April 25, 2024

जिन्दगी यहाँ और वहाँ!

संभवतः निर्मल वर्मा की किसी कहानी का शीर्षक है, यह पोस्ट लिखते लिखते ध्यान आया। इसमें मेरे जंगल हाउस में बिताए गए पिछले दिनों, और अब सिटी हाउस में बीत रहे दिनों की समानता पर मेरा ध्यान गया और महसूस हुआ कि कहीं कुछ अलग नहीं है!   

मौसम की अनिश्चितता कुछ यूँ है कि चाहकर भी कुछ तय नहीं किया जा सकता। फिर भी आराम है क्योंकि मौसम के लगातार विषम होने के बावजूद बीच बीच में कुछ पल आराम के ही नहीं उमंग और उत्साह के भी चले आते हैं। तीन चार दिनों से असह्य गरमी के बाद आज सुबह से मौसम के रंग ढंग बदल से रहे हैं। जहाँ सुबह तक कुछ समझ में नहीं आ रहा था, अब रिमझिम बारिश हो रही है। धूप कहीं नहीं है और लोग घरों में या घरों के बाहर भी आराम से घूमते फिरते नजर आ रहे हैं। जहाँ मैं रह रहा हूँ उस क्षेत्र में धनाढ्य वर्ग के लोग अधिक रहते हैं। कुछ लोगों के पास दो से अधिक टू व्हीलर्स और एक से अधिक फोर व्हीलर्स हैं। शायद ही किसी किसी घर में कार खड़ी करने के लिए गैराज़ हो। सभी लोग घर के बाहर फुटपाथ पर ही अपनी कार खड़ी करते हैं। समृद्धि हर तरफ है और मेरे जैसे या मुझसे भी अधिक आयु के वृद्धजन प्रायः अकेले या पति पत्नी ही इन घरों में रहते हैं। बेटे बेटियाँ भी अपने अपने नौकरी, काम धन्धे आदि में लगे रहने से कहीं आसपास या बहुत दूर भी रहते हैं और हर दिन या सुविधा के अनुसार कभी भी आवश्यक होने पर माता-पिता से मिलने आ जाते हैं। बेटों बेटियों के एक-दो साल की उम्र के बच्चे नाना नानी या दादा दादी के साथ रहते हैं और प्रायः सभी घरों में घर पर काम करनेवाले दो तीन नौकर भी दिखाई पड़ते हैं। किसी घर से किसी शोर या लड़ाई झगड़े की आवाजें नहीं आती हैं और जीवन शान्त और धीमी गति से चल रहा है। मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि जंगल हाउस में ग्यारह माह बिताने के बाद सिटी हाउस में इतनी शान्त जगह पर रहने का सौभाग्य मुझे मिलने जा रहा है। हाँ मेरी किताबें जरूर मुझसे दूर, बहुत दूर हैं और कोई उम्मीद नहीं, कि बाद में फिर कभी उनके दर्शन भी हो सकेंगे या नहीं।

इस बदलते मौसम में, दिन, रात, सुबह, दोपहर या शाम को भी जब मन होता है, सोता, जागता, ब्लॉग लिखता या पढ़ता रहता हूँ, घर में और बाहर सड़क पर भी वॉकिंग करता रहता हूँ। इस नए स्थान पर क़रीब 25 फुट लंबा आँगन है जिस पर प्रतिदिन  लगभग 25-50 बार वॉकिंग की जा सकती है। घर के पिछले हिस्से में 6 बाय 15 फीट की जगह है जहाँ अमरूद के दो बड़े बड़े पेड़ हैं और जब से उन्हें पानी देने लगा हूँ उन पर नई नई कलियाँ और पत्ते आने लगे हैं। दो चार छोटे बड़े फल भी पत्तों में छिपे हैं जिन्हें कभी कभी कोई पंछी आकर चोंच मार देता है और चख लेता है, कुछ फल आधे से अधिक खाए हुए पेड़ पर टँगा हैं और किसी पल एकाएक टपक जाते हैं। उनकी सुगंध और रंग-रूप बहुत आकर्षित करते हैं, और बचपन के वे दिन याद आने लगते हैं जब स्कूल आते जाते हुए सड़क किनारे लगे किसी पेड़ से अमरूद गिरने पर कौतूहल से उन्हें हम देखा करते थे। वही कौतूहल आज भी महसूस होने लगता है और बीच की लंबी उम्र की दूरी एकाएक मिट सी जाती है।

किसी पड़ोसी से परिचय भी नहीं है, न बात करने के लिए कोई कारण। बस वैसा ही अनुभव होता है जैसा जंगल हाउस में और उसके आसपास के क्षेत्र में घूमते हुए महसूस हुआ करता था। शुरू में वहाँ बाइक से आते जाते लोग कभी कभी पूछ लेते थे कि मैं इतने लंबे रास्ते पर अकेला ही पैदल ही क्यों आया जाया करता हूँ। किन्तु बहुत बाद में उन्होंने अंततः मुझे जैसा हूँ वैसा स्वीकार कर लिया था, और वे मुझसे उदासीन हो गए थे।

सिटी हाउस में वह प्रश्न भी नहीं है। एक दो दिनों तक लोगों ने प्रतीक्षा की होगी लेकिन अब वे आदी हो चुके हैं। अखबार मैं पढ़ता नहीं और "क्या करूँ?" यह सवाल तो मन में कभी उठ ही नहीं सकता है। न ऊब, न बोरियत, और न किसी गतिविधि में व्यस्त होने की उद्विग्नता या मन के खालीपन से दूर भागने या उसे भोगने / न भोग पाने की आतुरता।

***


No comments:

Post a Comment