February 12, 2023

मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्...

योग(दर्शन) का इतिहास

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ४

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवान् अहम् अव्ययम्।।

विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।।

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।।

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।३।।

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नारायणाथर्वशीर्षम् 

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ॐ सह नाववतु।

सह नौ भुनक्तु।

सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।

ॐ अथ पुरुषो ह वै नारायणोऽकामयत प्रजाः सृजेयेति। नारायणात्प्राणो जायते मनः सर्वेन्द्रियाणि च।

खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी।

 नारायणाद्ब्रह्मा जायते।

नारायणाद्रुद्रो जायते।

नारायणादिन्द्रो जायते।

नारायणात्प्रजापतिः प्रजायतेः।

नारायणाद् द्वादशादित्या रुद्रा वसवः सर्वाणि छन्दांसि नारायणादेव समुत्पद्यन्ते।

नारायणात्प्रवर्तन्ते।

नारायणे प्रलीयन्ते।

एतद्-ऋग्वेद-शिरोऽधीते।।१।।

अथ नित्यो नारायणः।

ब्रह्मा नारायणः।

शिवश्च नारायणः।

शक्रश्च नारायणः।

कालश्च नारायणः।

दिशश्च नारायणः। 

विदिशश्च नारायणः।

ऊर्ध्वं च नारायणः।

अधश्च नारायणः।

√ नारायण एवेदं यद्भूतं यच्च भव्यम्। 

निष्कलङ्को निरञ्जनो निर्विकल्पो निराख्यातः शुद्धो देव एको नारायणो न द्वितीयोऽस्ति कश्चित्।

य एवं वेद स विष्णुरेव भवति स विष्णुरेव भवति।

एतद्यजुर्वेदशिरोऽधीते।।२।।

ओमित्यग्रे व्याहरेत्।

नम इति पश्चात्।

नारायणायेत्युपरिष्टात्।

ओमित्येकाक्षरम्।

नम इति द्वे अक्षरे।

नारायणायेति पञ्चाक्षराणि।

एतद्वै नारायणस्याष्टाक्षरं पदम्।

यो ह वै नारायणस्याष्टाक्षरं पदमध्येति।

अनपब्रुवः सर्वमायुरेति।

विन्दते प्राजापत्यं रायस्पोषं गौपत्यं ततोऽमृतत्वमश्नुते ततोऽमृतत्वमश्नुत इति।

एतत्सामवेदशिरोऽधीते।।३।।

प्रत्यगानन्दं ब्रह्मपुरुषं प्रणवस्वरूपम्। 

अकार उकार मकार इति। 

ता अनेकधा समभवत्तदेतदोमिति।

यमुक्त्वा मुच्यते योगी जन्मसंसारबन्धनात्।

ॐ नमो नारायणायेति मन्त्रोपासको वैकुण्ठभुवनं गमिष्यति।

तदिदं पुण्डरीकं विज्ञानघनं तस्मात्तडिदाभ्रमात्रम्।

ब्रह्मण्यो देवकीपुत्रो ब्रह्मण्यो मधुसूदनः।

ब्रह्मण्यो पुण्डरीकाक्षो ब्रह्मण्यो विष्णुरच्युत इति।

सर्वभूतस्थमेकं वै नारायणपुरुषमकारणं परं ब्रह्मोम्। 

एतदथर्वशिरोऽधीते।।४।।

फलश्रुतिः 

प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति। सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति। तत्सायं प्रातरधीयानः पापोऽपापो भवति। मध्यन्दिनमादित्याभिमुखोऽधीयानः पञ्चमहापातकोपपातकात्  प्रमुच्यते। सर्ववेदपारायणपुण्यं लभते। नारायणसायुज्यमवाप्नोति श्रीमन्नारायणसायुज्यमवाप्नोति य एवं वेद।। ५।।

इत्युपनिषद्।।

ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।। 

।।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।। 

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इस प्रकार से, नारायणाथर्वशीर्षम् उपनिषद् में :

योग (दर्शन) का सम्पूर्ण इतिहास वर्णित किया गया है। 

स्वायंभुव मनु सृष्टि-संवत् के सातवें वर्तमान मनु हैं।

मुण्डकोपनिषद्, प्रथम मुण्डक (Head) --

प्रथम खण्ड --

ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव

विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।।

स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठा-

मथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह।।१।।

अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्मा-

थर्वा तां पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम्।।

स भारद्वाजाय सत्यवहाय

प्राह भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम्।।२।।

इस प्रकार सतयुग में ब्रह्मविद्या का वर्चस्व था और ऋषि ही इस विद्या के प्रणेता थे इसलिए उन्हें ब्राह्मण कहा गया। वंशानुक्रम और गोत्र के अनुसार क्रमशः चार वर्ण अस्तित्व में आए जिसका वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ४ के निम्न श्लोक में है :

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।।

तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।१३।।

"मां" पद का संबंध उसी "अहं" पद से है जिसका उल्लेख इसी अध्याय के पहले ही श्लोक में प्रारंभ में किया गया है।

महर्षि पतञ्जलि ने योगदर्शन का उद्घाटन किया, जबकि महर्षि कपिल ने साङ्ख्यदर्शन का। ये वैदिक षट्-दर्शन उपाय हैं और सभी एक दूसरे से स्वतन्त्र एवं अपने-आप में परिपूर्ण भी हैं। 

सतयुग के अन्त में साङ्ख्यदर्शन और योगदर्शन दोनों विलुप्त हो गए। त्रेतायुग में सूर्य आदित्य के वंश में क्षत्रिय वर्ण में मनु का प्रादुर्भाव हुआ, जिसमें भगवान् श्रीराम ने जन्म लिया। इन्हीं मनु महाराज को विवस्वान् (आदित्य) के द्वारा योग(दर्शन) का तत्त्व प्रदान किया गया। 

सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ।।

(सूर्याथर्वशीर्षम्)

इस प्रकार मनु महाराज को इस योग(दर्शन) की प्राप्ति अपने ही अन्तर्हृदय में हुई। उस अन्तर्हृदय अर्थात् ब्रह्मा ने अपने आपको दो प्रकारों में विभाजित किया -- मन (चेतना) और प्राण ।

मन ने ज्ञानशक्ति का, और प्राण ने कार्यशक्ति का रूप लिया।

मन और प्राण बुद्धि में परिणत हुए और बुद्धि के उद्भव के बाद  मनन और चिन्तन प्रारंभ हुआ। मनु मन है, बुद्धि शतरूपा।

सतयुग साङ्ख्य और ज्ञानप्रधान था, जबकि त्रेतायुग योग और कर्मप्रधान हुआ। द्वापरयुग में दोनों का ही समान रूप से वर्चस्व था। महाभारत युद्ध और कलियुग के प्रारंभ होने से पहले ही भगवान् श्रीकृष्ण का अवतार हुआ जिसका वर्णन ऊपर उद्धृत नारायणाथर्वशीर्षम् में है।

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।।

यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।१३।।

(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ८)

इसी का विस्तार है।

यह हुआ योग(दर्शन) का संक्षिप्त इतिहास।

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