नियति, धर्म और कर्म
-------------©-----------
यह पोस्ट कल लिखे पोस्ट के क्रम में प्रासंगिक है।
भारतवर्ष में विदेशी आक्रान्ताओं का आगमन होने के बाद जो परिस्थितियाँ बनीं उनसे उर्दू भाषा अस्तित्व में आई। उर्दू लिपि का आविष्कार भी मूलतः फ़ारसी और अरबी भाषाओं की लिपि का ही, समय की आवश्यकता के अनुसार इरादतन किया गया तात्कालिक रूपान्तरण ही था, जिसे कि भारत की प्रजा पर उन विदेशी आक्रान्ताओं, शासकों द्वारा इसलिए थोपा गया था ताकि उन्हें भारत में अपना साम्राज्य, शासन और सत्ता स्थापित करने में, चलाने में और उसका विस्तार करने में सहायता मिल सके।
यही भारतवर्ष का भयंकर दुर्भाग्य और हमारा अपनी राष्ट्रीयता के प्रति सामूहिक प्रमाद भी था, जिसका दंश हमें अभी भी सता रहा है। इस्लाम-परस्त उस विदेशी शासन की सत्ता की समाप्ति होते होते भारत पर अंग्रेजों की सत्ता स्थापित हो गई, जो हमारी सांस्कृतिक अस्मिता पर और भी अधिक प्रबल कुठाराघात था। इस प्रकार की परिस्थितियों को समय की गति कहा जा सकता है, जिस पर हमारा अधिक वश नहीं था। इस संक्षिप्त इतिहास पर ध्यान देने से यही प्रतीत होता है, कि वैश्विक आधार पर भी काल (रूपी-देवता) का अपना अस्तित्व और धर्म है और मनुष्य उसकी शक्ति के सामने असहाय और दुर्बल है। इसीलिए आज हमें ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है, जो हमारे लिए कठिन चुनौतियाँ बन चुकी हैं। तमाम भाषाई प्रश्न भी इसी स्थिति का परिणाम हैं, जिन्हें केवल और केवल सूझ-बूझ से ही सुलझाया जा सकता है, राजनीति या राजनीतिक इच्छा-शक्ति के प्रयोग से नहीं।
***
No comments:
Post a Comment