अभ्यस्तता और व्यसन
Addiction and Habit.
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आज के इस डी. जे. के युग में मनोरंजन ही एकमात्र ध्येय प्रतीत होता है, और किसी भी प्रकार का मनोरंजन संवेदनशीलता को कुंठित ही करता है। क्योंकि मनोरंजन में मन बहुत सक्रिय और व्यस्त हो जाता है। इस तरह सक्रियता और व्यस्तता में यद्यपि स्व लुप्त-प्राय और विस्मृत भी हो जाता है, किन्तु फिर भी स्व का अस्तित्व मिट नहीं जाता । मनोरंजन का विषय बदलते ही स्व पुनः पहले की ही तरह सक्रिय हो उठता है। तात्पर्य यह कि स्व और मन दो भिन्न गतिविधियाँ हैं। स्व में वह सब कुछ होता है जिसे कि अनुभव किया जाता है। मन जब इस अनुभव से कभी पूरी तरह से एकात्म हो जाता है, तो मन की संवेदनशीलता उस समय समाप्त जैसी हो जाती है, और मन की ऐसी दशा में न तो सुख का संवेदन रह पाता है, और न दुःख का। क्योंकि किसी भी प्रकार के संवेदन में, अनुभव किए जानेवाले विषय और विषय का अनुभव करनेवाले मन के बीच थोड़ा सा कोई अन्तराल तो होता ही है। किन्तु विषय के साथ एकात्मता के चरम होने की स्थिति में यह अन्तराल मिट जाता है। इसलिए मन उस पूरे समय के लिए अनायास ही स्व को विस्मृत कर बैठता है। और इसलिए मनोरंजन में स्व मिटता तो नहीं, बस केवल उतने समय के लिए विलुप्तप्राय जैसा हो जाता है । उस विषय से संलग्नता टूटते ही स्व पुनः और भी अधिक शक्ति से अभिव्यक्त होकर उभर उठता है, और तब मन पुनः ऐसा कोई दूसरा अन्य प्रयास करने लगता है, जिसमें स्व किसी तरह से पहले जैसा विलुप्तप्राय हो जाए। किसी भी मनोरंजन के दोहराने के क्रम में यही तो होता है। इस प्रकार मनोरंजन तात्कालिक रूप से यद्यपि मन को स्व से राहत तो देता है, किन्तु वह राहत अल्पकालिक ही सिद्ध होती है। यह दुष्चक्र मन से उसकी सारी ताज़गी और शक्ति को भी खींच ले जाता है। हाँ, इस सबसे मन अन्ततः थक भी सकता है, और तब नींद आ सकती है। नींद प्रकृति-प्रदत्त वह स्वाभाविक व्यवस्था होती है, जिसमें कि मन कुछ समय के लिए शान्तिपूर्वक विश्राम (का उपभोग) कर पाता है ।
क्या नींद में स्व मिट जाता है? या कि वह केवल निष्क्रिय भर हो रहता है? यह स्पष्ट ही है, और हर कोई इसे जानता है, कि नींद गहरी होने पर मनुष्य कितना सुख पाता है। यद्यपि वह इस सुख का वर्णन नहीं कर सकता कि यह किस प्रकार का है, किन्तु यह तो स्पष्ट ही है, कि उस सुख की प्राप्ति हर किसी को अपने ही अन्तर्हृदय में हुआ करती है।
संसार के किसी भी बड़े से बड़े मनोरंजन (के अनुभव) को प्राप्त करने के लिए, बदले में कोई क्या कभी नींद के इस स्वाभाविक सुख का त्याग करना चाहेगा?
किन्तु नींद के बारे में एक समस्या यह है, कि इसे न तो निमंत्रित किया जा सकता है, और न ही नियंत्रित किया जा सकता है। मनोरंजन के आकर्षण में फँसा मन नींद आने पर भी मनोरंजन में ही डूबा रहना चाहता है और इस प्रकार से नींद का प्राकृतिक क्रम गड़बड़ा जाता है । क्या मन इस सच्चाई को जान-समझ कर मनोरंजन की मर्यादा खुद ही तय कर सकता है?
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