April 25, 2024

दिया अमृत, पाया जहर!

समाजवाद से सावधान!

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इस पुस्तक को 80 के दशक में लिखा था आधुनिक युग के महान और विश्वविख्यात दार्शनिक / विचारक ओशो / आचार्य रजनीश ने।

वैसे तो मैं अपनी आध्यात्मिक जिज्ञासा से प्रेरित होने के कारण उनका प्रशंसक था और उनसे अत्यन्त प्रभावित भी, और मेरी उम्र के उस दौर में यह बिल्कुल स्वाभाविक भी था, किन्तु जैसा कि अनेक लोगों के साथ हुआ होगा, अन्ततः मेरा भी उनसे मोहभंग हो गया। मैं चूँकि किसी भी व्यक्ति का आध्यात्मिक या और भी किसी भी प्रकार से मूल्यांकन नहीं करता इसलिए यह प्रश्न भी मेरे लिए व्यर्थ था कि उन्हें आत्मज्ञान हो गया था या नहीं। वैसे भी किसी भी दूसरे व्यक्ति का मूल्यांकन करना मेरी दृष्टि में अनावश्यक धृष्टता ही है इसलिए भी मैं उनका प्रशंसक होते हुए भी यह कार्य नहीं कर सकता था। किन्तु जैसा कि कहा जाता है, किसी भी कर्म का फल तो होता ही है, और न केवल शुद्ध कर्तव्य की भावना से प्रेरित किसी भी कार्य का, बल्कि उन समस्त कार्यों का भी, जिन्हें शास्त्रों ने निषिद्ध कहा है। और प्रायः प्रमाद / आलस्य लोभ या भय के कारण भी मनुष्य अनेक बार शास्त्र-विहित उन कर्मों को करने से भी पलायन कर जाता है जिसे करना उसका आवश्यक कर्तव्य हो सकता है। इस पर कभी शायद ही किसी का ध्यान जा पाता है।

इसलिए ओशो की आध्यात्मिक उपलब्धि और शिक्षाओं के बारे में कुछ कहना वैसे भी मेरे अधिकार क्षेत्र से बाहर है, किन्तु यह तो प्रतीत होता है कि उनके धार्मिक / धर्म से संबंधित शिक्षाओं और राजनीतिक विचारों के कारण उनके अनेक शत्रु पैदा हो गए। जैसा कि कहा जाता है, उन्हें 21 देशों ने प्रतिबंधित कर दिया था। इस्लामी देशों में तो उनकी किताबें तक प्रतिबंधित थीं और उन देशों से इसकी अपेक्षा भी नहीं की जा सकती थी कि वहाँ उनकी शिक्षाओं का प्रचार प्रसार संभव हो पाता, किन्तु ईसाई और कैथोलिक भी ओशो से भयभीत थे इसमें सन्देह नहीं। स्पष्ट है कि उन तथाकथित उदारवादी, प्रगतिशील देशों की हर किसी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (freedom of speech) का समर्थन करने का नाटक भी दिखावटी ही था जिसमें भारत और भारतीयता से घृणा करने की अति तक पहुँचा हुआ छल और पाखंड असानी से छिप जाता था। शायद इसीलिए यह बिलकुल संभव जान पड़ता है कि अमेरिका या यूरोप के किसी देश में उन्हें जहर दे दिया गया हो।

70-80 के उस दशक में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में नेहरू जी के निधन के तुरन्त बाद ही लालबहादुर शास्त्रीजी का भी सन्देहास्पद परिस्थितियों में निधन हो गया, तब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी दो धडों में बँट गई।

एक ओर 'सिंडीकेट' के रूप में श्री के. कामराज, निजलिंगप्पा, मोरारजी देसाई आदि थे, और दूसरी तरफ नेहरू-गाँधी वंश से जुड़ी श्रीमती इन्दिरा गांधी। और उस समय की कम्यूनिस्ट पार्टी के साप्ताहिक समाचारपत्र "ब्लिट्ज़" के संपादक आर. के. करंजिया की भूमिका क्या थी, इसे भी समझा जाना जरूरी है। तब जिन भी शक्तियों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री को श्रीमती इन्दिरा गाँधी के प्रधानमंत्री बनने के रास्ते से हटाया था वे कम्यूनिस्ट रूस की ही गुप्त शक्तियाँ थीं, इस पर संदेह नहीं किया जा सकता। साम्यवादी रूस और चीन, और पूँजीवादी अमेरिका तथा यूरोप इन दो सांडों की लड़ाई में भारत की जो क्षति हो रही थी उस पर न किसी का कोई ध्यान था, न वश और न किसी को इसकी चिन्ता थी। उस समय ओशो ने कहा था :

"मैंने तब इन्दिरा (जी) से कहा था - इन बूढ़े कांग्रेसियों को निकाल बाहर करो और युवा लोगों को अपने साथ लो। तो इन्दिरा (जी) ने यही किया ..."

जाहिर है कि ओशो को मोरारजी देसाई से घृणा की हद तक द्वेष था और प्रायः अपने "प्रवचनों" में भी वे उनका मज़ाक उड़ाने से नहीं चूकते थे। वे उनके नाम तक को परिवर्तित कर दिया करते थे और स्वमूत्र-चिकित्सा के उनके प्रयोगों का भी इसी तरह उपहास करते थे। ओशो इस तथ्य से शायद अनभिज्ञ ही रहे होंगे कि वे कौन सी शक्तियाँ थीं जो उनकी (ओशो की) प्रतिभा का दुरुपयोग कर रही थीं।

तात्पर्य यह कि अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित करने के उत्साह में ओशो यह भी न समझ सके कि कौन सी शक्तियाँ अपने निहित स्वार्थों को पूर्ण करने के लिए उन्हें साधन बना रही थीं।

दूसरी ओर, बहुत से तथाकथित बुद्धिजीवी भी ओशो की प्रतिभा के कायल थे और ओशो ने जहाँ एक ओर तो सनातन धर्म पर निरंतर अनेक आघात किए वहीं दूसरी ओर 'अमेरिकन' कल्चर के प्रभाव में, वे न सिर्फ कैथोलिक और ईसाइयत का, बल्कि यहूदी तथा इस्लाम जैसे मजहबों का भी मज़ाक उड़ाते रहे।

इसी दौरान उनके प्रश्नों के संग्रह "भारत, गाँधी और मेरी चिन्ता" तथा "समाजवाद से सावधान" आदि पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हुए, और 80 के उस दशक में, अपनी 27-28 वर्ष की आयु में उनकी उन पुस्तकों को मैं जाने अनजाने मनोरंजन की दृष्टि से पढ़ते हुए यह तक न देख पाया कि उनसे मुझे केवल उनके आध्यात्मिक ज्ञान की ही अपेक्षा रखनी चाहिए थी, न कि उनके राजनीतिक और / या सामाजिक विचारों आदि की । कुछ वर्षों बाद मेरा ध्यान इस पर गया। तब श्री जे. कृष्णमूर्ति और श्री रमण महर्षि की शिक्षाओं में मुझे समाधान प्राप्त हुआ और ओशो मेरे लिए अप्रासंगिक और अनावश्यक हो गए।

वर्ष 1984 के बाद जब मुझे श्री निसर्गदत्त महाराज की शिक्षाओं को जानने-समझने का अवसर मिला तब तक ओशो मेरे मन-मस्तिष्क से बहुत दूर जा चुके थे।

वर्ष 1991 में मुझे तीव्र प्रेरणा हुई तो मैंने श्री निसर्गदत्त महाराज की शिक्षाओं के विश्वप्रसिद्ध संग्रह  I AM THAT का हिन्दी में अनुवाद करना प्रारंभ कर दिया था। वर्ष 2001 में चेतना, मुम्बई ने इसे प्रकाशित किया और इस संबंध में मेरी भूमिका भी पूर्ण हो गई।

2001 के बाद मैंने श्री जे. कृष्णमूर्ति की  Varanasi 1954, -Talks with students को हिन्दी में अनुवादित किया, जिसे राजपाल ऐन्ड सन्स द्वारा प्रकाशित किया गया। श्री रमण महर्षि के भी कुछ ग्रन्थों का अनुवाद किया, जिन्हें Ramana Maharshi Center for Learning Bangalore  ने प्रकाशित किया।

इसके बाद ब्लॉग लिखना सर्वाधिक उचित जान पड़ा और तब से, वर्ष 2009 से यही क्रम चल रहा है।

इस बीच ओशो कहाँ छूट गए, स्मरण ही नहीं रहा। यद्यपि उनसे गहरी आत्मीयता आज भी है, किन्तु उस बारे में फिर कभी।

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