December 25, 2021

मन और आत्म-विचार

विचार और आत्म-विचार

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विचार ही ध्यान में बाधा है, और यह भी सत्य है कि इस बाधा का निवारण भी ध्यान से ही होता है। 

क्या ध्यान किसी प्रकार का मानसिक अभ्यास है?

या ध्यान इस बारे में किया जानेवाला यह अनुसंधान है कि क्या  विचार और विचारकर्ता एक दूसरे से भिन्न अलग अलग वस्तुएँ हैं, और 'मैं' नामक तथ्य उनसे भिन्न तीसरी कोई वस्तु है?

स्पष्ट है कि विचार और विचारक का विचार ही मन है, क्योंकि किसी भी प्रकार का विचार एक मानसिक गतिविधि ही तो होता है! इस प्रकार 'विचार' वही वस्तु है जिसे 'मन' भी कहा जाता है। 

फिर 'मन' नामक वस्तु क्या है?

क्या 'मन' नामक वस्तु वही तथ्य है, जिसे 'मैं' भी कहा जाता है, और इसी तरह क्या 'मैं' नामक वस्तु वही तथ्य है, जिसे 'मन' भी कहा जाता है?

क्या इस प्रकार यद्यपि विचार और मन एक ही तथ्य के दो नाम अवश्य हैं, किन्तु क्या मन और 'मैं' एक ही तथ्य, या / और एक ही तथ्य के दो नाम हैं?

स्पष्ट है कि यदि मन और 'मैं' एक ही तथ्य के दो नाम होते तो मनुष्य द्वारा 'मेरा मन' कहा जाना तर्क की दृष्टि से विसंगतिपूर्ण होता। चूँकि 'विचार' काल के अन्तर्गत होनेवाली गतिविधि ही है, और चूँकि काल का अनुमान भी केवल विचार के ही माध्यम से और विचार के ही अंतर्गत होता है, इसलिए काल का विचार और काल, - ये दोनों ही दो बिलकुल अलग अलग तथ्य हैं यह समझना मुश्किल नहीं है।

फिर 'मैं' नामक वस्तु क्या है? 

क्या 'मैं' कोई तात्कालिक गतिविधि है, या ऐसा कोई तथ्य है, जो कि काल और काल के अनुमान / विचार से भी नितान्त स्वतन्त्र कोई सत्य है? 

'मैंं' शब्द का प्रयोग वैसे तो अपने स्वयं का उल्लेख करने के लिए ही किया जाता है किन्तु / और इसलिए सदैव किसी दूसरे के सन्दर्भ में ही इसका उपयोग किया जाता है, न कि स्वयं अपने आपके लिए!

किन्तु अनवधानता / लापरवाही के कारण ही, मनुष्य विचार के माध्यम से इस 'मैं' नामक तथ्य / वास्तविकता को खण्डित कर लेता है, और उसे दो हिस्सों में बाँटकर 'मैं' और 'मेरा' नामक दो टुकड़ों में बाँट लेता है और इस प्रकार से एक आभासी "मैं' का उद्भव होता है, जो कि पुनः विचार और विचार की ही गतिविधि भर है। इस प्रकार से 'मेरा विचार' नामक वस्तु अस्तित्व में आती है, या उसका 'मैं' से भिन्न, अपना अलग कोई स्वतन्त्र अस्तित्व है ऐसा मान लिया जाता है। 

इस प्रकार, यह 'मैं' नामक तथ्य यद्यपि नित्य अस्तित्वमान एक वास्तविकता है, किन्तु उसे विचार के रूप में, और विचार से ही किसी ऐसी गतिविधि की तरह ग्रहण कर लिया जाता है, जो कि मन नामक वस्तु में सतत रूपान्तरित होती रहती है।

इस प्रकार के अन्वेषण को ही आत्म-विचार, आत्म-जिज्ञासा, या आत्म-अनुसंधान भी कहा जाता है।

इसलिए आत्म-विचार किसी प्रकार की वैचारिक गतिविधि नहीं, बल्कि यह जानने का एक प्रयास होता है कि 'मैं' शब्द से जिस वस्तु का उल्लेख किया जाता है, स्वतन्त्र रूप से उसका स्वरूप क्या है!

वस्तुतः मन ही आत्म-विचार में बाधा है, परन्तु इस बाधा का निवारण भी आत्म-विचार से ही होता है। 

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