December 29, 2021

"डि-कपल्ड"

De-Coupled.

एक विवेचना 

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अभी कुछ दिनों पहले ही इस बारे में पढ़ा था कि कैसे किसी 'प्रेयर-रूम' (प्रेरय-रूम) में वह व्यक्ति अपनी पीठ के दर्द की चिन्ता में स्ट्रेचिंग की कोशिश करता है और जब उसे बताया जाता है कि यहाँ वह 'प्रेयर' तो कर सकता है, किन्तु शारीरिक व्यायाम नहीं कर सकता है, तो वह अपनी प्रेयर को गायत्री-मन्त्र से सिंक्रोनाइज़ कर लेता है और आराम से परिस्थितियों को अपने पक्ष में कर लेता है।

इस बारे में इतना ही पढ़ा था । यह भी पता चला कि उस कथा से प्रसिद्ध लेखक चेतन भगत का भी कोई संबंध है।

जो भी हो, यह समझना आवश्यक है कि समय रहते ही देश की संस्कृति, राजनीति और रीति-रिवाजों को विदेशी प्रभावों से पूरी तरह 'डि-कपल' कर लिया जाना ही एकमात्र उपाय है जिससे कि समूचा विश्व और सभी सुखी हो सकते हैं।

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December 27, 2021

आर्य-अनार्य

IIT Kharagpur द्वारा प्रस्तुत 2022 के कैलेन्डर में आर्य अनार्य के सन्दर्भ में  :

Arya Invasion Theory

की प्रामाणिकता पर प्रश्न उठाया गया है ।

आश्चर्य इस बात का है कि आर्य शब्द को जाति का अर्थ देकर जिस प्रकार से विद्वेषपूर्वक इस सिद्धान्त को गढ़ा गया है वह स्वयं ही मूलतः त्रुटिपूर्ण है।

संस्कृत भाषा में आर्य शब्द का तात्पर्य होता है : 

Noble, चरित्रवान् , परिष्कृत, सुसंस्कृत,

और अनार्य का अर्थ होता है :

Savage, बर्बर, अपरिष्कृत, असंस्कृत,

उदाहरण के लिए गीता के अध्याय २ के इस श्लोक को देखें :

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।।

अनार्यजुष्टमस्वर्गयमकीर्तिकरमर्जुन ।।२।।

इसी प्रकार बौद्ध ग्रन्थों में भी आर्य का तात्पर्य श्रेष्ठ चरित्र और गुणवाला है। 

मेरे किसी अन्य पोस्ट में इसका भी उदाहरण दिया गया है।

तात्पर्य यह, कि आर्य कोई जाति (Race) नहीं बल्कि चरित्रगत श्रेष्ठता का पर्याय है। 

स्पष्ट है कि,

आर्य इनवेज़न थ्योरी

(Arya Invasion Theory)

विदेशी इतिहासकारों द्वारा जानबूझ कर, विद्वेषपूर्वक, इरादतन रचा गया सिद्धान्त / षड्यन्त्र, है जो मूलतः भ्रामक है।

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December 26, 2021

यह क्रिसमस ट्री!

कविता : 26-12-2021

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यह क्रिसमस, यह क्रिसमस ट्री 🎄 

यह सान्ता क्लॉस, यह हिस्ट्री,

बचपन से सुनता आया हूँ,

पर पता न थी इसकी मिस्ट्री!

यह स्लेज ये उसके रैनडीयर,

मोजों में सुबह जो मिलते थे,

स्वीट्स, गिफ्ट्स, खिलौने वे,

मन सपनों में डूबा रहता था,

सपनों में ही सो जाता था, 

फिर जैसे-जैसे बड़ा हुआ, 

सोचा, कौन है सान्ता क्लॉस,

इस सोच में ना सपने आते,

और न नींद आ पाती थी।

कुछ ऐसी ही उधेड़बुन में, 

रात मेरी कट जाती थी! 

इस क्रिसमस हुआ ऐसा, 

डैडी जब सपने में आए,

अधनींदी आँखों से देखे,

जैसे सान्ता के हों साए,

तकिए के नीचे मोजों में,

गिफ्ट रखे, फिर चले गए,

फिर नींद आई, मैं भूल गया, 

जागा, तो सपने याद आए!

सोचा यह भी था सपना ही,

कहाँ रहे, उनके साए! 

वे तो बरसों पहले ही, 

हमें छोड़कर चले गए,

पैराडाइज में होंगे अब,

वहीं से शायद थे आए!

पर जब तक थे साथ मेरे, 

कभी न यूँ नजर आए!

हाँ, सान्ता क्लॉस वही तो थे, 

आज अचानक याद आया!

लेकिन थे तब, न जान सका,

ऐसे भी सान्ता होते हैं,

दे जाते हैं तब गिफ्ट हमें, 

जब हम सोए होते हैं!

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December 25, 2021

बुलबुला!

कविता / 25-12-2021

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सन्दर्भ :

श्रीमद्भगवद्गीता,

अध्याय १५,

ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।।

छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ।।१।।

अधोश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।।

अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ।।२।।

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श्री नारायण अथर्वशीर्षम् :

ॐ अथ पुरुषो ह वै नारायणोऽकामयत प्रजाः सृजेयेति। 

नारायणात्प्राणो जायते मनः सर्वेन्द्रियाणि च । 

खं वायुर्ज्योतिरापः.... पृथिवी विश्वस्य धारिणी ।

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श्री सूर्य अथर्वशीर्षम् :

सूर्याद्भवन्ति भूतानि सूर्येण पालितानि तु ।

सूर्ये लयं प्राप्नुवन्ति यः सूर्यो सोऽहमेव च ।।

चक्षुर्नो देवः सविता । 

चक्षुर्नो उत पर्वतः ।

चक्षुर्धाता दधातु नः ।।

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उसी ऊर्ध्वमूल से,

उसी पर्वत-शिखर से,

निःसृतः होता है झरना, 

नीचे ही नीचे उतरता हुआ, 

न जाने किन अतल, तलातल,

वितल, सुतल, प्रतल, अवतल,

उत्तल पातालों से गुजरकर,

उतरता ही उतरता हुआ,

चला ही चला जाता है! 

वह जल का अथाह सागर,

व्यापक सर्वव्यापी नारायण ही,

पुनः खं ज्योति आपः अग्नि भू, 

उगता-उदित होता है पूर्व में, 

अभिव्यक्त होता है सूर्य में! 

और पुनः, उठता है, 

उभरता है सागर से,

एक शून्य, बुलबुला वायु का! 

नहीं जानता, कहाँ से आया वह, 

जल में उठता ही उठता, 

चला जाता है वह, 

ऊपर ही ऊपर, 

न जाने किस दिशा में,

किस लक्ष्य की तरफ!

बड़े से बड़ा होता हुआ, 

अन्ततः किसी अकल्पित, 

अकल्पनीय क्षण में, 

सतह पर आकर,

फूटकर, हो जाता है विलीन, 

उसी शून्य में, 

जहाँ से उठा था वह! 

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मिल जाएगा!

 कविता : 25-12-2021

सब-कुछ

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सब कुछ मिल जाएगा तुमको, 

पर तुम कुछ ना पाओगे, 

जब तक कौन है, -पानेवाला,

इसको तुम समझ न पाओगे!

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मन और आत्म-विचार

विचार और आत्म-विचार

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विचार ही ध्यान में बाधा है, और यह भी सत्य है कि इस बाधा का निवारण भी ध्यान से ही होता है। 

क्या ध्यान किसी प्रकार का मानसिक अभ्यास है?

या ध्यान इस बारे में किया जानेवाला यह अनुसंधान है कि क्या  विचार और विचारकर्ता एक दूसरे से भिन्न अलग अलग वस्तुएँ हैं, और 'मैं' नामक तथ्य उनसे भिन्न तीसरी कोई वस्तु है?

स्पष्ट है कि विचार और विचारक का विचार ही मन है, क्योंकि किसी भी प्रकार का विचार एक मानसिक गतिविधि ही तो होता है! इस प्रकार 'विचार' वही वस्तु है जिसे 'मन' भी कहा जाता है। 

फिर 'मन' नामक वस्तु क्या है?

क्या 'मन' नामक वस्तु वही तथ्य है, जिसे 'मैं' भी कहा जाता है, और इसी तरह क्या 'मैं' नामक वस्तु वही तथ्य है, जिसे 'मन' भी कहा जाता है?

क्या इस प्रकार यद्यपि विचार और मन एक ही तथ्य के दो नाम अवश्य हैं, किन्तु क्या मन और 'मैं' एक ही तथ्य, या / और एक ही तथ्य के दो नाम हैं?

स्पष्ट है कि यदि मन और 'मैं' एक ही तथ्य के दो नाम होते तो मनुष्य द्वारा 'मेरा मन' कहा जाना तर्क की दृष्टि से विसंगतिपूर्ण होता। चूँकि 'विचार' काल के अन्तर्गत होनेवाली गतिविधि ही है, और चूँकि काल का अनुमान भी केवल विचार के ही माध्यम से और विचार के ही अंतर्गत होता है, इसलिए काल का विचार और काल, - ये दोनों ही दो बिलकुल अलग अलग तथ्य हैं यह समझना मुश्किल नहीं है।

फिर 'मैं' नामक वस्तु क्या है? 

क्या 'मैं' कोई तात्कालिक गतिविधि है, या ऐसा कोई तथ्य है, जो कि काल और काल के अनुमान / विचार से भी नितान्त स्वतन्त्र कोई सत्य है? 

'मैंं' शब्द का प्रयोग वैसे तो अपने स्वयं का उल्लेख करने के लिए ही किया जाता है किन्तु / और इसलिए सदैव किसी दूसरे के सन्दर्भ में ही इसका उपयोग किया जाता है, न कि स्वयं अपने आपके लिए!

किन्तु अनवधानता / लापरवाही के कारण ही, मनुष्य विचार के माध्यम से इस 'मैं' नामक तथ्य / वास्तविकता को खण्डित कर लेता है, और उसे दो हिस्सों में बाँटकर 'मैं' और 'मेरा' नामक दो टुकड़ों में बाँट लेता है और इस प्रकार से एक आभासी "मैं' का उद्भव होता है, जो कि पुनः विचार और विचार की ही गतिविधि भर है। इस प्रकार से 'मेरा विचार' नामक वस्तु अस्तित्व में आती है, या उसका 'मैं' से भिन्न, अपना अलग कोई स्वतन्त्र अस्तित्व है ऐसा मान लिया जाता है। 

इस प्रकार, यह 'मैं' नामक तथ्य यद्यपि नित्य अस्तित्वमान एक वास्तविकता है, किन्तु उसे विचार के रूप में, और विचार से ही किसी ऐसी गतिविधि की तरह ग्रहण कर लिया जाता है, जो कि मन नामक वस्तु में सतत रूपान्तरित होती रहती है।

इस प्रकार के अन्वेषण को ही आत्म-विचार, आत्म-जिज्ञासा, या आत्म-अनुसंधान भी कहा जाता है।

इसलिए आत्म-विचार किसी प्रकार की वैचारिक गतिविधि नहीं, बल्कि यह जानने का एक प्रयास होता है कि 'मैं' शब्द से जिस वस्तु का उल्लेख किया जाता है, स्वतन्त्र रूप से उसका स्वरूप क्या है!

वस्तुतः मन ही आत्म-विचार में बाधा है, परन्तु इस बाधा का निवारण भी आत्म-विचार से ही होता है। 

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December 21, 2021

Philosophy

एक पंक्ति में :

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संस्कृत भाषा नहीं, भाषाशास्त्र (Philology!?) है !

Philosophy दर्शन नहीं, दर्शनशास्त्र है !

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स्व तथा चेतना

अहं-पदार्थ और स्व / अहं-वृत्ति / अहं-प्रत्यय 

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अस्ति कश्चित् स्वयं नित्यं अहं-प्रत्ययलम्बनः ।।

अवस्थात्रय साक्षी सन् पञ्चकोष-विलक्षणः ।।१२५।।

(विवेकचूडामणि)

पिछले पोस्ट :

"संवेदनशीलता और मनोरंजन"

में कुछ तकनीकी त्रुटि देखी जा सकती है।

यहाँ स्व का अभिप्राय है  'self'.

जो व्यवहार में 

Me, my, myself, yourself, ourselves, your-selves, him-self, her-self, them-self.

की तरह अपने लिए या दूसरों के लिए प्रयुक्त किया जाता है।

आधुनिक मनोविज्ञान में इसे consciousness कहा जाता है, जो किसी हद तक अधूरा और भ्रामक है। 

वेद (जिसका व्यापक तात्पर्य है 'समष्टि ज्ञान') के सन्दर्भ में कहें, तो वेद अर्थात् इस समष्टि ज्ञान का उद्भव दर्शन से होता है। 

आस्तिक-दर्शन के निम्नलिखित छः प्रधान प्रकार  हैं :

साङ्ख्य, कर्म (पूर्व-मीमांसा), न्याय, योग, वैशेषिक और वेदान्त (उत्तर-मीमांसा) ।

प्राचीन वेद-विद्याओं में जिसे 'आन्वीक्षिकी' कहा जाता था, उसे ही बाद में 'न्याय-शास्त्र' का नाम प्राप्त हुआ। 

न्याय-शास्त्र में पुनः दो दर्शन सम्मिलित हैं न्याय और वैशेषिक। न्याय के प्रवर्तक गौतम मुनि थे, जबकि वैशेषिक के प्रवर्तक थे,  -आचार्य कणाद। आचार्य कणाद का ही नाम कौशिक, अर्थात् उलूक था, इसलिए उनके दर्शन को औलूक्य दर्शन भी कहते हैं। अणु-सिद्धान्त का प्रतिपादन दर्शन के इसी प्रकार के अन्तर्गत है। रोचक तथ्य है कि औलूक्य की व्युत्पत्ति "उलूक" से भी की जा सकती है और "अवलोक्य" से भी। बाद में इसका ही प्रचार प्रसार ग्रीस में अरस्तु (अरः तु) अरिः तु तल  Aristotle और प्लुतो / प्लेटो / अफ़लातून / Plato के समय में तर्क-विद्या / logic  के रूप में हुआ और प्लेटो ने इसे ही आधार के रूप में ग्रहण करते हुए सामाजिक / प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त के लिए प्रयुक्त करते हुए :

The Republic 

ग्रन्थ की रचना की।

इसकी ही परिणति चीन में कन्फ्यूशियस नामक विद्वान के द्वारा प्रतिपादित और स्थापित कन्फ्यूशियस परंपरा के सामाजिक-नैतिक मार्गदर्शक सिद्धान्तों के रूप में भी हुई।

संभवतः वर्तमान में चीन के शासकों का वही राजनीतिक दर्शन भी है, ऐसा कहा जा सकता है। 

इस प्रकार न्याय दर्शन (जो नि आयः √इ से बना न्याय), नियम,  सिद्धान्त, प्रकार, औचित्य, युक्ति तथा निर्णय का समानार्थी है।

न्याय-दर्शन के प्रतिपादक आचार्य गौतम मुनि (जिन्हें अक्षपाद  भी कहा जाता था) के दर्शन और वैशेषिक दर्शन के प्रतिपादक आचार्य कणाद के दर्शन को मिलाकर तर्क-विद्या भी कहा जाता है। दोनों का ध्येय यही है कि विमर्श के माध्यम से सत्य तक कैसे पहुँचा जा सकता है। किन्तु विचार-विमर्श में भी किसी मर्यादा / criteria का आधार तो होना ही चाहिए, अन्यथा विचार-विमर्श की प्रक्रिया में त्रुटि हो सकती है। अतः न्याय-दर्शन के अन्तर्गत 16 प्रमेयों अर्थात् ज्ञातव्य पदार्थों को आधारभूत विवेच्य पदार्थ की तरह स्वीकार किया जाता है। इन्हीं में से एक का नाम है : चेतना अर्थात् चैतन्य (consciousness) जो आत्मा का तथा अहंकार, दोनों का ही पर्याय है।

आत्मा का अर्थ / स्वरूप वैसे तो ब्रह्म ही है, किन्तु व्यक्ति-विशेष के सन्दर्भ में इसे ही अहंकार या स्व कहा जाता है। 

इस प्रकार से आत्मा और अहंकार को एक साथ 'अहं-पदार्थ' की संज्ञा दी जाती है।

अगले पोस्ट में इसकी और विवेचना होगी।

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December 19, 2021

संवेदनशीलता और मनोरंजन

अभ्यस्तता और व्यसन

Addiction and Habit.

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आज के इस डी. जे. के युग में मनोरंजन ही एकमात्र ध्येय प्रतीत होता है, और किसी भी प्रकार का मनोरंजन संवेदनशीलता को कुंठित ही करता है। क्योंकि मनोरंजन में मन बहुत सक्रिय और व्यस्त हो जाता है। इस तरह सक्रियता और व्यस्तता में यद्यपि स्व लुप्त-प्राय और विस्मृत भी हो जाता है, किन्तु फिर भी स्व का अस्तित्व मिट नहीं जाता । मनोरंजन का विषय बदलते ही स्व पुनः पहले की ही तरह सक्रिय हो उठता है। तात्पर्य यह कि स्व और मन दो भिन्न गतिविधियाँ हैं। स्व में वह सब कुछ होता है जिसे कि अनुभव किया जाता है। मन जब इस अनुभव से कभी पूरी तरह से एकात्म हो जाता है, तो मन की संवेदनशीलता उस समय समाप्त जैसी हो जाती है, और मन की ऐसी दशा में न तो सुख का संवेदन रह पाता है, और न दुःख का। क्योंकि किसी भी प्रकार के संवेदन में, अनुभव किए जानेवाले विषय और विषय का अनुभव करनेवाले मन के बीच थोड़ा सा कोई अन्तराल तो होता ही है। किन्तु विषय के साथ एकात्मता के चरम होने की स्थिति में यह अन्तराल मिट जाता है। इसलिए मन उस पूरे समय के लिए अनायास ही स्व को विस्मृत कर बैठता है। और इसलिए मनोरंजन में स्व मिटता तो नहीं, बस केवल उतने समय के लिए विलुप्तप्राय जैसा हो जाता है । उस विषय से संलग्नता टूटते ही स्व पुनः और भी अधिक शक्ति से अभिव्यक्त होकर उभर उठता है, और तब मन पुनः ऐसा कोई दूसरा अन्य प्रयास करने लगता है, जिसमें स्व किसी तरह से पहले जैसा विलुप्तप्राय हो जाए। किसी भी मनोरंजन के दोहराने के क्रम में यही तो होता है। इस प्रकार मनोरंजन तात्कालिक रूप से यद्यपि मन को स्व से राहत तो देता है, किन्तु वह राहत अल्पकालिक ही सिद्ध होती है। यह दुष्चक्र मन से उसकी सारी ताज़गी और शक्ति को भी खींच ले जाता है। हाँ, इस सबसे मन अन्ततः थक भी सकता है, और तब नींद आ सकती है। नींद प्रकृति-प्रदत्त वह स्वाभाविक व्यवस्था होती है, जिसमें कि मन कुछ समय के लिए शान्तिपूर्वक विश्राम (का उपभोग) कर पाता है । 

क्या नींद में स्व मिट जाता है? या कि वह केवल निष्क्रिय भर हो रहता है? यह स्पष्ट ही है, और हर कोई इसे जानता है, कि नींद गहरी होने पर मनुष्य कितना सुख पाता है। यद्यपि वह इस सुख का वर्णन नहीं कर सकता कि यह किस प्रकार का है, किन्तु यह तो स्पष्ट ही है, कि उस सुख की प्राप्ति  हर किसी को अपने ही अन्तर्हृदय में हुआ करती है।

संसार के किसी भी बड़े से बड़े मनोरंजन (के अनुभव) को प्राप्त करने के लिए, बदले में कोई क्या कभी नींद के इस स्वाभाविक सुख का त्याग करना चाहेगा?

किन्तु नींद के बारे में एक समस्या यह है, कि इसे न तो निमंत्रित किया जा सकता है, और न ही नियंत्रित किया जा सकता है। मनोरंजन के आकर्षण में फँसा मन नींद आने पर भी मनोरंजन में ही डूबा रहना चाहता है और इस प्रकार से नींद का प्राकृतिक क्रम गड़बड़ा जाता है । क्या मन इस सच्चाई को जान-समझ कर मनोरंजन की मर्यादा खुद ही तय कर सकता है? 

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तरोड़ मरोड़

अतीत के स्मृतिचिह्न

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सन्दर्भ :

E T Commentary

Dec. 18, 2021, 11:00 P M. I S T

Parul Pandya Dhar,

When Hindus Converted Without Much Fuss, Cuss or Trouble.

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"उन दिनों" शीर्षक से लिखे पोस्ट्स का क्रम तो समाप्त हो गया, किन्तु जो बीत गये, उन दिनों की प्रासंगिकता तो बनी ही रहती है। 

कॉलेज की शिक्षा पूरी होने पर संतोषप्रद नौकरी प्राप्त हुई । स्वाभाविक ही था कि अरमान पंख खोलकर उड़ने लगे। चूँकि विवाह से मुझे बचपन से ही घृणा की हद तक अरुचि थी, और जानकारी के अभाव में प्रायः हर युवा ही जैसे इस बारे में ठीक से कुछ तय कर पाने में असमंजस में रहता है, मैं भी इसी तरह  असमंजस और मानसिक अपरिपक्वता के कारण नहीं, बल्कि अपने आध्यात्मिक रुझान के चलते विवाह को इस मार्ग पर एक रोड़ा अनुभव करता था। मेरे माता-पिता भी मेरी गतिविधियों के मूक दर्शक तो थे, इसीलिए मौका मिलते ही मैंने उनसे स्पष्ट कर दिया था कि वे मेरे विवाह के बारे में चिन्ता न करें। मुझे विवाह नहीं करना है। 

अपने कार्यस्थल पर मैं प्रायः बस से आता-जाता था। उन दिनों उस मार्ग पर म. प्र. राज्य पथ परिवहन निगम (MPSRTC) के द्वारा संचालित बसें आसानी से मिल जाया करती थीं। वैसे तो निजि तौर पर चलाई जानेवाली बसों की तुलना में वे सुस्त गति से  चलती थीं, किन्तु भीड़-भाड़ से दूर रहने के लिए मैं उनमें ही यात्रा किया करता  था ।

ऐसी ही एक बस पर पहली बार जब मैंने "त.रोड़ से म.रोड़" या "म. रोड़ से त. रोड़" पढ़ा तो कुछ आश्चर्य हुआ। फिर पता चला वे बसें तराना रोड़ से महिदपुर-रोड के मार्ग पर चलती थीं और बीच में घोंसला नामक स्थान पर मैं उनसे चढ़ या उतर सकता था। 

यह एक सांस्कृतिक सामाजिक क्रान्ति जैसा प्रतीत हुआ। 

संक्षेप में, --तथ्यों की तरोड़-मरोड़ करना, जिनके पीछे अपना कोई राजनीतिक स्वार्थ होता है ।

आज जब इकॉनामिक टाइम्स में पारुल पण्डया धर का लेख पढ़ा, तो अनायास याद आया। लेखिका ने बड़ी चतुराई से इस तथ्य का वर्णन किया है कि इतिहास के तथ्यों को कलाकृतियों में भी देखा जा सकता है। उन्होंने 'विनय-पिटक' का सन्दर्भ देते हुए उस घटना का वर्णन किया है जब तीन ब्राह्मणों ने भगवान् बुद्ध के चमत्कारों से प्रभावित होकर अपने ब्राह्मण / हिन्दू धर्म का त्याग किया और बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए! 

यहाँ बड़ी ही कुशलता से लेखिका इस तथ्य से हमारा ध्यान हटा देती हैं कि उस काल में जब 'हिन्दू' शब्द का अस्तित्व तक नहीं था, बौद्ध धर्म उसी सनातन धर्म की एक शाखा था जिसे वैदिक या आस्तिक धर्म भी कहा जाता है।

"एस धम्म सनंतनो"

या, 

"एषः धर्मः सनातनो"

उसी सनातन-धर्म की पहचान है। 

इन्हीं जैसे बुद्धिजीवियों ने इस प्रकार से सनातन-धर्म की अनेक शाखाओं को भिन्न भिन्न धर्म की तरह इंगित कर इस तथ्य की ओर से हमारी आँखों पर पर्दा डाल दिया है कि 'हिन्दू' धर्म, जैन, बौद्ध, सिख धर्म जैसा ही और वैदिक आर्य धर्म का ही एक प्रकार मात्र है, और अलग से कोई स्वतंत्र धर्म नहीं है!

इसी प्रकार और इसी के साथ, इस्लाम, ईसाई, पारसी और यहूदी आदि परंपराओं को 'धर्म' कहकर भी हमें भ्रमित किया जाता है।

फलश्रुति :

यात्री कृपया ध्यान दें!

तराना-रोड से महिदपुर-रोड के मार्ग पर चलनेवाले सभी बसें 'घोंसला' से होकर गुजरती हैं!

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December 18, 2021

नया वर्ष!

कविता : 18-12-2021

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नववर्ष 

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फिर से आकर खड़ा हुआ है द्वार पर मेरे,

नववर्ष, या कि, मैं ही यहाँ तक आ गया हूँ!

हाँ समय फिर से है, अतीत के अवलोकन का,

वैसे गन्तव्य तो अपना भी अब मैं पा चुका हूँ!

पर समय की भूमि पर, गन्तव्य भी प्रारम्भ है,

और चलना नियति ही है, कर्म ही प्रारब्ध है!

कर्म का आधार, लेकिन दृष्टि-दर्शन ही तो है,

धर्म तो है चलते रहना, लक्ष्य ही अनुबन्ध है!

लक्ष्य ही तो प्रेरणा है, लक्ष्य ही संकल्प भी, 

और दर्शन दृष्टि है, विकल्प ही प्रतिबन्ध है!

दृष्टि ही जब तक नहीं, विकल्प का ही व्यूह है,

अभिमन्यु हो या हो अर्जुन, यही तो चक्रव्यूह है!

अभिमन्यु संकल्प है, पर दिशाहीन, दृष्टिहीन,

पार्थ ही ऋजु-दृष्टि है, दर्शन भी संशयविहीन!

मार्ग दो ही समक्ष हैं, विश्वास का या ज्ञान का,

वही आधार धर्म-दर्शन, कर्म के अनुष्ठान का!

धर्म की यह परंपरा विश्वास, नीति, संधान है,

कर्म की जो प्रेरणा, या आत्म-अनुसंधान है!

दो ही निष्ठाएँ हैं यहाँ, जो स्तुत्य भी हैं श्रेष्ठ भी,

एक तो है कर्म की, अन्य है अनुसन्धान की!

कर्म है विश्वास-निष्ठा, पर कर्म ही कर्तव्य है,

जो नहीं कर्तव्य है वह, भ्रान्ति अकर्तव्य है!

जो नहीं है किन्तु सक्षम, और किंकर्तव्यमूढ,

वह भी है सौभाग्यशाली, यदि नहीं अत्यन्त मूढ!

जीव का, जगत का भी, कोई विधाता है अवश्य, 

निष्काम होकर कर्म करो, कर समर्पित उसे कर्म!

कर्म यदि निष्काम होगा, फल की आशा या कामना, 

कैसे उठेगी हृदय में जब, इस लक्ष्य से हो सामना!

किन्तु "यह कर्ता है कौन?" मन में उठे यदि प्रश्न यह, 

तो करो अनुसंधान, जिज्ञासा, खोज लो फिर मार्ग वह!

दो ही निष्ठाएँ हैं यहाँ पर, कर्म की भी, ज्ञान की, 

एक निष्ठा खोज लो, त्यागकर अभिमान की!

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December 16, 2021

राष्ट्रभाषा और राजभाषा

भाषा-चिन्तन

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भारतवर्ष के स्वतन्त्र होने के समय यद्यपि हिन्दी, जन-गण-मन में सबकी और देश की भी जन-सामान्य की भाषा हो चुकी थी, किन्तु कुछ विघ्नसंतोषी प्रवृत्ति के लोग इस तथ्य को झुठलाने और इस तथ्य को आँखों से ओझल कर देने के लिए उर्दू तथा अंग्रेजी के साथ साथ तमिऴ को भी हिन्दी से पृथक् सिद्ध करते हुए लोगों के मन में हिन्दी के प्रति द्वेष की भावना पैदा कर रहे थे।

अपने जीवन के पिछले 50 वर्षों में मैंने इन भाषाओं के बारे में जितना कुछ भी समझा उससे मैं इसी निष्कर्ष पर पहुँचा कि इन तीनों भाषाओं का व्याकरण और संरचना भले ही हिन्दी के व्याकरण और संरचना से भिन्न हो, इनके अधिकांश शब्दों की व्युत्पत्ति को सँस्कृत के मूल पदों (शब्दों)  की सहायता और तुलना से बखूबी समझा और समझाया जा सकता है। हिन्दी और शेष दूसरी सभी भारतीय भाषाओं के संबंध में तो यह प्रश्न किसी के मन में कभी शायद ही आता होगा। सच तो यह है कि उपरोक्त तीनों भाषाओं के बारे में भी यही सत्य है कि किन्हीं भी दो या अधिक भाषाओं को सीखते हुए हम उन सभी भाषाओं को अनायास ही और भी अधिक संपन्न और समृद्ध करते हैं।

यह भी मानना होगा कि हिन्दी या किसी भी एक विशेष भाषा को संपूर्ण देश की राष्ट्रभाषा बनाने में अवश्य ही कुछ बड़ी और व्यावहारिक कठिनाइयाँ तो हैं ही। इसे समझने से पहले तो यही उचित होगा कि राष्ट्रभाषा के और राजभाषा के प्रयोजन पर हम ध्यान दें। इस बारे में दो मत नहीं हो सकते कि किसी भी स्थान,  प्रान्त, प्रदेश या राज्य का अधिक से अधिक सरकारी कार्य वहाँ की स्थानीय भाषा में ही होना और किया जाना चाहिए। किन्तु  केन्द्रीय स्तर पर क्या इसकी व्यवहार्यता / उपयोगिता संदिग्ध ही नहीं है? क्या कुछ विघ्न-सन्तोषियों के हिन्दी-विरोध के चलते, हिन्दी को बलपूर्वक केन्द्रीय स्तर पर देश की सरकारी भाषा के रूप में थोपा जा सकता है? 

भले ही वे लोग शेष भारत से असहमत हों, फिर भी उनके मत की उपेक्षा भी नहीं की जा सकती ।

फिर क्या हम अंग्रेजी को केन्द्रीय स्तर पर देश के सरकारी काम की भाषा की तरह स्वीकार नहीं कर सकते? 

इस प्रकार एक ओर स्थानीय स्तर पर देश के विभिन्न हिस्सों में सरकारी कामकाज वहाँ की स्थानीय भाषा में किया जा सकता है, जबकि इसके ही साथ साथ, पूरे देश के सरकारी कामकाज के लिए अंग्रेजी का प्रयोग भी स्वीकार्य हो सकता है। 

अंग्रेजी क्यों? 

किन्हीं भी कारणों से विगत दो-तीन सौ वर्षों के समय में अंग्रेजी ने भारत के सरकारी कामकाज के रूप में (घुस)पैठ कर ही ली है, तो देशहित के लिए क्यों न उस पूरी पद्धति / व्यवस्था और प्रणाली / system का पूरा पूरा लाभ उठाया जाए? केवल हठ, पूर्वाग्रह या जिद के चलते, क्यों नए सिरे से हिन्दी को बलपूर्वक लागू करते हुए, श्रम करते हुए, कठिनाइयों का सामना करते हुए अनावश्यक गतिरोध और विवाद पैदा किया जाए?

अंग्रेजी भाषा के पक्ष में सर्वाधिक शक्तिशाली और विचारणीय तथ्य यह है कि इसका उद्गम जिस परंपरा / शिक्षा से हुआ है वह आंग्ल परंपरा स्वयं भी ऋषि अंगिरा / अंगिरस् प्रणीत है और यह मूलतः अंगिरा / अंगिरस् शैक्षम् के रूप में  सुदूर अतीत से प्रचलित है । इसी अंगिरा का सज्ञात / सजात / अपभ्रंश हुआ  :

Angel,

क्योंकि तात्पर्य और प्रयोजन के रूप में यही  Angel  का मूल भी है। क्या  Angel  शब्द की कोई और संतोषजनक व्युत्पत्ति हमारे पास है? 

मान लें  Angel फ़ारसी के फ़रिश्तः का समानार्थी है तो भी यह फ़ारसी शब्द अवश्य ही मूलतः संस्कृत शब्द 'पार्षदः' से व्युत्पन्न है, इसे समझना कठिन नहीं है, क्योंकि 'पार्षदः' का तात्पर्य है वे लोग जो किसी देवता की परिषद् (सभा) के सदस्य होते हैं -- विशेषतः भगवान् विष्णु के ।

इस प्रकार  Angel शब्द अवश्य ही अंगिरा का ही सज्ञात है। 

अब यदि हम पुनः अंग्रेजी भाषा को अपने सरकारी कामकाज की भाषा बना लें तो हमारे बहुत से अनावश्यक उन व्ययों पर रोक लग जाएगी, जो वर्तमान में हिन्दी के प्रयोग में खर्च किए जा रहे हैं। यह पुनरावृत्ति (unnecessary repetition) अवश्य ही रोकी जानी चाहिए और इस धन का उपयोग अन्यत्र वहाँ किया जाना चाहिए जहाँ हमारे पास पैसे की कमी से बहुत से अधिक जरूरी कार्य अधूरे पड़े हैं। 

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December 15, 2021

मैं, मेरा संसार...

और मेरा जीवन! 

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तीन ये ध्रुव, हैं मुझमें, 

और मैं हूँ बँटा हुआ, 

तीन ध्रुवों में!

तीनों अलग अलग हैं,

फिर भी अलग अलग नहीं!

मैं, संसार में हूँ, 

और संसार मुझमें!

मैं जीवन में हूँ,

और जीवन मुझमें!

संसार जीवन में है,

और जीवन संसार में!

हर ध्रुव के सन्दर्भ में,

शेष दोनों, हैं गौण!

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December 04, 2021

बहुत दूर है दिल्ली!

कविता / 04/12/2021

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बहुत दूर है दिल्ली, बहुत दूर अभी!  

अभी तो घर से निकलना भी है, बहुत मुश्किल!

रास्ते हैं, सभी खतरनाक बहुत! 

फिर भी हिम्मत है, बहुत से लोगों में!

वो क्या चीज़ है, जो पैदा करती है, 

दिल में इरादा, हिम्मत, और जज्बा भी! 

अभी तो वो भी पा सकना भी है मुश्किल!

अभी तो दूर है दिल्ली, बहुत दूर अभी! 

दिल से दिल्ली का, दिल्लगी का भी कोई, 

क्या है सरोकार, क्या है रिश्ता?

फिर भी दिल के बहलाने को, 

ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है कि! 

किसी दिन फ़तह करना, है दिल्ली!

वैसे भी, घर पे बैठे बैठे क्या करें!

चलो वर्चुअल मोड में ही खेलें, - दिल्ली-दिल्ली!

फिर कभी मिला मौक़ा, तो काम आएगा,

ये तज़ुर्बा अपना, खेलने का अभी! 

अभी तो दूर है, बहुत दूर है, अभी दिल्ली!

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December 03, 2021

वह उदास लड़की

कविता  / 03/12/2021

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नज़रें

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बेलती है, -रोटी,

काटती है, -आलू,

धोती है, -कपड़े,

ताड़ती है, -नज़रें,

बोलती, -कुछ नहीं,

हाँ,  -उसके कान,

सुनते हैं, -सब कुछ! 

हाँ, -उसकी आँखें, 

बोलती हैं, -बहुत कुछ! 

कहती हैं, -सब कुछ!

समझती हैं, -सब कुछ!

रहती है, -वह ख़ामोश,

बिना बोले, -चुप-चुप!

वह उदास लड़की!

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मुझे ऐसा याद आता है कि ऐसी किसी लड़की के बारे में इससे मिलती-जुलती कुछ कविताएँ मैं पहले भी लिख और पोस्ट कर  चुका हूँ।)

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December 02, 2021

The Wolf of Wall Street.

Jordan Belfort

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एक-दो दिन पहले मैंने मुद्रा-चिन्तन / अर्थ-चिन्तन शीर्षक से क्रिप्टोकरेंसी के बारे में एक पोस्ट इस ब्लॉग में लिखा था।

आज इंडिया टुडे में मानस तिवारी की इस रिपोर्ट पढ़ने पर मेरे इस अनुमान की पुष्टि हो गई, कि क्रिप्टोकरेंसी के बारे में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है।

यह भी संभव है कि क्रिप्टोकरेंसी के माध्यम से इसे लॉन्च करने वाले पूरी अर्थ-व्यवस्था को पटरी से उतार सकते हैं।

इसलिए भी किसी भी प्रकार की क्रिप्टोकरेंसी के प्रचलन पर सरकार का वैधानिक नियंत्रण होना बहुत जरूरी है।

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December 01, 2021

सैरन्ध्री





भूमिरश्मा 

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घर के सामने पार्क बन रहा है। पिछले दो वर्षों में नया कुछ नहीं बना। वही दो चैत्य हैं चौकोर, आसपास चंपा के वृक्ष, एकमात्र सुपारी का ऊँचा वृक्ष। 

इस बारिश में उस पार्क में बीचोंबीच नीम-वट-पीपल को एक साथ रोपकर उसे जालीदार ट्री-गार्ड से ढँक दिया गया है।

पार्क के जिस चौकोर लॉन के बीचोंबीच ये तीन वृक्ष रोपे गए हैं, उसके चारों कोनों पर सीमेन्ट की बड़ी-बड़ी सरन्ध्र ईंटों से बने चार बड़े टैंक / हौज तैयार किए गए हैं। 

ये टैंक किसलिए बने हैं, यह अभी स्पष्ट नहीं है। अब लगता है शायद उनमें कोई वृक्ष लगाए जाएँगे। चौकोर हिस्से के एक सिरे पर कुएँ जैसी, तीन फुट व्यास की, एक फुट ऊँची रचना है, जिसमें अभी कचरा जमा होता है, लेकिन लगता है कि उसमें बाद में कुमुदिनी रोपी जाएगी ।

उन ईंटों के छोटे-बड़े अनावश्यक बचे हुए टुकड़े पार्क में बिखरे पड़े हैं । एक टुकड़ा मैं भी उठा लाया।

सोचा उस पर कुछ उत्कीर्ण कर उसमें छिपी किसी प्रतिमा को उभारकर साकार करूँ। फिर यह भी लगा कि उस पर कलर-पेंसिलों से कोई प्राकृतिक दृश्य निर्मित करूँ।

गूगल-सर्च में प्यूमिस स्टोन जैसी उस रचना के संबंध में पढ़ा कि ज्वालामुखी के लावा से भी ऐसा प्यूमिस पत्थर बनता है। फिर उसे ध्यान से देखा तो लगा कि उस मानव-निर्मित पत्थर / ईंट को बनाने के लिए सीमेन्ट में पानी मिलाकर एक गाढ़ा मिश्रण बनाया गया होगा, और उसमें ब्लो-पाइप से हवा प्रवाहित कर उसे सरन्ध्र रूप दिया गया होगा। 

मेज पर वह टुकड़ा अब भी रखा हुआ है। 

रात्रि में सोने से पहले उस पर दृष्टि पड़ी तो लगा वह पत्थर / ईंट मुझसे कुछ कह रही है। लेकिन मैंने इस पर ध्यान नहीं दिया।

रात्रि में स्वप्न में वह मुझे घूँघट में छिपी किसी राजपरिवार की एक स्त्री जैसी दिखलाई पड़ी। उसकी हँसी की आवाज सुनते ही मेरा ध्यान उस पर गया। 

"मैं सैरन्ध्री हूँ!"

उसने कहा।

मैं नहीं जानता था कि सैरन्ध्री का क्या अर्थ है। 

"अच्छा!"

मैंने इतना ही कहा। 

"द्रौपदी"

उसने तुरंत अपना परिचय स्पष्ट किया। 

"फिर तुमने अपना नाम सैरन्ध्री क्यों बताया?"

"वह इसलिए, क्योंकि तुम मुझे तराशकर मुझ पर कोई आकृति उकेरने या रंग आदि के लेप से मुझ पर कोई आवरण चढ़ाने के बारे में सोच रहे हो।  है न? !"

"पर मैं तो तुम्हें गणेश या बुद्ध, राम या शालभंजिका का रूप देना चाह रहा था।"

"नहीं!  मैं जैसी हूँ वैसी ही रहना और दिखलाई देना चाहती हूँ!"

इतना सुनते हुए मेरी आँख खुल गई। 

मेज पर वह शिला, भूमिरश्मा अब भी वैसी ही अमूर्त प्रतिमा की तरह मौन थी ।

मैं फिर सो गया।

सुबह उठा, तो लगा अब उसे किसी प्रतिमा का रूप देकर और अधिक विरूपित करना उसका अपमान होगा।

अब यह वहीं रहेगी।

शायद कोई उसके बारे में कोई जिज्ञासा या अनुमान करेगा या प्रश्न भी पूछेगा ।

पर मैं भी उसकी तरह मौन ही रहूँगा।

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कितनी जल्दी!

कविता / 01-12-2021

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पहले कभी लिखा था, '₹' पर, 

फिर लिखा था, रूपामुद्रा पर, 

कल लिखा था, कृप्तामुद्रा पर!

याद आए मुद्राराक्षस और लोपामुद्रा! 

मुद्रण की त्रुटि, 

त्रुटि का मुद्रण, 

टंकित से मुद्रित होना, 

मुद्रित से टंकित होना,

टंकण से तंका (अरबी मुद्रा), 

तंका से टका, 

टका से टिक,

टिकिया और टीका! 

टिक से टिकट,

टिक से टिप,

टिप से टाइप,

कितनी मुद्राएँँ हैं,

मुद्रा की!

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