? बहुत सोचने समझने पर यह जाना कि जैसे अनेक विषयों और वस्तुओं को, लोगों को और संबंधों आदि को "जाना" जाता है, क्या स्वयं को भी वैसे, उस तरह से जान सकूँ, यह संभव है भी? "मैं हूँ।" यह तो मुझे पता है कि लेकिन यह "मैं" क्या मुझसे अलग कुछ या कोई और है? क्या यह सवाल ही बेतुका नहीं है? मतलब यह कि "मैं" वह है जो और सब कुछ तो जानता है और जितना कुछ जान लेता है, वह बनता-मिटता और सतत परिवर्तित होता है, जबकि "मैं" या अपने स्वयं को "जानना" कुछ ऐसा है जो कि बनता, मिटता या परिवर्तित नहीं होता। इसलिए जिस किसी भी व्यक्ति, वस्तु, विचार, स्थान, समय, संबंध और सिद्धान्त आदि को जाना जा सकता है, वह "मैं" नहीं हो सकता। इसलिए "स्वयं" को जानने का अभिप्राय "स्वयं" / "मैं" के बारे में उत्पन्न कोई धारणा, विचार, सिद्धान्त आदि तो  कभी नहीं हो सकता।

"मैं" नित्य प्रत्यक्ष वास्तविकता है, जो कि अपना प्रमाण स्वयं है।

उपरोक्त विवेचना का निष्कर्ष यह कि "मैं" वास्तविकता और काल स्थान से अछूता सत्य है और "स्वयं" या "मैं" को जानना किसी प्रकार का कोई अनुभव भी नहीं हो सकता, जबकि भगवान् या ईश्वर संभवतः अनुभवगम्य जैसा कुछ होता होगा और यदि वह अनुभवगम्य है भी या नहीं भी है, तो दोनों ही स्थितियों में वह विश्वसनीय भी कैसे हो सकता है? जबकि "मैं" या "स्वयं" जो नित्य प्रत्यक्ष प्रकट और सनातन "तत्व" है असंदिग्ध रूप से हर किसी को अनायास ही पता होता है।

इसलिए "भगवान की मरजी" या भगवान को जान पाना शायद और अवश्य ही अत्यन्त दुरूह और श्रमसाध्य एक कार्य हो सकता हो, किसी के लिए बहुत सरल या कठिन स्वाभाविक क्यों न हो, उतना ही अधिक अनावश्यक एक कार्य है। सुदीर्घ तप से ऐसे किसी भगवान या किसी और प्रभु, ईश्वर आदि के दर्शन और उनकी कृपा की प्राप्ति भी होती हो, किन्तु क्या वह केवल एक कल्पनामात्र ही नहीं हो सकती?

किन्तु ईश्वर-प्राप्ति की कल्पना या "भगवान की मरजी" के बहाने मन को शान्ति कैसे मिल सकती है? और फिर स्थायी शान्ति तो बहुत दूर की बात है! 

"स्वयं" या "मैं" को एकमात्र नित्य प्रकट और प्रत्यक्ष तत्व की तरह जान लेते ही शरीर, मन, बुद्धि, स्मृति और भावनाओं, भाग्य और इसी प्रकार से संसार, सुख-दुःख, प्रारब्ध आदि की क्षणभंगुरता भी अनायास ही स्पष्ट हो जाती है और तब इस प्रश्न का कोई महत्व नहीं रह जाता कि बुढ़ापे में क्या होगा, क्या कोई "मेरा" खयाल रखेगा, काश मैं शादीशुदा होता तो मेरे बच्चे मेरा खयाल रखते, मेरी देख-भाल करते, कम से कम किसी तीर्थ की यात्रा करवाने के बहाने किसी धार्मिक स्थान पर ले जाते और "मुझे" कहीं छोड़कर फरार या छू-मन्तर हो जाते! 

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March 04, 2024

69 - What is prANa?

Question प्रश्न 69.

What is prANA प्राण ;

and what is chetana चेतना?

प्राण और चेतना क्या हैं?

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On the Feb. 8th 2011, I had posted the following stanzas and the whole text :

Upadesh Sarah / उपदेश सारः

In my blog  "श्री रमण वाणी."

Reciting from there, those two stanzas 12 and 13 are as the following -

चित्तवायवश्चित्क्रियायुताः।।

शाखयोर्द्वयी शक्तिमूलका।।१२।।

लयविनाशने उभयरोधने।।

लयगतं पुनर्भवति नो मृतम्।।१३।।

The first stanza points out that one and the same power manifests in two forms, namely the prANa and the chetanA, like the two branches of the same tree.

The next stanza points out that stopping the movement could be done in two ways and this stopping again may also result in two ways.

When this is done, the movement / flow of the mind (चित्तवृत्तिः) is made silent and still either for a short or comparatively for a longer time period.

Practicing Yoga the aspirant may wish to controlling the breath in order to attain such tranquility, silence and stillness of the mind.

I was trying to find out a nearest word to convey the exact sense of the word : prANa / प्राण 

Now I can say the English word "flow" rightly conveys the sense of this word.

Translating the word "consciousness" however poses no problem at all because this word is synonymous of "perception" either through organs of senses or in a way through feelings, sentiments, mind, thoughts, intellect or of the experiences of purely physical kind like the pleasure and the pain, heat and cold, the hunger and the thirst etc. 

"consciousness" therefore is perception, and static, while "flow" is movement.

The first is what happens to us, the next is how the body, mind, feelings respond or answer to a situation.

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February 26, 2024

क्या ईश्वर है?

Question प्रश्न 68.

Does God Exist?

क्या ईश्वर है? 

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Answer : उत्तर --

Could This question be asked in another way as the following :

What is God?

Again we could restructure in the yet another way for the sake of clarity :

"Who" is "God"?

Or even in the following way :

Is (The) God an Objective Reality?

The simple and plain Truth is :

Ishwara (ईश्वर)  is never God. 

Gods are so many, while Ishwara is the  Unique Principle though neither one nor many. Moreover it's not Zero or absence as well! 

So God and Ishwara are different and distinct from one-another.

The word God as is Gott in German and in Gothic, is a derivative and a cognate of the Sanskrit word gotra. Historically and traditionally also the "gotra" are as many as are those ऋषि /  seers who approached the Divinity (देवता तत्व), like-wise those Divinities too are as  many.The question of the monotheism or polytheism is therefore just absurd.

Ishwara is "What Is".

The phenomenal existence is all whatever appears and subsequently disappears.

However at the same time, inevitably some support is there, undeniable for all this apparent phenomenon which neither appears nor disappears. 

That foundation of the phenomenal is the Timeless Existence / "What Is". This could not to be grasped through senses or the intellect (thought) but is to be seen as the तत्वदर्शिनः / sages / seers could see.

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनः तत्वदर्शिनः।।

So who is an atheist?

Is an atheist one who doesn't believe whether Ishwara exists or not?

A monotheist believes that Ishwara is "One", a polytheist believes there are multiple Ishwara(s), while the atheist neither doubts nor believes if Ishwara exists or not, if Ishwara is one or many, a singular or a plural.

The origin of the word "Theo" in the Greek is in the Sanskrit word "धियो" / "धियो" as is there in the  गायत्री मन्त्र  / "gAyatrI mantra" :

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।।

धियो in the Sanskrit is a form of  "धियः" - plural of  "धी" - meaning thought or the intellect. This thought is singular or plural according to the situation.

धियः / धियो as in the gAyatrI mantra is in the plural Genetive case - meaning - of the intellect / thought / senses.

In comparison, Theo in the Greek is a cognate of the Sanskrit "धियः" / "धियो" which the plural, in the nominative case.

Again, the Sanskrit word "बुद्धिः" is a compound verb-root, a combination of the roots √बुध् and √धी . The first is used to indicate the illumination or the light, while the next in the sense of knowledge / memory.

Ishwara is to be known through the illumination only and not through the memory or knowledge. Knowledge or memory is experience. It is only the description of the Truth about Ishwara, and the description is never "What Is"; - the described.

The multiplicity and the singularity of intellect is described in the Gita in the following verse :

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।।

बहुशाखः ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।

Those who dwell in the intellect have an intellect of the kind with infinite branches and none takes them to the Truth, while those who understand, and see in the light of understanding have a single and unique approach to the Truth. 

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