पाकिस्तान के बहाने से
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कल सुबह एक कविता / आलेख पाकिस्तान के (और भारत के भी) दुर्भाग्य पर लिखा था। सतही दृष्टि से तो यह लग सकता है कि यह पाकिस्तान के भविष्य की चिन्ता से प्रेरित था, किन्तु फिर इस पर ध्यान गया कि पाकिस्तान में फौज ने जिस प्रकार धर्म / मजहब की आड़ में देश पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया उसके दुष्परिणामों की क़ीमत ही उसे चुकाना पड़ रही है। अगर :
"मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना" और
"परहित सरस धरम नहिं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई।।"
की दृष्टि से देखें तो धर्म और हिंसा के गठजोड़ की राजनीतिक साजिश ही इस सारे अनिष्ट का मूल कारण है, यह समझ पाना कठिन नहीं होगा। किन्तु राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से मोहित व्यक्तियों ने हिंसा के सहारे बलपूर्वक जब उनके तथाकथित "धर्म" को दूसरों पर थोपने का कुटिल यत्न शुरू किया तो इससे कुछ नई परंपराएँ स्थापित हुईं, जिनसे मनुष्य की पीड़ा में वृद्धि ही हुई।
अगर पाकिस्तान के बनते ही फौज को अनावश्यक व्यर्थ बोझ समझ लिया जाता तो पाकिस्तान आज की बदहाली तक नहीं पहुँचा होता। उसे तो किसी पड़ोसी से कोई ख़तरा भी नहीं था, जिससे कि सुरक्षा करने के लिए फौज को बनाए रखना ज़रूरी होता, जैसी भारत की स्थिति थी, और भारत की ऐतिहासिक परंपरा भी रही है, भारत ने कभी किसी देश पर आक्रमण नहीं किया, और अपनी इस नीति और नैतिकता से केवल प्रमाद के ही कारण भारत चीन के कुटिल इरादों को भी नहीं भाँप पाया। यह तो इतिहासकार ही ठीक ठीक से बतला सकते हैं कि किस मज़बूरी से भारत ने ऐसा किया होगा। चीन में सम्राट का तख्ता पलटने के बाद सी पी सी और पी एल ए ने चीन के बाहर के भी स्थानों पर अधिकार स्थापित कर उन्हें अपने शासन के नियंत्रण में लाने का सतत प्रयास किया, जो कि आज भी चल ही रहा है। चीन तो घोषित रूप से भी "धर्म" का शत्रु है। कम्यूनिस्ट आदर्श भी हिंसा के साधन का दुरुपयोग करने में हिचकिचाते नहीं है। तात्पर्य यही कि यह सब अधमता ही है, न कि धर्म। पाकिस्तान की स्थिति पर सोचते हुए इस पर ध्यान गया, कि किस प्रकार फौज ने धर्म के माध्यम से या बिना उसका सहारा लिए भी धृष्टता और बलपूर्वक दुनिया भर में ही सर्वत्र ही अपना वर्चस्व स्थापित कर सत्ता की शक्ति को एकत्र कर लिया। इसी विचार से प्रेरित होकर आज की कविता अस्तित्व में आई।
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