कविता / 25-12-2021
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सन्दर्भ :
श्रीमद्भगवद्गीता,
अध्याय १५,
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ।।१।।
अधोश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ।।२।।
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श्री नारायण अथर्वशीर्षम् :
ॐ अथ पुरुषो ह वै नारायणोऽकामयत प्रजाः सृजेयेति।
नारायणात्प्राणो जायते मनः सर्वेन्द्रियाणि च ।
खं वायुर्ज्योतिरापः.... पृथिवी विश्वस्य धारिणी ।
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श्री सूर्य अथर्वशीर्षम् :
सूर्याद्भवन्ति भूतानि सूर्येण पालितानि तु ।
सूर्ये लयं प्राप्नुवन्ति यः सूर्यो सोऽहमेव च ।।
चक्षुर्नो देवः सविता ।
चक्षुर्नो उत पर्वतः ।
चक्षुर्धाता दधातु नः ।।
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उसी ऊर्ध्वमूल से,
उसी पर्वत-शिखर से,
निःसृतः होता है झरना,
नीचे ही नीचे उतरता हुआ,
न जाने किन अतल, तलातल,
वितल, सुतल, प्रतल, अवतल,
उत्तल पातालों से गुजरकर,
उतरता ही उतरता हुआ,
चला ही चला जाता है!
वह जल का अथाह सागर,
व्यापक सर्वव्यापी नारायण ही,
पुनः खं ज्योति आपः अग्नि भू,
उगता-उदित होता है पूर्व में,
अभिव्यक्त होता है सूर्य में!
और पुनः, उठता है,
उभरता है सागर से,
एक शून्य, बुलबुला वायु का!
नहीं जानता, कहाँ से आया वह,
जल में उठता ही उठता,
चला जाता है वह,
ऊपर ही ऊपर,
न जाने किस दिशा में,
किस लक्ष्य की तरफ!
बड़े से बड़ा होता हुआ,
अन्ततः किसी अकल्पित,
अकल्पनीय क्षण में,
सतह पर आकर,
फूटकर, हो जाता है विलीन,
उसी शून्य में,
जहाँ से उठा था वह!
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