February 27, 2023

यह सिलसिला!

कविता / 27-02-2023

----------------©--------------

सिलसिला कब ख़त्म होगा क्या पता! 

तुझको अगर मालूम हो तो यह तू ही बता!

तूने किया था या किया था शुरू मैंने,

या कि दोनों ने ही की थी यह ख़ता!

क्या ज़रूरी है कि रहें खींचते ही हम इसे, 

क्या ज़रूरी है कि रहें झेलते ही यह सज़ा!

क्यों कोई इलज़ाम तुम पर मैं लगाऊँ, 

क्यों करो इलज़ाम मुझ पर तुम आयद, 

क्यों न भूल जाएँ हम मिले भी थे कभी,

क्यों न चुन लें राह हम, और अपना रास्ता!

यूँ ही करते रहें क्या, दोस्ती-दुश्मनी का खेल,

यूँ ही करते रहें रोज मेल सुलह या अनमेल,

कैसे मगर यह ख़त्म होगा, मुझे तो मालूम नहीं, 

तुझको मगर मालूम हो तो यह तू ही बता!

***


February 25, 2023

Resonance Chamber.

कविता : 25-02-2023

---------------©-------------

यह सही है! 

--

न्यूरो-साइन्टिस्ट्स कहते हैं,

कि मस्तिष्क,

एक रिज़ोनेन्स चैम्बर की तरह,

काम करता है!

शायद यह सही है।

कोई विचार बाहर से आता है, 

और इस चैम्बर में अटक जाता है!

मस्तिष्क की दीवारों से टकराकर, 

कुछ समय भटकता है,

और जब ऐसे बहुत से विचार,

धीरे धीरे मस्तिष्क में आ जाते हैं, 

तो वे एक दूसरे से टकराते होंगे!

उनमें से ही एक विचार,

"मैं सोचता हूँ।",

यह भी होता है!

लेकिन दर-असल, 

न तो कोई "मैंं",

न कोई 'सोचना',

वहाँ होता है! 

एक निविड शून्य अन्तराल में, 

चेतना, समय से विच्छिन्न और परे होती है,

क्योंकि समय भी विचार ही तो है!

***




 

युद्ध काल / एक वर्ष

युद्ध और संघर्ष

----------©----------

रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध को प्रारंभ हुए एक वर्ष हो चुका।युद्ध प्रारंभ होने के प्रत्यक्ष और परोक्ष कारण इतने और बहुत भिन्न भिन्न हैं कि उन्हें एक साथ देख पाने के लिए आवश्यक है कि धैर्य के साथ उन पर ध्यान दिया जाए। 

प्रत्यक्षतः तो दोनों पक्षों के अपने अपने दावे हैं, जिनके अनुसार एक पक्ष आक्रान्ता और दूसरा आक्रान्त है। किन्तु दोनों पक्षों से भिन्न शेष विश्व तटस्थ है यह सोचना भूल है। हर राष्ट्र के अपने हित हैं और हर राष्ट्र के हित-अहित भी दोनों ही पक्षों के युद्ध से जुड़े हैं। ऐसा नहीं है कि स्वयं यूरोप या एशिया के तमाम राष्ट्रों के बीच कोई मतभेद नहीं है और पूरा संसार इस युद्ध से तटस्थ और निष्पक्ष है। किन्तु क्या राष्ट्र स्वयं ही केवल एक अवधारणा ही नहीं है! क्या राष्ट्र भी किन्हीं समूहों द्वारा ऐतिहासिक कारणों से प्राप्त की गई सत्ता की शक्ति के अलग अलग केन्द्र ही नहीं हैं? और, क्या प्रत्येक ही राष्ट्र में इस शक्ति पर अधिकार प्राप्त करने के लिए अनेक पक्ष और उनके बीच परस्पर संघर्ष नहीं हैं! संघर्षरत ऐसे विभिन्न पक्षों के भी अपने अपने हित और अहित, और भिन्न भिन्न लक्ष्य हैं। जैसे ये पक्ष राजनीतिक सत्ता के केन्द्र सम्मिलित रूप में एक राष्ट्र की पहचान रखते हैं फिर भी केवल तात्कालिक और दीर्घकालिक लक्ष्यों पर ध्यान में रखते हुए एक  दूसरे के मित्र, शत्रु या राष्ट्र हैं, वैसे ही दुनिया के छोटे बड़े सभी राष्ट्र और उनका गठजोड़ भी ऐसा ही एक अवसरवादी गठजोड़ है, जो अपने अपने अलग अलग तात्कालिक और दीर्घकालिक लक्ष्यों पर ध्यान देते हुए अपने 'राष्ट्रीय' हित तय करता है और युद्ध के दोनों पक्षों के प्रति उनका दृष्टिकोण अवसर के अनुसार तय होता और बदलता रहता है। तात्पर्य यह कि युद्ध एक सतत प्रक्रिया है, न कि कभी कभी होनेवाली एक छिटपुट घटना या कोई संयोगमात्र। संघर्ष अनेक स्तरों और प्रकारों में होता रहता है, और युद्ध उसी संघर्ष का ही एक विशिष्ट और प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाला एक प्रकार भर है। स्पष्ट है कि युद्ध के कुछ अप्रत्यक्ष कारण भी होते हैं जिन पर सहसा ध्यान ही नहीं जाता और कुछ शक्तियाँ भी यही चाहती हैं कि वे कारण सर्वसाधारण मनुष्य की दृष्टि से ओझल ही रहें। युद्ध इस दृष्टि से एक अत्यन्त ही कुटिल, क्रूर, निर्दय और निष्ठुर एक बहुत बड़ा व्यवसाय है, जिसमें सतत विकास की बहुत संभावनाएँ हैं, और इस व्यवसाय में संलग्न वे समूह हैं जो हथियारों का निर्माण और व्यापार करते हैं। उनके व्यावसायिक हित इस पर निर्भर हैं कि कहीं न कहीं युद्ध सतत ही चलता रहे और उनकी तिजोरियाँ लगातार भरती रहें। उन्हें मनुष्य की पीड़ा में भी एक अवसर दिखाई देता है और वे उस अवसर को किसी भी कीमत पर गँवाना नहीं चाहते हैं। मनुष्य की पीड़ा पर घड़ियाली आँसू भी वे अवश्य ही बहा सकते हैं, क्योंकि वह भी उनके व्यवसाय के संवर्धन में सहायक होता है।

***


February 22, 2023

पानी केरा बुदबुदा!

पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात।

देखत ही छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात।।

--

मानस (= मन) की जाति (= जन्म), सुबह दिखलाई पड़नेवाले तारे की तरह अत्यन्त अल्पकालिक होता है। जैसे सुबह दिखाई पड़नेवाला तारा देखते देखते आँखों से ओझल हो जाता है और फिर दिखलाई नहीं देता, मन भी इसी प्रकार की वस्तु है जिस पर दृष्टि डालते ही लुप्त-प्राय हो जाता है, कहीं नहीं दिखलाई देता । दूसरा और अधिक प्रचलित अर्थ यह है कि मानस अर्थात् मनुष्य (का जीवन) भी सुबह के तारे जैसा ही क्षणिक है (मनुष्य को इसकी सत्यता का पता तो अपना अंतिम समय आने पर ही होता है। तब तक वह अनेक सपनों में इतना अधिक डूबा रहता है कि मृत्यु की कल्पना तक नहीं कर पाता।) इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि जैसे पानी में उठनेवाला कोई बुलबुला भीतर से रिक्त होता है, हर मनुष्य भी अपने आपमें सतत एक रिक्तता का अनुभव करता है, और उस रिक्तता को भरने की कोशिश में और उसे भर पाने की आशा में वह सदैव कुछ न कुछ करता ही रहता है। और कुछ नहीं, तो सपनों से ही उस रिक्तता को भर लेने का प्रयास करता है। 

--


मानना और जानना

यक़ीन / कविता : 22/02/2023

--------------------©-------------------




February 20, 2023

सन्दर्भ : कविता का,

पाकिस्तान के बहाने से

--------------©------------

कल सुबह एक कविता / आलेख पाकिस्तान के (और भारत के भी) दुर्भाग्य पर लिखा था। सतही दृष्टि से तो यह लग सकता है कि यह पाकिस्तान के भविष्य की चिन्ता से प्रेरित था, किन्तु फिर इस पर ध्यान गया कि पाकिस्तान में फौज ने जिस प्रकार धर्म / मजहब की आड़ में देश पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया उसके दुष्परिणामों की क़ीमत ही उसे चुकाना पड़ रही है। अगर :

"मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना" और

"परहित सरस धरम नहिं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई।।"

की दृष्टि से देखें तो धर्म और हिंसा के गठजोड़ की राजनीतिक साजिश ही इस सारे अनिष्ट का मूल कारण है, यह समझ पाना कठिन नहीं होगा। किन्तु राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से मोहित व्यक्तियों ने हिंसा के सहारे बलपूर्वक जब उनके तथाकथित "धर्म" को दूसरों पर थोपने का कुटिल यत्न शुरू किया तो इससे कुछ नई परंपराएँ स्थापित हुईं, जिनसे मनुष्य की पीड़ा में वृद्धि ही हुई।

अगर पाकिस्तान के बनते ही फौज को अनावश्यक व्यर्थ बोझ समझ लिया जाता तो पाकिस्तान आज की बदहाली तक नहीं पहुँचा होता। उसे तो किसी पड़ोसी से कोई ख़तरा भी नहीं था, जिससे कि सुरक्षा करने के लिए फौज को बनाए रखना ज़रूरी होता, जैसी भारत की स्थिति थी, और भारत की ऐतिहासिक परंपरा भी रही है, भारत ने कभी किसी देश पर आक्रमण नहीं किया, और अपनी इस नीति और नैतिकता से केवल प्रमाद के ही कारण भारत चीन के कुटिल इरादों को भी नहीं भाँप पाया। यह तो इतिहासकार ही ठीक ठीक से बतला सकते हैं कि किस मज़बूरी से भारत ने ऐसा किया होगा। चीन में सम्राट का तख्ता पलटने के बाद सी पी सी और पी एल ए ने चीन के बाहर के भी स्थानों पर अधिकार स्थापित कर उन्हें अपने शासन के नियंत्रण में लाने का सतत प्रयास किया, जो कि आज भी चल ही रहा है। चीन तो घोषित रूप से भी "धर्म" का शत्रु है। कम्यूनिस्ट आदर्श भी हिंसा के साधन का दुरुपयोग करने में हिचकिचाते नहीं है। तात्पर्य यही कि यह सब अधमता ही है, न कि धर्म। पाकिस्तान की स्थिति पर सोचते हुए इस पर ध्यान गया, कि किस प्रकार फौज ने धर्म के माध्यम से या बिना उसका सहारा लिए भी धृष्टता और बलपूर्वक दुनिया भर में ही सर्वत्र ही अपना वर्चस्व स्थापित कर सत्ता की शक्ति को एकत्र कर लिया। इसी विचार से प्रेरित होकर आज की कविता अस्तित्व में आई।

***


पटरियाँ

क वि ता  : 20 02 2023

राजनीति, धर्म-अधर्म और युद्ध

-----------------©-----------------

रेल की दो पटरियाँ,

दूर तक जाती हुईं,

जान पड़ती हैं मुझे, 

लक़ीर धुँधलाती हुई,

उनके साथ साथ मैं, 

दौड़ता हूँ दूर तक, 

पर नहीं पाता उन्हें, 

मैं कभी मिलती हुई!

महाभारत की हो या, 

मगध उत्कल की कथा,

दंश धर्म-अधर्म के,

परंपराओं की व्यथा,

आज तक दो पटरियाँ,

दूर तक जाती हुई, 

जान पड़ती हैं मुझे, 

लक़ीर धुँधलाती हुई!

कल लिखा था एक अंश,

आज है यह दूसरा, 

कल मिला था एक दंश, 

आज है फिर दूसरा!

अहिंसा है धर्म परम,

और हिंसा है अधम,

हिंसा-अहिंसा का मिलन,

राजनीति, -रूप छद्म!

आज भी दो पटरियाँ,

दूर तक जाती हुईं,

जान पड़ती हैं मुझे, 

लक़ीर धुँधलाती हुई!

***





February 19, 2023

शर्म आती है मगर!

देर आयद दुरुस्त आयद! 

-------------©----------------

दबी ज़ुबाँ से ही सही, वो अब कहने लगे हैं,

शर्म आती है मगर आज ये कहना होगा!

आपसे रूठ के हम जितना जिए ख़ाक जिए!

कई इलज़ाम लिए और कई इलज़ाम दिए! 

आज करते हैं मगर, इसरार, हमें करना होगा, 

शर्म आती है मगर आज ये कहना होगा! 

आप से टूट के हम ऐसे टूटे कि घुटते ही गये,

ज़िद पे अड़ के हम अपने आपमें टूटते ही गये,

इंशा अल्ला आख़िर को समझ में आया है हमें,

आपके साये में ही हमसाया बन के रहना होगा!

शर्म आती है मगर आज ये कहना होगा!

आ पहुँचे हैं इस मुक़ाम पर हम फौज ही के बूते,

जहाँ से निकलने की कोई सूरत नज़र नहीं आती, 

काश हम समझ लें, बदनीयती फौज की अपनी, 

तो न हमें ज़िल्लत को, मुसीबत को सहना होगा!

शर्म आती है मगर आज ये कहना होगा!

फौज ही ने तो बनाया था मजहब को औजार,

फौज ने ही तो कर दिया था वतन को बेज़ार!

पाक मज़हब* को कर दिया था धरम से जुदा,

अब से हमें अपने ईमानो धरम में ही रहना होगा!

शर्म आती है मगर आज ये कहना होगा।

--

दबी ज़ुबान से ही सही पाकिस्तान के लिए आज इस सच्चाई को स्वीकार करना जरूरी हो गया है कि उसकी इस बदहाली, बुरी हालत के लिए न तो मज़हब और न सियासत ही उस हद तक उतनी ज़िम्मेवार है जितनी कि फौज, जिसने मज़हब का ग़लत इस्तेमाल कर आम लोगों को गुमराह किया और इसीलिए आज भी पाकिस्तान की आम जनता की बोलने की आजादी की साँसें फौज के बूटों तले घुट रही हैं। और अब शायद कोई चमत्कार ही पाकिस्तान को उसकी इस बीमारी से (फौज से) निजात दिला सकता है। पाकिस्तान को, सचमुच ही, क्या फौज रखने की जरूरत कभी थी? क्या बांग्लादेश के पाकिस्तान से अलग होने और पाकिस्तान के टूटने के लिए फौज ही ज़िम्मेवार नहीं थी?

***


 





February 18, 2023

महाशिवरात्रि पर,

अक्षरसमाम्नाय और संस्कृत का भाषावैभव

-----------------------©---------------------

आज बहुत से जरूरी काम करने थे। कल शाम से ही बिजली गुल थी। सुबह बिजली आई तो सबसे पहले मोबाइल की बैटरी चार्ज की। रूटीन काम निपटाए। खाना बनाया, दोपहर एक बजे फुरसत मिली तो डेढ़ घंटे सोया। चाय पी। कुछ करने का मन नहीं था, तो यूँ ही कुछ न करते हुए कुर्सी पर बैठा रहा। पास के मन्दिर में अखण्ड रामायण (रामरचितमानस / रामचरितमानस) का पाठ चल रहा था, सुनता रहा। चूँकि वॉल्यूम ऊँचा था, ढोल- नगाड़े भी भज रहे थे तो शब्द साफ नहीं सुनाई दे रहे थे। केवल स्वरों को ध्यानपूर्वक सुना तो पता चला राग यमन कल्याण के स्वरों में कुछ गाया जा रहा था। डेढ़ घंटे बाद जब गायन समाप्त हुआ तो रामचरितमानस का पाठ फिर सुनाई देने लगा। कमरे में वॉक करते हुए टेबल पर रखी स्तोत्ररत्नावलि पर ध्यान गया तो शिवपञ्चाक्षर स्तोत्र पढ़ा। गायन के समाप्त होने पर पुनः एक बार रामचरितमानस का पाठ सुनाई देने लगा। इससे अनुमान लगाया कि गायन और पाठ साथ साथ चल रहे थे। न तो बाहर जाने का मन हो रहा था, न घर में बैठे रहने का। फिर मन बदल गया, सोचा कुछ समय बाहर टहल लिया जाए। लौटते हुए कुछ पड़ोसी सपरिवार कहीं जाते दिखाई दिए। पति-पत्नी के साथ उनके तीन बच्चे। बड़ी लड़की 12 वर्ष की, उससे छोटा उसका भाई 10 वर्ष का और सबसे छोटी उनकी बहन 5 वर्ष की उम्र के हैं। जाते जाते बड़ी लड़की उत्साहपूर्वक बोली :

"भोलेबाबा की शादी में जा रहे हैं!"

आज भोलेबाबा जगत्पिता शिव और माता भवानी जगज्जननी पार्वती का विवाहोत्सव जो है!

घर लौटते हुए याद आया सूरी नागम्मा लिखित :

"रमणाश्रम के पत्र" /

"Letters from Sri Ramanasramam"

का वह प्रसंग जब तिरु-अण्णामलै में रुद्र- दर्शन के दिन भगवान् अरुणाचल की पालकी श्री रमणाश्रम के सामने से गुजरी तो श्री रमण ने हाथ जोड़कर सिर झुकाया और बोले :

अप्पक्कु पिळ्ळै अडक्कु / அப்பக்கு பிள்ளை அடக்கு ।

अर्थात् पुत्र ने पिता के दर्शन किए। 

मुझे नहीं पता कि उपरोक्त तमिऴ और नागरी लिपि में लिखा शुद्ध है या अशुद्ध है क्योंकि जब मैंने उस पुस्तक को खोजने का प्रयास किया तो मुझे वह नहीं मिली। फिर मैंने माइक्रोसॉफ्ट के ट्रान्सलेटर ऐप से चेक किया तो भी मुझे सफलता नहीं मिली फिर उस ऐप में अपने தமிழ் भाषा के ज्ञान को परखने जानने के लिए कुछ खोजा तो आश्चर्य हुआ।

Excellent, Wonderful, Splendid,

इनका तमिऴ अनुवाद अद्भुतम् , आश्चर्यम् जैसे संस्कृत शब्दों के सजात / सज्ञात / cognates थे तो दूसरे भी अनेक शब्द ऐसे ही जान पड़े। तमिऴ लिपि नागरी से वैसे ही मिलती जुगती है, जैसे कि पूरे भारत की अन्य भाषाओं की लिपियाँ। हाँ तमिऴ लिपि का स्वरविन्यास (phonetic protocol) कुछ भिन्न है, जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि तमिऴ भाषा संस्कृत से भी अधिक प्राचीन है। वैसे इस तथ्य पर ध्यान दें कि तमिऴ को विभिन्न प्रयोजनों के लिए ब्राह्मी तथा ग्रन्थलिपि में भी लिखा जाता है, तो स्पष्ट हो जाएगा कि यह अनुमान भी संस्कृत और भारतीय भाषाओं से द्वेष रखनेवाले विदेशियों के ही द्वारा 'रचा' गया है ताकि तमाम भारतीय भाषाओं का एक ही स्रोत होने की सच्चाई पर पर्दा डाल दिया जा सके और जनमानस में संस्कृत के प्रति विरोध की भावना जागृत की जा सके।

निष्कर्ष यही कि अगर हम अधिक से अधिक भाषाएँ सीखें तो हमें वास्तविकता क्या है, इसका पता चलेगा और हम अपनी भाषा, संस्कृति और 'धर्म' को अच्छी तरह जान सकेंगे। अभी तो हमसे कहीं अधिक अच्छी तरह तो इसे वे विदेशी ही जानते हैं, जो कि हमारी कमज़ोरी का लाभ उठाकर हमें हानि पहुँचाना चाहते हैं।

संस्कृत भाषा के व्याकरण का आधार तो वही अक्षरसमाम्नाय है जिसका उपदेश स्वयं भगवान् शिव ने ही सनक और पाणिनी आदि ऋषियों को दिया था! 

***


February 16, 2023

दुनिया और जीवन

श्रीमद्भगवद्गीता 7/9, 7/10,

--------------------------------

दुनिया को किसने बनाया?

अध्याय ७ :

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।।

जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु।।९।।

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।।

बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।।१०।।

इससे स्पष्ट है, कि वह जिसने कि दुनिया को बनाया, सबका बीज वही सनातन है, जिसे कभी किसी दूसरे ने नहीं बनाया।

***


February 15, 2023

दुनिया किसने बनाई?

मनुष्य, जीवन, ईश्वर, चेतना, संसार और जगत्

---------------------------------------------------

"दुनिया को किसने बनाया?" क्या यह थोड़ा सा अटपटा और निरर्थक प्रश्न नहीं है, क्योंकि फिर यह सवाल उठेगा कि जिस किसी ने भी दुनिया को बनाया होगा, उसे भी तो किसी न किसी ने बनाया ही होगा। तय है कि या तो दुनिया हमेशा से ही जो है, और जैसी है वह है, और तब किसी ने दुनिया को बनाया, यह सवाल तो उठता ही नहीं है। लेकिन अगर मान लिया जाए कि दुनिया को बनानेवाला कोई है तो जाहिर है कि उसे बनानेवाला कोई और कहीं नहीं है, बल्कि वह खुद हमेशा से ही जो है, और जैसा है, वह है, और किसी ने उसे बनाया, यह सवाल ही नहीं उठता। 

बहरहाल, सच्चाई कुछ भी हो, एक तो यह दुनिया है, जो मिट्टी, पानी, आग, हवा और आसमान जैसी चीज़ों से बनी है, तो एक और भी दुनिया है जिसमें हर कोई पैदा होता है, कुछ समय तक जीता है और फिर मर जाया करता है।

फिर एक और दुनिया है, जो मनुष्यों ने बनाई है, जिसे परिवार, समाज, जाति, वंश और सामाजिक व्यवस्था कहा जाता है। इस सामाजिक दुनिया को बनानेवाला वैसे तो कोई एक मनुष्य नहीं हो सकता, क्योंकि यह एक सामूहिक संरचना है, जो कि स्थान और परिस्थितियों के साथ बदलती रहती है। इसी संरचना को समाज कहा जाता है। समाज में रहनेवाले किसी भी मनुष्य को इसके तयशुदा नियमों और क़ायदे क़ानूनों के अनुसार चलना ही होता है। फिर भी यह कहना गलत नहीं होगा, कि सभी मनुष्य इसे मिलकर ही बनाते हैं। फिर एक दुनिया वह होती है, जो हर मनुष्य के अपने मन में होती है, या जिसे वह दुनिया कहता है।

जब हम कहते हैं कि दुनिया को किसने बनाया तो हमें नहीं पता होता कि हम इनमें से कौन सी दुनिया के बनाए जाने, और उसे बनानेवाले के बारे में कह रहे हैं।

इसलिए यह कहना गलत न होगा कि हर मनुष्य अपनी दुनिया खुद ही बनाता है। और / क्योंकि उसे यह भी नहीं पता होता है, कि खुद उसे किसने बनाया! पर उसे यह तो पता हो सकता है कि उसके शरीर को उसके माता-पिता ने जन्म दिया है, लेकिन फिर सवाल उठता है कि माता-पिता को किसने जन्म दिया, तो वह सवाल भी किसी पूर्वज तक जाकर समाप्त हो जाता है। शायद विज्ञान कभी इस बारे में जान सकेगा कि इस धरती पर जीवन कब प्रारंभ हुआ होगा। तब वह यह प्रश्न नहीं पूछ सकेगा कि धरती पर जीवन कहाँ से, किस स्थान, तारे और दूसरे किसी ग्रह आदि से आया, क्योंकि जीवन कहीं से भी क्यों न आया हो, अगर वहाँ से ही प्रारंभ हो सकता था, तो ऐसे ही धरती से भी तो हो सकता है!

फिर सवाल यह भी है, कि क्या जीवन को किसी ने बनाया, या वह भी हमेशा से ही जो है, और जैसा है वैसा ही है, और केवल परिस्थितियों के अनुकूल होने पर ही अनेक और असंख्य प्रकार के अनगिनत प्राणियों का रूप लेकर अभिव्यक्त होता है, प्रकट तथा विलुप्त होता रहता है। और ऐसे ही असंख्य प्राणियों में भी प्रत्येक के साथ चेतना अपरिहार्यतः संबद्ध होती है, जिसमें वह प्राणी अपने जन्म के समय तो अपने पृथक होने की भावना से रहित होता है किन्तु समय बीतते बीतते उसमें यह भावना जन्म लेती है, और फिर वह शरीर को 'मैं' समझने लगता है। यह भी एक रोचक सच्चाई है कि नींद या बेहोश / अचेत होने की स्थिति में उसका शरीर मर नहीं जाता, केवल कुछ समय के लिए संसार से उसका संपर्क टूट जाया करता है। और नींद से जागने के बाद भी वह अपनी स्मृति की सहायता से अपने "मैं" होने की भावना को पुनः समायोजित / पुनर्जीवित कर स्वयं को निरंतर विद्यमान व्यक्ति मान लेता है। और चूँकि स्मृति भी जानकारी मात्र है जो सतत बनती और मिटती रहती है, अतः स्मृति भी वह 'स्वयं' तो नहीं होता। स्मृति के माध्यम से ही एक आभासी "मैं" निरंतर बनता और बदलता, तथा मिटता रहता है।

फिर, यह प्रश्न, "क्या उसे किसी ने बनाया है?" क्या असंगत और त्रुटिपूर्ण ही नहीं है?

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।।

इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।।२२।।

(श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय १०)

इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः।।

एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्।।६।।

(श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय १३)

क्या यह चेतना (consciousness) ही जीवन का ही पर्याय नहीं है? क्या यह मनुष्यमात्र और जिस किसी ईश्वर ने दुनिया को बनाया है, उस ईश्वर में विद्यमान एकमेव उभयनिष्ठ सत्य ही  नहीं है?

***

February 14, 2023

कुछ ढूँढो तो कुछ मिल जाए!

मनु और शतरूपा

--

मनु, श्रद्धा और शतरूपा की कथा याज्ञवल्क्य, मैत्रेयी और गार्गी की कथा जैसी प्रतीत होती है। अब किसी ने अल्लाह और ओम् को एक कह दिया, जिससे एक और अनावश्यक विवाद उत्पन्न हो गया। इससे कुछ समय पहले बिहार में किसी ने तुलसीदास और रामचरितमानस की निन्दा की। "अवगुन आठ सदा उर रहहीं।।" का सन्दर्भ खोजने के उद्देश्य से मैंने रामचरितमानस खोला तो निम्न पंक्तियों पर दृष्टि ठहर गई :

दोहा :

सो मैं तुम्ह संग कहउँ सब सुनु मुनीस मन लाइ।

राम कथा कलि मल हरन मंगल करन सुहाइ।।

चौपाई :

स्वायंभू मनु अरू सतरूपा।

जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा।।

दंपति धरम आचरन नीका।

अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह के लीका।।

नृप उत्तानपाद सुत तासू।

ध्रुव हरिभगत भयउ सुत जासू।।

लघु सुत नाम प्रियब्रत ताही।

बेद पुरान प्रसंसहिं जाही।।

देवहूति पुनि तासु कुमारी।

जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी।।

आदिदेव प्रभु दीनदयाला।

जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला।।

सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना।

तत्त्व बिचार निपुन भगवाना।।

तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला।

प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला।।

सोरठा :

होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन।

हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु।।

चौपाई :

बरबस राज सुतहि तब दीन्हा।

नारि समेत गवन वन कीन्हा।।

तीरथ बर नैमिष बिख्याता।

अति पुनीत साधक सिधि दाता।।

बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा

तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा।।

पंथ जात सोहहिं मतिधीरा।

ग्यान भगति जनु धरें सरीरा।।

पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा।

हरषि नहाने निरमल नीरा।।

आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी।

धरम धुरंधर नृपरिषि जानी।।

जहँ जहँ तीरथ रहे सुहाए।

मुनिन्ह सकल सादर करवाए।।

कृस सरीर  मुनिपट परिधाना।

सत समाज नित सुनहिं पुराना।।

दोहा :

द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।

बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन  अति लाग।।

--

स्वायंभू मनु  : स्वायंभुव मनु,

सतरूपा : शतरूपा,

श्रुति : वेद, उपनिषद् तथा पुराण,

उत्तानपाद और प्रियव्रत दोनों भाई मनु शतरूपा के पुत्र।

ध्रुव : उत्तानपाद और सुनीति का पुत्र,

देवहूति : मनु और शतरूपा की पुत्री, कर्दम ऋषि की पत्नी,

सांख्य दर्शन के प्रणेता भगवान् कपिल की माता (सिद्धानां कपिलो मुनिः -- श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १०)

महाराज मनु वृद्ध हो गए, किन्तु विषयों के प्रति उनके मन में विराग नहीं हुआ तो वे दुःखी हुए, और राजपाट पुत्र को सौंपकर रानी शतरूपा के साथ धेनुमती अर्थात् गोमती नदी के तट पर तप और ऋषि मुनियों की संगति करने के लिए जा पहुँचे।

द्वादस अच्छर मंत्र :

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।।

का अनुरागपूर्वक जप करने लगे।

--

उपरोक्त रामचरितमानस से उद्धृत कुछ पंक्तियों से यह अनुमान नहीं लगाया जाना चाहिए कि यदि इस ग्रन्थ रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास ने :

ढोल गँवार सूद्र पसु नारी।

सकल ताड़ना के अधिकारी।।

लिखा है तो "अधिकारी" शब्द का प्रयोग क्यों किया?

इसीलिए क्योंकि ताड़ना पाना उनका स्वाभाविक अधिकार है, और अधिकार हमेशा स्वैच्छिक होता है। वे अपने अधिकार का प्रयोग करने के लिए स्वतंत्र हैं। इसी का दूसरा उदाहरण है मोक्ष का अधिकार या पात्रता। केवल विवेक और वैराग्य तथा शम दम आदि षट्संपत्तियों से युक्त ही मोक्ष का अधिकारी और पात्र हो सकता है।

नारी प्रकृति है इसलिए वह माता भी है और मनुष्य की प्रकृति में शरीर और मन (अन्तःकरण) दोनों ही प्रकृति एवं पुरुष का ही रूप है, इसलिए इन्द्रियों का दमन किया जाता है जबकि मन का शमन किया जाता है। इन्द्रियों की तुलना रथ में जुते अश्वों से की जाती है और मन की तुलना अन्तःकरण से। आत्मा को रथ पर आरूढ पुरुष और बुद्धि को सारथि कहा जाता है।

इस प्रकार उक्त चौपाई का वाच्यार्थ ग्रहण करने पर यही प्रतीत होगा कि गोस्वामी तुलसीदास ने नारी-विरोधी पुरुषसत्तावादी  दृष्टि से इस चौपाई की रचना की। अल्पबुद्धि और वितण्डावादी यही अर्थ ग्रहण करेंगे, जबकि सूक्ष्म और विवेक की दृष्टि से जो अर्थ होगा, वह इस चौपाई के लक्ष्यार्थ पर ध्यान दिए जाने से ही प्राप्त हो सकता है।

वैसे मनुष्य मात्र का शरीर पुरुष या स्त्री का हो, उसका मन एवं बुद्धि, स्वभाव और प्रवृत्ति में पुरुषोचित या स्त्रियोचित गुण कम या अधिक मात्रा में हो सकते हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। ये गुण पुनः सद्गुण या दुर्गुण या दोनों का मिश्रण भी हो सकते हैं। इसे ही श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १६ क्रमशः श्लोक १, २ एवं ३ में दैवी और श्लोक ४ मेंआसुरी संपत्ति कहा गया है।श्लोक ७ से श्लोक २१ तक आसुरी चरित्र का वर्णन किया गया है। निष्कर्ष यही, कि किसी ग्रन्थ का सतही, आधा-अधूरा ज्ञान प्राप्त कर उसकी विवेचना और व्याख्या करना अपने-आप को ही धोखा देना है।

***





बॉउंड्री वॉल!

विकास की क़ीमत!

--

पिछले तीन वर्षों से भी पहले से इस स्थान पर रहने लगा हूँ।प्रकृति के सान्निध्य में। हाइवे से एक-डेढ़ किलोमीटर दूर स्थित एक गाँव में।

हाइवे से गाँव तक जाने के दो रास्ते हैं। गाँव को बॉउंड्री वॉल से घेर कर वाल के किनारे से होकर दोनों रास्ते जाते हैं। जब तक आप गाँव में नहीं पहुँचते, आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि इस वॉल से बाहर कोई गाँव बसा होगा। वैसे गाँव स्वच्छ, और साफ-सुथरा है और आदर्श ग्राम की श्रेणी में शामिल है, पर जो दोनों रास्ते गाँव तक जाते हैं उनके बीच की विस्तृत भूमि पर दो तीन बड़े बड़े होटलों के बीच बिल्डर्स ने एक बड़े क्षेत्र पर अपना दफ्तर खोल रखा है, जिसके पास सुन्दर शिव मन्दिर है। मन्दिर तो छोटा ही है, किन्तु उसके आसपास की जगह काफी फैली हुई है, जिस पर सुरुचिपूर्ण तरीके से पेड़-पौधै लगाकर गॉर्डन या पार्क जैसा कुछ विकसित किया गया है। पार्क और बाउंड्री वॉल के बीच से होकर गाँव तक जानेवाले रास्ते पर एक बड़ी कॉलोनी निर्मित की गई है। बड़े बड़े प्लॉट्स पर उतने ही काफी बड़े आवास भी बने हैं, जिनके आसपास भी बगीचे बनाने के लिए काफी जगह है। ऐसी ही एक कॉटेज के पास स्विमिंग पूल भी है। 

किन्तु इन तीन वर्षों में कोरोना के आने से पूरा क्षेत्र उजाड़ और वीरान हो चुका है। अनेक जर्जर हो रहे भवनों की कम्पाउन्ड-वॉल पर लगे लोहे के गेट भी देखरेख के अभाव में या तो टूट चुके हैं, या फिर आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के द्वारा उखाड़ और तोड़ कर चोरी कर लिए गए हैं।

ऐसी ही एक कम्पाउन्ड-वॉल के भीतर एक सुन्दर सा ऊँचा वृक्ष है और बाहर भी ठीक उसके सामने ही एक और ऐसा ही वृक्ष सड़क किनारे पर है। बाहर का वृक्ष भी यद्यपि सुन्दर था, किन्तु रास्ते पर होने से उसे काट दिया गया। अब वह वृक्ष एक ठूँठ ही बनकर रह गया है, जिस पर एक खोखला सा प्रवेश-द्वार दिखाई देता है!

कोरोना-काल की समाप्ति पर अब उस क्षेत्र में फिर से धीरे धीरे सब कुछ व्यवस्थित किया जाने लगा है।

जो उजड़े जो उखड़े,

सो उखड़े, सो उजड़े! 

--





February 13, 2023

मनुस्मृति / मनु की स्मृति

मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् 

-------------©-----------

दो दिन पहले इसी ब्लॉग में उपरोक्त शीर्षक से योग(दर्शन) के संक्षिप्त इतिहास के बारे में लिखा था। प्रसंगवश मनु महाराज का उल्लेख भी किया था। विदित हो कि मनु महाराज भगवान् श्रीराम, रघु और दिलीप के पूर्वज थे । रघुवंश क्षत्रिय वर्ण और  कुल है जिसकी उत्पत्ति भगवान् सूर्य से मानी जाती है। इन्हीं भगवान् सूर्य (विवस्वान्) को परमेश्वर ने सर्वप्रथम योगविद्या का (श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ४ और अध्याय ९) उपदेश दिया था। जैसे ऋषियों और ब्रह्मविद्या के उपासकों के लिए "साङ्ख्य" महत्वपूर्ण है, वैसे ही क्षत्रियों के लिए राज-विद्या अर्थात् राज-योग महत्वपूर्ण है, जो कि कर्म और संकल्प की शक्ति के द्वारा श्रेयस् की उपलब्धि करने का उपाय है। और इसलिए आज के समाचार पत्रों में जब यह भी पढ़ा कि जमीयत उलेमा-ए-हिन्द के तीन दिन चलनेवाले अधिवेशन के अंतिम दिवस पर जमीयत के अरशद गुट के प्रमुख मौलाना अरशद मदनी के द्वारा :

"अल्लाह" और "ओम्" एक है।"

कहे जाने से विवाद उत्पन्न हो गया, तो आश्चर्य नहीं हुआ।

किसी संप्रदाय-प्रमुख द्वारा ऐसे विवादास्पद वक्तव्य देना अपने आपमें दुर्भाग्यपूर्ण है। इससे न तो उनके संप्रदाय के, और न ही किसी भी दूसरे संप्रदाय के अनुयायी सहमत हो सकेंगे। 

(यहाँ "धर्म" के बजाय "संप्रदाय" शब्द का प्रयोग करना उचित जान पड़ता है क्योंकि सनातन धर्म मूलतः अहिंसा को ही परम धर्म मानता है -- और जो इससे भिन्न है उसे आवश्यक रूप से विधर्म या अधर्म ही कहा जाना चाहिए।)

यह भी उल्लेखनीय है कि वैदिक, संतमत, बौद्ध, जैन और सिख संप्रदाय के मतावलंबी भी अपने अपने धर्म को "सनातन धर्म" ही मानते हैं, भले ही वे ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास करते हों, या न भी करते हों। जबकि दूसरी ओर, अब्राहमिक परंपरा को मानने वाले तीनों ही संप्रदायों में "अहिंसा" के आदर्श यहाँ तक कि "अहिंसा" शब्द की अवधारणा तक नहीं पाई जाती। क्योंकि ये तीनों परंपराएँ मूलतः राजनीतिक विचारधाराएँ (political ideologies) हैं, और सनातन धर्म से यही इनका मौलिक भेद है। सनातन धर्म व्यक्ति और समष्टि का धर्म है, न कि किसी भी समूह विशेष की कोई वैचारिक / राजनीतिक महत्वाकांक्षा। इस दृष्टि से अब्राहमिक परंपरा और सनातन धर्म की तुलना ही नहीं की जा सकती है। 

संयोगवश आज 13 फरवरी 2023 को ही इन्दौर से प्रकाशित "नई दुनिया" समाचार-पत्र के सौजन्य से :

"कह के रहेंगे"

के अन्तर्गत यह देखा, जो इस संदर्भ में शायद प्रासंगिक और दिलचस्प हो :







February 12, 2023

मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्...

योग(दर्शन) का इतिहास

-------------©------------

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ४

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवान् अहम् अव्ययम्।।

विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।।

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।।

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।३।।

--

नारायणाथर्वशीर्षम् 

--

ॐ सह नाववतु।

सह नौ भुनक्तु।

सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।

ॐ अथ पुरुषो ह वै नारायणोऽकामयत प्रजाः सृजेयेति। नारायणात्प्राणो जायते मनः सर्वेन्द्रियाणि च।

खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी।

 नारायणाद्ब्रह्मा जायते।

नारायणाद्रुद्रो जायते।

नारायणादिन्द्रो जायते।

नारायणात्प्रजापतिः प्रजायतेः।

नारायणाद् द्वादशादित्या रुद्रा वसवः सर्वाणि छन्दांसि नारायणादेव समुत्पद्यन्ते।

नारायणात्प्रवर्तन्ते।

नारायणे प्रलीयन्ते।

एतद्-ऋग्वेद-शिरोऽधीते।।१।।

अथ नित्यो नारायणः।

ब्रह्मा नारायणः।

शिवश्च नारायणः।

शक्रश्च नारायणः।

कालश्च नारायणः।

दिशश्च नारायणः। 

विदिशश्च नारायणः।

ऊर्ध्वं च नारायणः।

अधश्च नारायणः।

√ नारायण एवेदं यद्भूतं यच्च भव्यम्। 

निष्कलङ्को निरञ्जनो निर्विकल्पो निराख्यातः शुद्धो देव एको नारायणो न द्वितीयोऽस्ति कश्चित्।

य एवं वेद स विष्णुरेव भवति स विष्णुरेव भवति।

एतद्यजुर्वेदशिरोऽधीते।।२।।

ओमित्यग्रे व्याहरेत्।

नम इति पश्चात्।

नारायणायेत्युपरिष्टात्।

ओमित्येकाक्षरम्।

नम इति द्वे अक्षरे।

नारायणायेति पञ्चाक्षराणि।

एतद्वै नारायणस्याष्टाक्षरं पदम्।

यो ह वै नारायणस्याष्टाक्षरं पदमध्येति।

अनपब्रुवः सर्वमायुरेति।

विन्दते प्राजापत्यं रायस्पोषं गौपत्यं ततोऽमृतत्वमश्नुते ततोऽमृतत्वमश्नुत इति।

एतत्सामवेदशिरोऽधीते।।३।।

प्रत्यगानन्दं ब्रह्मपुरुषं प्रणवस्वरूपम्। 

अकार उकार मकार इति। 

ता अनेकधा समभवत्तदेतदोमिति।

यमुक्त्वा मुच्यते योगी जन्मसंसारबन्धनात्।

ॐ नमो नारायणायेति मन्त्रोपासको वैकुण्ठभुवनं गमिष्यति।

तदिदं पुण्डरीकं विज्ञानघनं तस्मात्तडिदाभ्रमात्रम्।

ब्रह्मण्यो देवकीपुत्रो ब्रह्मण्यो मधुसूदनः।

ब्रह्मण्यो पुण्डरीकाक्षो ब्रह्मण्यो विष्णुरच्युत इति।

सर्वभूतस्थमेकं वै नारायणपुरुषमकारणं परं ब्रह्मोम्। 

एतदथर्वशिरोऽधीते।।४।।

फलश्रुतिः 

प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति। सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति। तत्सायं प्रातरधीयानः पापोऽपापो भवति। मध्यन्दिनमादित्याभिमुखोऽधीयानः पञ्चमहापातकोपपातकात्  प्रमुच्यते। सर्ववेदपारायणपुण्यं लभते। नारायणसायुज्यमवाप्नोति श्रीमन्नारायणसायुज्यमवाप्नोति य एवं वेद।। ५।।

इत्युपनिषद्।।

ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।। 

।।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।। 

--

इस प्रकार से, नारायणाथर्वशीर्षम् उपनिषद् में :

योग (दर्शन) का सम्पूर्ण इतिहास वर्णित किया गया है। 

स्वायंभुव मनु सृष्टि-संवत् के सातवें वर्तमान मनु हैं।

मुण्डकोपनिषद्, प्रथम मुण्डक (Head) --

प्रथम खण्ड --

ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव

विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।।

स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठा-

मथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह।।१।।

अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्मा-

थर्वा तां पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम्।।

स भारद्वाजाय सत्यवहाय

प्राह भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम्।।२।।

इस प्रकार सतयुग में ब्रह्मविद्या का वर्चस्व था और ऋषि ही इस विद्या के प्रणेता थे इसलिए उन्हें ब्राह्मण कहा गया। वंशानुक्रम और गोत्र के अनुसार क्रमशः चार वर्ण अस्तित्व में आए जिसका वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ४ के निम्न श्लोक में है :

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।।

तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।१३।।

"मां" पद का संबंध उसी "अहं" पद से है जिसका उल्लेख इसी अध्याय के पहले ही श्लोक में प्रारंभ में किया गया है।

महर्षि पतञ्जलि ने योगदर्शन का उद्घाटन किया, जबकि महर्षि कपिल ने साङ्ख्यदर्शन का। ये वैदिक षट्-दर्शन उपाय हैं और सभी एक दूसरे से स्वतन्त्र एवं अपने-आप में परिपूर्ण भी हैं। 

सतयुग के अन्त में साङ्ख्यदर्शन और योगदर्शन दोनों विलुप्त हो गए। त्रेतायुग में सूर्य आदित्य के वंश में क्षत्रिय वर्ण में मनु का प्रादुर्भाव हुआ, जिसमें भगवान् श्रीराम ने जन्म लिया। इन्हीं मनु महाराज को विवस्वान् (आदित्य) के द्वारा योग(दर्शन) का तत्त्व प्रदान किया गया। 

सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ।।

(सूर्याथर्वशीर्षम्)

इस प्रकार मनु महाराज को इस योग(दर्शन) की प्राप्ति अपने ही अन्तर्हृदय में हुई। उस अन्तर्हृदय अर्थात् ब्रह्मा ने अपने आपको दो प्रकारों में विभाजित किया -- मन (चेतना) और प्राण ।

मन ने ज्ञानशक्ति का, और प्राण ने कार्यशक्ति का रूप लिया।

मन और प्राण बुद्धि में परिणत हुए और बुद्धि के उद्भव के बाद  मनन और चिन्तन प्रारंभ हुआ। मनु मन है, बुद्धि शतरूपा।

सतयुग साङ्ख्य और ज्ञानप्रधान था, जबकि त्रेतायुग योग और कर्मप्रधान हुआ। द्वापरयुग में दोनों का ही समान रूप से वर्चस्व था। महाभारत युद्ध और कलियुग के प्रारंभ होने से पहले ही भगवान् श्रीकृष्ण का अवतार हुआ जिसका वर्णन ऊपर उद्धृत नारायणाथर्वशीर्षम् में है।

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।।

यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।१३।।

(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ८)

इसी का विस्तार है।

यह हुआ योग(दर्शन) का संक्षिप्त इतिहास।

***







February 11, 2023

समय की सृष्टि

बुद्धि  और काल / समय

--------------©-------------

किसी पोस्ट में मैंने वह कथा लिखी है कि किस प्रकार एक बार बुद्धि और काल के बीच विवाद हुआ। बुद्धि का नाम ही परिधि और काल का नाम क्षितिज था, जो दोनों ही भगवान्  वेदव्यास और उनकी पत्नी क्षिति की पुत्री और पुत्र थे। 

दोनों भाई-बहन के बीच हमेशा ही स्वयं को बड़ा साबित करने की होड़ होती रहती थी।

ऐसा ही एक प्रसंग था, जिसमें बुद्धि का दावा था कि वह काल से बड़ी है और उसके जन्म के बाद ही काल का जन्म हुआ था, जबकि काल का तर्क था कि बुद्धि का जन्म जिस समय हुआ, वह समय बुद्धि के जन्म से पहले भी था। दोनों अपना विवाद लेकर पिता के पास जा पहुँचे तब पिता ने कहा - बेटा, तुम दोनों जुड़वाँ भाई बहन हो, एक यम है दूसरा यमुना। यम अचल और अटल है, जबकि यमुना जगत्, रूपी यह प्रवाह है।

इसलिए समय की सृष्टि कब हुई, यह प्रश्न ही मूलतः भ्रामक है, और बुद्धि में ही इसका जन्म होता है, जबकि दूसरी ओर, यह भी सत्य है कि बुद्धि भी भिन्न भिन्न समय पर भिन्न भिन्न प्रकार से प्रकट और विलुप्त होती रहती है।

प्रख्यात भौतिकशास्त्री अलबर्ट आइनस्टाइन का भी यही मत था कि "समय" मनुष्य के मन या बुद्धि का विभ्रम मात्र है :

"Time Is Illusion."

इस प्रकार से जगत् की सृष्टि (रचना / Creation) का प्रश्न भी असंगत है, जिस समय को हम और भौतिकशास्त्री मानते और उस मान्यता के आधार पर मापते और उसका मूल्यांकन करते हैं, जिसे शास्त्रों में अनादि और अनन्त कहा जाता है, वह समय इस रूप में अनादि है कि कभी उसका आरंभ हुआ ही नहीं था, -न कि इस रूप में कि उसका आरंभ सुदूर और किसी अत्यन्त प्राचीन समय पर हुआ था। 

कल का पोस्ट लिखते समय उल्लिखित पोस्ट याद आया लेकिन वह कहाँ है, इसे खोजने का उत्साह न होने से खोज न सका।

समय के वैदिक, औपनिषदिक और पौराणिक वर्णन में समय /  काल के दो रूपों को स्वीकार किया जाता है जो नित्य, सनातन और शाश्वत तथा चिरंतन होते हुए भी अचल, अटल तथा सतत प्रवाहशील भी है। इसी विचार (थीम) पर ईशावास्योपनिषद् को इस दृष्टि से समझने और स्पष्ट करने का प्रयास मेरे :

"Thus Spake The Rishi"

ब्लॉग में मैंने किया है।

***


February 10, 2023

फ़ोर्ड का कार-नामा!

जस्ट / फॉर फ़न! Just for Jest!

-------------------©-----------------

जब उस कार-निर्माता ने पहली बार कार का निर्माण किया तो उसे इस स्थिति की कल्पना नहीं थी कि कुछ सड़कें कभी कभी ऐसे किसी मुक़ाम पर पहुँच जाती हैं जहाँ कोई मोड़ नहीं होता। और फिर उसे खयाल आया कि कार में एक रिवर्स-गीयर हो तो कार पीछे की दिशा में भी चल सकती है। फिर तब से कारों में रिवर्स गीयर की व्यवस्था की जाने लगी। टू-व्हीलर्स में तो शायद अभी भी ऐसी व्यवस्था नहीं होती, क्योंकि इसकी जरूरत ही नहीं है, और अगर कर भी दी जाए तो उससे टू व्हीलर को उसे ड्राइव करना मुश्किल ही हो जाएगा।

क्या फ़ोर्ड को इस हिसाब से शायद ईश्वर से अधिक बुद्धिमान कहा जा सकता है, क्योंकि ईश्वर ने जब (!) समय की सृष्टि की होगी, तब उसने यह कल्पना नहीं की होगी, कि समय के पीछे लौटाने के लिए भी कोई इंतजाम करना चाहिए! तब से समय बेहिसाब बेधड़क आगे ही आगे जा रहा है! अरे कोई तो रोको, कोई तो ऐसे किसी रिवर्स गीयर की खोज करो!

एक सवाल यह भी तो है कि क्या ईश्वर के द्वारा समय की सृष्टि किए जाने से पहले समय नहीं था! तब शायद नहीं था, क्योंकि 'पहले' शब्द का प्रयोग भी समय के अस्तित्व में आने के बाद ही और समय के ही सन्दर्भ में ही किया जाना संभव है!

***

बीते दिन

संकल्प, निश्चय और संशय
--
मार्च 17, 2016 को एकाएक ही यह स्पष्ट हो गया था, कि वह स्थान छोड़ना है ।
दूसरे दिन जब नल में पानी नहीं आया, तो मैं घबरा गया । किन्तु कहाँ शिफ्ट होना है यह समझ में नहीं रहा था । दूसरे दिन फोन आया - मेरे लिए नर्मदा किनारे एक एकॉमोडेशन  उपलब्ध है ।
"कब चलेंगे?"
मुझसे पूछा गया ।
"अभी तो शाम है, कल चल सकूँगा ।"
मार्च 19, 2016 को आयशर ट्रक ठीक 4 :00 बजे अपराह्न में मेरे घर पर आकर खड़ा था । घंटे भर में ख़ास सामान उस पर लादकर हम चल पड़े । रात्रि साढ़े आठ बजे नए एकॉमोडेशन  पर था। 
नर्मदा तट पर केवटग्राम में जिसका नाम वैसे तो नावघाट खेड़ी है, लेकिन मैंने उसे केवटग्राम नाम दिया है, नर्मदा नदी के दोनों किनारों पर बने दो गाँव हैं, --जिनमें से एक को खेड़ीघाट तथा दूसरे को नावघाट खेड़ी कहा जाता है।
नर्मदा तट पर ही 11 फ़रवरी वर्ष 1991 को कुछ समय करीब 6-7 माह के लिए जाना हुआ था। उस समय गर्मी अपने चरम पर थी। यहाँ भी यही स्थिति थी। जैसे 17 मार्च 2016 के दिन अचानक तय हुआ था कि यह स्थान छोड़ना है, उसी तरह 05 अगस्त 2016 तक केवटग्राम में रहते हुए तय हो गया था, यह स्थान छोड़ना है। 31 जुलाई 2016 के दिन बहुत से ऐसे कारण एकत्रित हो गए थे इसलिए मन बहुत उद्विग्न था। उन मित्र को फ़ोन कर बताया तो उन्होंने तुरन्त ही पास के एक हॉस्पीटल को फ़ोन कर एम्बुलेंस भिजवा दी। 05 अगस्त 2016 तक मुझे उस हॉस्पीटल में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
05 अगस्त 2016 से नवंबर 2019 तक उस स्थान पर मेरे रहने की व्यवस्था हो गई जहाँ मेरे वे मित्र रहते थे। नवंबर 2019 की किसी तारीख को यहाँ रहने आया। इस बीच अब तक कोरोना-काल के दौरान यहाँ रहा, और उसके बाद भी यहीं हूँ।
इस सब के बाद जो महत्वपूर्ण बात स्पष्ट हुई वह यह कि जीवन स्वयं ही हर किसी का भाग्य-विधाता होता है। जीवन का लक्ष्य क्या हो / है, इसे तय करना मनुष्य के वश में नहीं है, संकल्प का अर्थ है जीवन से युद्ध करना। सत्य की खोज, ईश्वर की प्राप्ति या आत्म-ज्ञान के लिए होनेवाली उत्कंठा को भी शायद संकल्प कहा जा सकता है, किन्तु यह प्रश्न तब भी अनुत्तरित रह जाता है कि क्या सत्य, आत्म-ज्ञान या ईश्वर हमसे बाहर की कोई ऐसी वस्तु है जो कहीं दूर, भविष्य में और अन्यत्र होती हो! संकल्प का सीधा अर्थ है : कोई लक्ष्य, आकांक्षा, जिसकी प्राप्ति के लिए किसी के द्वारा कोई प्रयत्न किया जाना आवश्यक होता है। किसी लक्ष्य का चुनाव जिसके द्वारा किया जाता है वह है बुद्धि या मन, जो सदैव ज्ञात की ही सीमा में किसी लक्ष्य की कल्पना कर सकता है। कल्पना, निश्चय, मन की गतिविधि है जो सत्य, आत्म-ज्ञान या ईश्वर के किसी रूप की कितनी भी परिपूर्ण कोई आदर्श प्रतिकृति रच भी ले, तो भी उसका साक्षात्कार हो सकने में बाधक ही होती है।
इसलिए जीवन जैसा भी है अद्भुत् है और उसका कोई लक्ष्य या उद्देश्य तय करना अपरिपक्वता का ही लक्षण है। सवाल केवल यही है कि क्या मन / बुद्धि इतने शान्त और सजग हो सकते हैं कि विचार की तरंग ही न उठे जिसे कि नियंत्रित किया जाए या 
जिसके उठने या न उठने से चित्त प्रभावित हो।
***

तपस्विनि!

कविता / 16-01-2022

---------------©-------------

करो तप, तपस्विनि!

मनीषा! मनस्विनि! 

जैसे सरिता कोई, 

नीर भरी, पयस्विनी!

क्षीण धारा सी प्रवाहित,

पथ कठोर, संकुचित, 

तोड़कर तटबन्ध बहती,

मृदु मञ्जुल शब्द करती, 

जलचर, नभचर तथा,

स्थलचर, जलथलचर,

तृषा सबकी ही बुझाती,

स्नेह-अमृत-वर्षा करती,

उपकार करती हर्षिणि!

***






तेरे स्कूल में!

क्या जिन्दगी कोई स्कूल है? 

---------------©---------------

न तो हम अनपढ़ ही रहे,

और न क़ाबिल ही हुए,

लगता है तेरे स्कूल में ऐ ज़िन्दगी!

हम तो ख़ामो-ख्वाह दाखिल हुए! 

--

व्हॉट्स ऐप पर कल यह संदेश पढ़ा तो थोड़ी सी हँसी भी आई,  थोड़ा सा दुःख भी हुआ। संदेश को पढ़ने से पहले ही मैंने इस पोस्ट को लिखना शुरू कर दिया था, और सोच रहा था कि मेरे पास लिखने के लिए कुछ नहीं है। कुछ लिखने के लिए जब तक कोई खास वजह नहीं महसूस होती, तब तक मेरा लिखने का मन ही नहीं होता। ऐसे ही डूडल (do-dull) करता रहता हूँ और कभी कभी कोई सार्थक चीज़ उभर आती है, या मुझे ऐसा लगता है। तब तक यह आधा अधूरा कुछ लिखा था :

जैसी कि नज़र आया करती है यह ज़िन्दगी,

या कि नज़र आती है, कोई उसकी तसवीर,

बदलना चाहते रहते हैं उस तसवीर को हम,

मगर क्या है ये ज़िंदगी यही कहाँ है मालूम!

क्या वक्त बदलता है या तसवीर बदलती है,

हालात बदलते हैं या कि तक़दीर बदलती है, 

वो कौन है, जिसको बदलाव पता चलता है,

वो भी, खुद भी क्या बदलाव में, बदलता है?

दुनिया भी बदल रही है, हम भी बदल रहे हैं,

हर रोज़ नाते रिश्ते, सब कुछ तो बदल रहे हैं,

ख्वाहिशें बदल रही हैं, ख़यालात बदल रहे हैं,

ज़रूरतें बदल रही हैं, अहसास बदल रहे हैं,

पसन्दगी बदल रही है, यक़ीन बदल रहे हैं,

वजहें बदल रही है, इरादे भी बदल रहे हैं,

और, इस बदलाव के पैमाने बदल रहे हैं! 

और मानेंं कि अगर वो भी बदल जाता है,

तो बदलने का सवाल ही कहाँ रह जाता है!

तो ज़िन्दगी क्या है, क्यों न जान लें पहले,

क्यों जाने बिना ही, कुछ भी मान लें पहले!

दिल के धड़कने का हमें, ये जो अहसास है,

ये जो महसूस होता है, ये जो आसपास है,

ये जो आम है, मगर फिर भी जो कि खास है,

जिन्दगी यही तो है, जो कि ये अपनी साँस है!

ज़िन्दगी का नाम एक और भी है, -कुदरत!

जो कि जिन्दगी भी है और एक है -ज़रूरत!

है ये हैरत, कि उसकी नहीं है तसवीर कोई,

और वही है ज़िन्दगी की सीरत, और -सूरत!

फिर बनाई ज़िन्दगी ने खुद ही खुद की तसवीर , 

और हरेक चीज़ ही हमशक्ल, नुमायाँ अपनी!

एक जैसी ही जिन्दा भी, और मुख्तलिफ़ भी!

जिसे हर शै ही, हर कोई 'अपनी' कहता है,

और जो सबमें ही मौजूद हुआ करती है!

हरेक चीज़ पैदा होती है और भरती है,

ज़िन्दगी, न पैदा होती है, न ही मरती है!

इस जिन्दगी को क्या वाक़ई हम जानते हैं!

या वैसे ही ये 'अपनी' है इसे हम मानते हैं!

तो जिन्दगी खुद ही है अपने इल्म अपना अलम,

जिन्दगी खुद ही है अपना निजाम और अमल,

जिन्दगी खुद ही तो है अपना इल्म और उसूल,

इसका कहाँ है कोई दूसरा, मदरसा या स्कूल!

जहाँ से कोई नहीं हो सकता है बेदखल कभी,

जहाँ कि हर कोई हमेशा से ही तो है ही दाखिल!

जहाँ न कोई है अनपढ़ और नहीं है नाक़ाबिल!

***





 









February 06, 2023

साँध्य तारा

पूरब में अभी सुनहरा चन्द्र उदित हुआ ही है।

पश्चिम में सूरज डूब कर शुक्र और शनि ग्रह लगभग उर्ध्वाधर में एक सरल रेखा में हैं।

अनुमान है कि नीचे शुक्र और ऊपर शनि है।

सूरज के अस्त होने के साथ स्टार वार के लिए साँध्य-आकाश का रंगमंच नए दृश्य के साथ आँखों के समक्ष है। 

शुक्र (शुक्रवार) उस परंपरा का प्रतीक है जो इस दिन को अपने ईश्वर की आराधना करने के लिए महत्वपूर्ण मानता है।

शनि (शनिवार) उस परंपरा का प्रतीक है जो इस दिन को अपने ईश्वर की आराधना करने के लिए महत्वपूर्ण मानता है। 

सूर्य (रविवार) उस परंपरा का प्रतीक है जो इस दिन को अपने ईश्वर की आराधना करने के लिए महत्वपूर्ण मानता है। 

रविवार बीत गया, आज सोमवार है।

चंद्र (सोमवार) उस परंपरा का प्रतीक है जो इस दिन से सप्ताह का प्रारंभ मानता है।

***





February 05, 2023

कालधर्म / समय की गति

नियति, धर्म और कर्म

-------------©-----------

यह पोस्ट कल लिखे पोस्ट के क्रम में प्रासंगिक है। 

भारतवर्ष में विदेशी आक्रान्ताओं का आगमन होने के बाद जो परिस्थितियाँ बनीं उनसे उर्दू भाषा अस्तित्व में आई। उर्दू लिपि का आविष्कार भी मूलतः फ़ारसी और अरबी भाषाओं की लिपि का ही, समय की आवश्यकता के अनुसार इरादतन किया गया तात्कालिक रूपान्तरण ही था, जिसे कि भारत की प्रजा पर उन विदेशी आक्रान्ताओं, शासकों द्वारा इसलिए थोपा गया था ताकि उन्हें भारत में अपना साम्राज्य, शासन और सत्ता स्थापित करने में, चलाने में और उसका विस्तार करने में सहायता मिल सके।

यही भारतवर्ष का भयंकर दुर्भाग्य और हमारा अपनी राष्ट्रीयता के प्रति सामूहिक प्रमाद भी था, जिसका दंश हमें अभी भी सता रहा है। इस्लाम-परस्त उस विदेशी शासन की सत्ता की समाप्ति होते होते भारत पर अंग्रेजों की सत्ता स्थापित हो गई, जो हमारी सांस्कृतिक अस्मिता पर और भी अधिक प्रबल कुठाराघात था। इस प्रकार की परिस्थितियों को समय की गति कहा जा सकता है, जिस पर हमारा अधिक वश नहीं था। इस संक्षिप्त इतिहास पर ध्यान देने से यही प्रतीत होता है, कि वैश्विक आधार पर भी काल (रूपी-देवता) का अपना अस्तित्व और धर्म है और मनुष्य उसकी शक्ति के सामने असहाय और दुर्बल है। इसीलिए आज हमें ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है, जो हमारे लिए कठिन चुनौतियाँ बन चुकी हैं। तमाम भाषाई प्रश्न भी इसी स्थिति का परिणाम हैं, जिन्हें केवल और केवल सूझ-बूझ से ही सुलझाया जा सकता है, राजनीति या राजनीतिक इच्छा-शक्ति के प्रयोग से नहीं।

***

February 04, 2023

अनुवाद और लिप्यन्तरण

एक सामयिक और ज्वलन्त प्रश्न

------------------©-----------------

पिछले 30 वर्षों से अपने अनुवाद-कार्य में मैंने अनुभव किया है कि विभिन्न भाषाएँ और उनकी लिपियाँ जिस भाषा-चेतना से प्रेरित और घनिष्ठतः संबद्ध होती हैं, उस भाषा-चेतना को हृदय से अनुभव कर लिए जाने पर भी एक भाषा से दूसरी भाषा में किया जानेवाला अनुवाद उतना सरस और स्वाभाविक नहीं हो सकता, जितना कि मूल भाषा में लिखी गई सामग्री हो सकती है। भारतीय भाषाओं की एक विशेषता यह है कि सभी भाषाएँ परस्पर अत्यन्त घनिष्ठता से जुड़ी होने से किसी भी एक भाषा से किसी भी दूसरी भाषा में किया जानेवाला अनुवाद लिपियों की भिन्नता / समानता / असमानता के बावजूद भी बहुत हद तक मूल भाषा में लिखी गई सामग्री का बहुत श्रेष्ठ भावानुवाद  भी हो सकता है। इसलिए हम देखते हैं कि गुजराती, असमिया, बांग्ला, मराठी, पंजाबी, ओड़िया और हिन्दी, सभी भाषाओं में लिखे गए साहित्य के विभिन्न अनुवाद इन सभी भाषाओं के पाठकों को समान रूप से प्रिय होते हैं और प्रभावित भी करते हैं। वे उस औसत भारतीय के जीवन को बहुत सुन्दर ढंग से प्रदर्शित करते हैं जिसकी मातृभाषा इनमें से कोई भी क्यों न हो। उत्तर भारत के संबंध में यह विशेष रूप से सत्य है। क्योंकि मूलतः सभी उस भारतीय संस्कृति के ही विभिन्न रूप हैं जो स्थान स्थान पर भिन्न भिन्न होते हुए भी एक ही दृढ अन्तर्सूत्र में पिरोई हुई मोतियों, या फूलों की माला की तरह है।

दक्षिण भारत का रुख करें तो हम देख सकते हैं कि मलयालम, तेलुगु और कन्नड भाषाएँ लिपि की दृष्टि से और रचना की दृष्टि से भी मराठी से बहुत समान हैं, जबकि तमिऴ ही एकमात्र ऐसी भाषा जान पड़ती है, जो इन सबसे हटकर कुछ अलग रंग रूप की प्रतीत होती है। मैं मानता हूँ कि अच्छी और शास्त्रीय तमिऴ सीखने के लिए वैसा ही धैर्य रखना होता है, जैसा कि शास्त्रीय संगीत या (वैदिक) संस्कृत सीखने के लिए आवश्यक हो सकता है। संगीत फिर चाहे उत्तर भारत का हो, या फिर दक्षिण भारत का हो। सांस्कृतिक और ऐतिहासिक कारणों से तमिऴ भाषा, जिसे सर्वाधिक प्राचीन भाषा माना जाता है, दक्षिण भारत की भाषाओं और उत्तर भारतीय भाषाओं के बीच सेतु की भूमिका की तरह भी कार्य कर सकती है। तमिऴ और संस्कृत भाषाओं के पारस्परिक और ऐतिहासिक संबंधों के बारे में विस्तार से मैंने अपने पुराने पोस्ट्स में लिखा है, उसकी पुनरावृत्ति करना यहाँ अनावश्यक जान पड़ता है। मंतव्य यह है कि समस्त भारतीय भाषाओं और उनकी लिपियों के बीच एक गहरा, स्वाभाविक सामन्जस्य है और वही सामञ्जस्य हिन्दी भाषा को उन विभिन्न भाषाओं से जोड़ता भी है ही। सांस्कृतिक दृष्टि से इसलिए एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करना सरल और रोचक भी हो सकता है, चाहे लिप्यन्तरण के माध्यम से किया जाए, या बिना लिप्यन्तरण किए ही किया जाए। प्रचलित बोली और लिखी जानेवाली तमिऴ के साथ एक कठिनाई यह है कि तमिऴ लिपि में लिखे गए किसी एक ही व्यञ्जन का उच्चारण किसी दूसरे ध्वनिसाम्य वर्ण की तरह भी किया जा सकता है जैसे :

க का प्रयोग क, ख, ग और घ के लिए, 

ச का प्रयोग च, छ, ज और झ के लिए, 

த का प्रयोग त, थ, द तथा ध के लिए, और 

ப का प्रयोग प, फ, ब तथा भ के लिए किया जाता है, इसलिए इस भाषा को पढ़कर सीखना तब तक असंभव ही है जब तक कि इन ध्वनिसाम्य वर्णों का उच्चारण सुनकर नहीं सीखा जाता। यही तमिऴ भाषा की शक्ति भी है, और कठिनाई भी।

किसी हद तक यही समस्या फारसी लिपि में लिखी गई सिन्धी,  उर्दू, और कश्मीरी भाषाओं के संबंध में भी है। तमिऴ भाषा के बारे में इस पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है कि इसकी लिपि का देवनागरी से लिपिसाम्य वैसा ही स्पष्ट है जैसा कि भारत की अन्य भाषाओं का लिपिसाम्य देवनागरी लिपि से है। दूसरी ओर, उर्दू, काश्मीरी और सिन्धी आदि भाषाओं को फ़ारसी में लिखे जाने के कारण उनकी लिपि की देवनागरी लिपि से दूर दूर तक कोई समानता नहीं है। इसलिए उर्दू, काश्मीरी, सिन्धी भाषाओं और हिन्दी को भी फ़ारसी लिपि में लिखा जाना भयंकर दुर्भाग्य ही है / था, जिसके कारण ये भाषाएँ समय के साथ इस प्रकार से बदलती चली गईं कि अब विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच बहुत दूरी पैदा हो गई है।

जब मैंने इस बारे में पढ़ा कि किसी के द्वारा रामचरितमानस का  उर्दू में अनुवाद किया जा रहा है, तो मुझे इस पोस्ट को लिखने की जरूरत महसूस हुई। इस प्रकार का अनुवाद करने के पीछे कोई प्रबल प्रेरणा भी अवश्य ही होगी यह भी सच हो सकता है, किन्तु यह कार्य कितना कठिन और कितना श्रमसाध्य है इसे तो इस कार्य को करनेवाला ही अधिक अच्छी तरह जान सकता है। दूसरी ओर, यह भी मानना होगा कि न तो संस्कृत पर हिन्दुओं का एकाधिकार है, और न ही उर्दू, अरबी, या फ़ारसी आदि पर  मुसलमानों या इस्लाम के मतावलंबियों का ही कोई एकाधिकार हो सकता है। और यह भी गले न उतरनेवाला ही एक कटु सत्य है कि रामचरितमानस या ऐसे किसी अन्य धार्मिक ग्रन्थ का उर्दू में अनुवाद किए जाने पर समाज के एक बड़े वर्ग को आपत्ति होगी। और यह आपत्ति उठानेवालों में हिन्दुओं और मुसलमान मतावलंबियों दोनों ही वर्गों के लोग होंगे। 

संभवतः इसका एक बेहतर तरीका यह भी हो सकता है कि इस प्रकार के धर्म-विशेष के ग्रन्थों को अरबी, फ़ारसी या नस्तालीक लिपि में यथावत् लिखा जाए। हालाँकि मुझे नहीं लगता, कि यह कार्य भी सरल होगा।

विभिन्न मतावलंबियों की धार्मिक मान्यताओं के बीच पारस्परिक मतभेद भी ऐसे कार्य में एक बड़ा अवरोध हो सकता है, इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता।

यह एक प्रासंगिक, महत्वपूर्ण प्रश्न हो सकता है, किन्तु कुछ भी कह पाने के लिए मैं स्वयं को असमर्थ अनुभव कर रहा हूँ !

***

 


February 02, 2023

सुबह की तरह!

और एक कविता कल के लिए!

----------------©------------------


 

शाम की तरह

कविता / 02022023

---------------©------------



आज की कविता / 02022022

जीवन का यह नृत्य

-------------©-----------

वैसे तो साल भर पहले लिख था, इस कविता को, परन्तु

आज 02-02-2023 के दिन यहाँ प्रस्तुत है। 

~~

नृत्य उमगता है,  -गीत से, 

गीत उमड़ता है, -संगीत से,

संगीत उभरता है, -प्रीत से,

प्रीत उमगती है, -मीत से!

***