देर आयद दुरुस्त आयद!
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दबी ज़ुबाँ से ही सही, वो अब कहने लगे हैं,
शर्म आती है मगर आज ये कहना होगा!
आपसे रूठ के हम जितना जिए ख़ाक जिए!
कई इलज़ाम लिए और कई इलज़ाम दिए!
आज करते हैं मगर, इसरार, हमें करना होगा,
शर्म आती है मगर आज ये कहना होगा!
आप से टूट के हम ऐसे टूटे कि घुटते ही गये,
ज़िद पे अड़ के हम अपने आपमें टूटते ही गये,
इंशा अल्ला आख़िर को समझ में आया है हमें,
आपके साये में ही हमसाया बन के रहना होगा!
शर्म आती है मगर आज ये कहना होगा!
आ पहुँचे हैं इस मुक़ाम पर हम फौज ही के बूते,
जहाँ से निकलने की कोई सूरत नज़र नहीं आती,
काश हम समझ लें, बदनीयती फौज की अपनी,
तो न हमें ज़िल्लत को, मुसीबत को सहना होगा!
शर्म आती है मगर आज ये कहना होगा!
फौज ही ने तो बनाया था मजहब को औजार,
फौज ने ही तो कर दिया था वतन को बेज़ार!
पाक मज़हब* को कर दिया था धरम से जुदा,
अब से हमें अपने ईमानो धरम में ही रहना होगा!
शर्म आती है मगर आज ये कहना होगा।
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दबी ज़ुबान से ही सही पाकिस्तान के लिए आज इस सच्चाई को स्वीकार करना जरूरी हो गया है कि उसकी इस बदहाली, बुरी हालत के लिए न तो मज़हब और न सियासत ही उस हद तक उतनी ज़िम्मेवार है जितनी कि फौज, जिसने मज़हब का ग़लत इस्तेमाल कर आम लोगों को गुमराह किया और इसीलिए आज भी पाकिस्तान की आम जनता की बोलने की आजादी की साँसें फौज के बूटों तले घुट रही हैं। और अब शायद कोई चमत्कार ही पाकिस्तान को उसकी इस बीमारी से (फौज से) निजात दिला सकता है। पाकिस्तान को, सचमुच ही, क्या फौज रखने की जरूरत कभी थी? क्या बांग्लादेश के पाकिस्तान से अलग होने और पाकिस्तान के टूटने के लिए फौज ही ज़िम्मेवार नहीं थी?
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