होना, करना, बीतना और बीत जाना
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अस्तित्व वह है जो है
जो है वह जानना और होना है। होना वह है जिसे जाना जाता है, और जानना वह है, जो है ।
फिर, जानना वह भी है, जो होता अर्थात् हो रहा होता है।
इसलिए अस्तित्व, होना और जानना भी है। किन्तु जो होता अर्थात् हो रहा होता हुआ जान पड़ता है, वह न तो है, न वास्तव में होता है बल्कि होने का आभास मात्र है। इस आभास को भी जिस प्रकार से, जिस रूप में अनुमान की तरह बुद्धि में जाना जाता है, वह न तो है, न होता ही है। आभास ही मन है। आभास की स्मृति ही काल अर्थात् कल्पना, है। इसलिए स्मृति काल और कल्पना होता यद्यपि हुआ या हो रहा जान पड़ता है, किन्तु इस प्रकार का जानना उस जानने से भिन्न और विलक्षण है जो एक ही साथ होना और जानना भी है, और जिसमें जानना है, और होना जानना।
इस प्रकार अस्तित्व के होने और उस होने के ही साथ साथ उसके जाने-जाने के रूप में उसके होने के सत्य के दर्शन में होता हुआ या जो हो रहा है ऐसा प्रतीत होता है, वह केवल आभास अर्थात् केवल बुद्धि की कल्पना ही है, न कि अस्तित्व या, होने के साथ साथ जानने, और जानने के साथ साथ होने , और जानने तथा होने दोनों का एकमेव तत्व के रूप में दर्शन । इसलिए बुद्धि का कार्य प्रारंभ होने से पूर्व, उस कार्य के होने की प्रतीति या आभास के समय उत्पन्न होनेवाला अनुमान और कार्य के समाप्त हो जाने पर उसके घटित होने की कल्पना या अनुमान ।
बीतना अर्थात् व्यतीत होना भी केवल ऐसी ही कल्पना आभास या प्रतीति है न कि होने-जानने का स्वरूप या स्वरूपगत सत्य।
इसलिए जीवन अर्थात् अस्तित्व का एक प्रकार वह है, जिसे एक ओर तो जो है की तरह से भी, और उसके ही साथ साथ, बीतने की तरह से भी जाना जाना जाता है।
जो घटित होता हुआ प्रतीत होता है वह बौद्धिक अनुमान और आभास है, जो न तो घटित होता है और इसीलिए बीतता या व्यतीत भी नहीं होता।
और जो बीत गया उसे स्मृति, पहचान, अर्थात् केवल अतीत ही कहा जाना चाहिए।
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