ऋषि अङ्गिरा और भृगु
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मुण्डकोपनिषद्, तैत्तिरीय उपनिषद् और कठोपनिषद् के अध्ययन से मौलिक वैदिक शिक्षा के उद्गम के प्रारंभिक तत्वों का पता चल सकता है। यह संयोग नहीं है कि वेद वैश्विक ज्ञान का शाश्वत स्रोत और नित्य आविष्कार है। जहाँ मुण्डकोपनिषद् का प्रारम्भ :
ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव
विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता
इस प्रथम मुण्डक के प्रथम मंत्र से होता है वहीं इस क्रम में अङ्गिरा / अङ्गिरस् से महाशालः शौनक ऋषि के द्वारा दीक्षा ग्रहण करने के लिए निवेदन किये जाने पर अङ्गिरा द्वारा उनसे यह कहा जाना :
द्वे विद्ये वेदितव्ये इति पराचैवापरा...
जिसमें वेद, उपनिषद् व्याकरण, ज्यौतिष्, कल्प और शिक्षा को "अपरा", और "जिसे जान लेने पर यह सब कुछ" अर्थात् "ब्रह्म, सत्य और आत्म-तत्व के यथार्थ स्वरूप को जान लिया जाता है, उसे "परा" कहा गया।
कठोपनिषद् के प्रमुख चरित्र नचिकेता, भृगु के कुल में उत्पन्न वाजश्रवा कौशिक के पुत्र हैं जिसे आचार्य यम ने इसी पराविद्या का उपदेश दिया था।
गीता (अध्याय ४) के सन्दर्भ में यम, सूर्य के अर्थात् उस "विवस्वान्" के ही पुत्र हैं जिन्हें सृष्टि के प्रारंभ में परमेश्वर परमात्मा ने "योग" का उपदेश किया था :
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।
स एव मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।।
भक्तोऽसि सखा चेति रहस्यमेतदनुत्तमम्।।३।।
इक्ष्वाकु भगवान् श्रीराम के सूर्यवंश के कुल में हुए, जिन्हें मनु महाराज ने इसी "योग" का उपदेश दिया। इस प्रकार साँख्य दर्शन जिसके आचार्य कपिल मुनि हैं, और योग जिसके आचार्य पतञ्जलि ऋषि हैं, पराविद्या की प्राप्ति के दो उपाय (approach) हैं। उपाय का अर्थ है बुद्धि जो स्थान और समय से स्वतंत्र होती है, उन पर आश्रित नहीं होती, जबकि मार्ग का अर्थ है चलना, प्रयास करना, जिसे स्थान और समय के अन्तर्गत किया जाता है, जहाँ कर्तृत्व, स्वतंत्र कर्ता और उस कर्ता द्वारा किए जानेवाले किसी कर्म (की अवधारणा) की सत्यता पर अनवधानता और प्रमादवश सन्देह तक नहीं उठता।
"मार्ग" सरल, वक्र, कुटिल, विषम, दुरूह, भ्रमकारी, और संशयपूर्ण हो सकता है, जबकि "उपाय" त्वरित, तत्क्षण और प्रत्यक्ष है। इसलिए -
"सत्य एक पथहीन भूमि है।"
Truth is pathless land.
आविष्कार के लिए प्रत्यक्ष उपाय है, न कि मार्ग।
अक्षवर्त और संभृगु
Oxford and Cambridge
उसी शौनक ऋषि की परम्परा का विस्तार हैं जिसकी शिक्षा महर्षि अङ्गिरा ने महाशालः शौनक को प्रदान की थी। यही अङ्गिरा शैक्षं Anglo-Saxon मार्ग है, जो "कालेनेह महता योगो नष्टः" की वास्तविकता भी है।
अङ्गिरा की तुलना "गिरा" अर्थात् "वाणी" से करें तो "ग्रीक" संस्कृति और सभ्यता, "न्याय" पर आधारित जीवन-दर्शन का उद्गम कहाँ से हुआ, यह स्पष्ट होता है।
मूल स्रोत से विच्छिन्न होने पर क्रमशः वैदिक सिद्धांतों में विकार उत्पन्न हुआ और पाश्चात्य परंपराओं का आगमन हुआ। अङ्गिरा ने जहाँ Angel का रूप ग्रहण कर लिया, वहीं जाबाल-ऋषि ने Gabriel का, किन्तु उन्हें भी अङ्गिरा से संबद्ध कर Angel की कोटि में रख दिया गया। Gabriel को आर्ष अङ्गिरा / Arch-Angel इसीलिए कहा जाता है।
यह सब खोज का विषय है न कि आग्रह करने का।
यत्र मज्जितः तत्र मज्जितेति ।
और संस्कृत "अल्" प्रत्यय से "अल् अक्ष मज्जीति" के संबंध को देखने पर "अल् अक्सा मस्जिद" के पुरातत्व के महत्व को भी रेखांकित किया जा सकता है।
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