February 04, 2023

अनुवाद और लिप्यन्तरण

एक सामयिक और ज्वलन्त प्रश्न

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पिछले 30 वर्षों से अपने अनुवाद-कार्य में मैंने अनुभव किया है कि विभिन्न भाषाएँ और उनकी लिपियाँ जिस भाषा-चेतना से प्रेरित और घनिष्ठतः संबद्ध होती हैं, उस भाषा-चेतना को हृदय से अनुभव कर लिए जाने पर भी एक भाषा से दूसरी भाषा में किया जानेवाला अनुवाद उतना सरस और स्वाभाविक नहीं हो सकता, जितना कि मूल भाषा में लिखी गई सामग्री हो सकती है। भारतीय भाषाओं की एक विशेषता यह है कि सभी भाषाएँ परस्पर अत्यन्त घनिष्ठता से जुड़ी होने से किसी भी एक भाषा से किसी भी दूसरी भाषा में किया जानेवाला अनुवाद लिपियों की भिन्नता / समानता / असमानता के बावजूद भी बहुत हद तक मूल भाषा में लिखी गई सामग्री का बहुत श्रेष्ठ भावानुवाद  भी हो सकता है। इसलिए हम देखते हैं कि गुजराती, असमिया, बांग्ला, मराठी, पंजाबी, ओड़िया और हिन्दी, सभी भाषाओं में लिखे गए साहित्य के विभिन्न अनुवाद इन सभी भाषाओं के पाठकों को समान रूप से प्रिय होते हैं और प्रभावित भी करते हैं। वे उस औसत भारतीय के जीवन को बहुत सुन्दर ढंग से प्रदर्शित करते हैं जिसकी मातृभाषा इनमें से कोई भी क्यों न हो। उत्तर भारत के संबंध में यह विशेष रूप से सत्य है। क्योंकि मूलतः सभी उस भारतीय संस्कृति के ही विभिन्न रूप हैं जो स्थान स्थान पर भिन्न भिन्न होते हुए भी एक ही दृढ अन्तर्सूत्र में पिरोई हुई मोतियों, या फूलों की माला की तरह है।

दक्षिण भारत का रुख करें तो हम देख सकते हैं कि मलयालम, तेलुगु और कन्नड भाषाएँ लिपि की दृष्टि से और रचना की दृष्टि से भी मराठी से बहुत समान हैं, जबकि तमिऴ ही एकमात्र ऐसी भाषा जान पड़ती है, जो इन सबसे हटकर कुछ अलग रंग रूप की प्रतीत होती है। मैं मानता हूँ कि अच्छी और शास्त्रीय तमिऴ सीखने के लिए वैसा ही धैर्य रखना होता है, जैसा कि शास्त्रीय संगीत या (वैदिक) संस्कृत सीखने के लिए आवश्यक हो सकता है। संगीत फिर चाहे उत्तर भारत का हो, या फिर दक्षिण भारत का हो। सांस्कृतिक और ऐतिहासिक कारणों से तमिऴ भाषा, जिसे सर्वाधिक प्राचीन भाषा माना जाता है, दक्षिण भारत की भाषाओं और उत्तर भारतीय भाषाओं के बीच सेतु की भूमिका की तरह भी कार्य कर सकती है। तमिऴ और संस्कृत भाषाओं के पारस्परिक और ऐतिहासिक संबंधों के बारे में विस्तार से मैंने अपने पुराने पोस्ट्स में लिखा है, उसकी पुनरावृत्ति करना यहाँ अनावश्यक जान पड़ता है। मंतव्य यह है कि समस्त भारतीय भाषाओं और उनकी लिपियों के बीच एक गहरा, स्वाभाविक सामन्जस्य है और वही सामञ्जस्य हिन्दी भाषा को उन विभिन्न भाषाओं से जोड़ता भी है ही। सांस्कृतिक दृष्टि से इसलिए एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करना सरल और रोचक भी हो सकता है, चाहे लिप्यन्तरण के माध्यम से किया जाए, या बिना लिप्यन्तरण किए ही किया जाए। प्रचलित बोली और लिखी जानेवाली तमिऴ के साथ एक कठिनाई यह है कि तमिऴ लिपि में लिखे गए किसी एक ही व्यञ्जन का उच्चारण किसी दूसरे ध्वनिसाम्य वर्ण की तरह भी किया जा सकता है जैसे :

க का प्रयोग क, ख, ग और घ के लिए, 

ச का प्रयोग च, छ, ज और झ के लिए, 

த का प्रयोग त, थ, द तथा ध के लिए, और 

ப का प्रयोग प, फ, ब तथा भ के लिए किया जाता है, इसलिए इस भाषा को पढ़कर सीखना तब तक असंभव ही है जब तक कि इन ध्वनिसाम्य वर्णों का उच्चारण सुनकर नहीं सीखा जाता। यही तमिऴ भाषा की शक्ति भी है, और कठिनाई भी।

किसी हद तक यही समस्या फारसी लिपि में लिखी गई सिन्धी,  उर्दू, और कश्मीरी भाषाओं के संबंध में भी है। तमिऴ भाषा के बारे में इस पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है कि इसकी लिपि का देवनागरी से लिपिसाम्य वैसा ही स्पष्ट है जैसा कि भारत की अन्य भाषाओं का लिपिसाम्य देवनागरी लिपि से है। दूसरी ओर, उर्दू, काश्मीरी और सिन्धी आदि भाषाओं को फ़ारसी में लिखे जाने के कारण उनकी लिपि की देवनागरी लिपि से दूर दूर तक कोई समानता नहीं है। इसलिए उर्दू, काश्मीरी, सिन्धी भाषाओं और हिन्दी को भी फ़ारसी लिपि में लिखा जाना भयंकर दुर्भाग्य ही है / था, जिसके कारण ये भाषाएँ समय के साथ इस प्रकार से बदलती चली गईं कि अब विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच बहुत दूरी पैदा हो गई है।

जब मैंने इस बारे में पढ़ा कि किसी के द्वारा रामचरितमानस का  उर्दू में अनुवाद किया जा रहा है, तो मुझे इस पोस्ट को लिखने की जरूरत महसूस हुई। इस प्रकार का अनुवाद करने के पीछे कोई प्रबल प्रेरणा भी अवश्य ही होगी यह भी सच हो सकता है, किन्तु यह कार्य कितना कठिन और कितना श्रमसाध्य है इसे तो इस कार्य को करनेवाला ही अधिक अच्छी तरह जान सकता है। दूसरी ओर, यह भी मानना होगा कि न तो संस्कृत पर हिन्दुओं का एकाधिकार है, और न ही उर्दू, अरबी, या फ़ारसी आदि पर  मुसलमानों या इस्लाम के मतावलंबियों का ही कोई एकाधिकार हो सकता है। और यह भी गले न उतरनेवाला ही एक कटु सत्य है कि रामचरितमानस या ऐसे किसी अन्य धार्मिक ग्रन्थ का उर्दू में अनुवाद किए जाने पर समाज के एक बड़े वर्ग को आपत्ति होगी। और यह आपत्ति उठानेवालों में हिन्दुओं और मुसलमान मतावलंबियों दोनों ही वर्गों के लोग होंगे। 

संभवतः इसका एक बेहतर तरीका यह भी हो सकता है कि इस प्रकार के धर्म-विशेष के ग्रन्थों को अरबी, फ़ारसी या नस्तालीक लिपि में यथावत् लिखा जाए। हालाँकि मुझे नहीं लगता, कि यह कार्य भी सरल होगा।

विभिन्न मतावलंबियों की धार्मिक मान्यताओं के बीच पारस्परिक मतभेद भी ऐसे कार्य में एक बड़ा अवरोध हो सकता है, इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता।

यह एक प्रासंगिक, महत्वपूर्ण प्रश्न हो सकता है, किन्तु कुछ भी कह पाने के लिए मैं स्वयं को असमर्थ अनुभव कर रहा हूँ !

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