अहं-पदार्थ और स्व / अहं-वृत्ति / अहं-प्रत्यय
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अस्ति कश्चित् स्वयं नित्यं अहं-प्रत्ययलम्बनः ।।
अवस्थात्रय साक्षी सन् पञ्चकोष-विलक्षणः ।।१२५।।
(विवेकचूडामणि)
पिछले पोस्ट :
"संवेदनशीलता और मनोरंजन"
में कुछ तकनीकी त्रुटि देखी जा सकती है।
यहाँ स्व का अभिप्राय है 'self'.
जो व्यवहार में
Me, my, myself, yourself, ourselves, your-selves, him-self, her-self, them-self.
की तरह अपने लिए या दूसरों के लिए प्रयुक्त किया जाता है।
आधुनिक मनोविज्ञान में इसे consciousness कहा जाता है, जो किसी हद तक अधूरा और भ्रामक है।
वेद (जिसका व्यापक तात्पर्य है 'समष्टि ज्ञान') के सन्दर्भ में कहें, तो वेद अर्थात् इस समष्टि ज्ञान का उद्भव दर्शन से होता है।
आस्तिक-दर्शन के निम्नलिखित छः प्रधान प्रकार हैं :
साङ्ख्य, कर्म (पूर्व-मीमांसा), न्याय, योग, वैशेषिक और वेदान्त (उत्तर-मीमांसा) ।
प्राचीन वेद-विद्याओं में जिसे 'आन्वीक्षिकी' कहा जाता था, उसे ही बाद में 'न्याय-शास्त्र' का नाम प्राप्त हुआ।
न्याय-शास्त्र में पुनः दो दर्शन सम्मिलित हैं न्याय और वैशेषिक। न्याय के प्रवर्तक गौतम मुनि थे, जबकि वैशेषिक के प्रवर्तक थे, -आचार्य कणाद। आचार्य कणाद का ही नाम कौशिक, अर्थात् उलूक था, इसलिए उनके दर्शन को औलूक्य दर्शन भी कहते हैं। अणु-सिद्धान्त का प्रतिपादन दर्शन के इसी प्रकार के अन्तर्गत है। रोचक तथ्य है कि औलूक्य की व्युत्पत्ति "उलूक" से भी की जा सकती है और "अवलोक्य" से भी। बाद में इसका ही प्रचार प्रसार ग्रीस में अरस्तु (अरः तु) अरिः तु तल Aristotle और प्लुतो / प्लेटो / अफ़लातून / Plato के समय में तर्क-विद्या / logic के रूप में हुआ और प्लेटो ने इसे ही आधार के रूप में ग्रहण करते हुए सामाजिक / प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त के लिए प्रयुक्त करते हुए :
The Republic
ग्रन्थ की रचना की।
इसकी ही परिणति चीन में कन्फ्यूशियस नामक विद्वान के द्वारा प्रतिपादित और स्थापित कन्फ्यूशियस परंपरा के सामाजिक-नैतिक मार्गदर्शक सिद्धान्तों के रूप में भी हुई।
संभवतः वर्तमान में चीन के शासकों का वही राजनीतिक दर्शन भी है, ऐसा कहा जा सकता है।
इस प्रकार न्याय दर्शन (जो नि आयः √इ से बना न्याय), नियम, सिद्धान्त, प्रकार, औचित्य, युक्ति तथा निर्णय का समानार्थी है।
न्याय-दर्शन के प्रतिपादक आचार्य गौतम मुनि (जिन्हें अक्षपाद भी कहा जाता था) के दर्शन और वैशेषिक दर्शन के प्रतिपादक आचार्य कणाद के दर्शन को मिलाकर तर्क-विद्या भी कहा जाता है। दोनों का ध्येय यही है कि विमर्श के माध्यम से सत्य तक कैसे पहुँचा जा सकता है। किन्तु विचार-विमर्श में भी किसी मर्यादा / criteria का आधार तो होना ही चाहिए, अन्यथा विचार-विमर्श की प्रक्रिया में त्रुटि हो सकती है। अतः न्याय-दर्शन के अन्तर्गत 16 प्रमेयों अर्थात् ज्ञातव्य पदार्थों को आधारभूत विवेच्य पदार्थ की तरह स्वीकार किया जाता है। इन्हीं में से एक का नाम है : चेतना अर्थात् चैतन्य (consciousness) जो आत्मा का तथा अहंकार, दोनों का ही पर्याय है।
आत्मा का अर्थ / स्वरूप वैसे तो ब्रह्म ही है, किन्तु व्यक्ति-विशेष के सन्दर्भ में इसे ही अहंकार या स्व कहा जाता है।
इस प्रकार से आत्मा और अहंकार को एक साथ 'अहं-पदार्थ' की संज्ञा दी जाती है।
अगले पोस्ट में इसकी और विवेचना होगी।
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