June 30, 2017

रोज़ हर रोज़ यूँ ही ...

आज की कविता
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रोज़ लगता है नया गीत लिखूँ,
जैसे सुबह रोज़ बोलता है पंछी,
देखकर होता है अचरज हर रोज़,
कैसे गाता है रोज़ नया गीत कोई,
उन सुरों में जो कि नहीं थे कल,
उन सुरों में कि जो न होंगे कल,
कैसे हर फूल रोज़ खिलता है नया,
उस रंग-रूप में कि जो नहीं था कल,
उस रंग-रूप में जो न होगा फिर कल,
रोज़ बदलता है आकाश लिबास,
कैसे हर रोज़ बदल जाती है पहाड़ी,
वो जो देखती है एकटक, मेरे घर को,
यूँ तो अख़बार भी बदलता है रोज़,
अपना चेहरा, वो खबरें हर रोज़,
जिनकी बोसीदग़ी नहीं जाती,
वो ही बासी, वही ऊब भरी खबरें,
जिनको पढ़कर खुशी नहीं होती,
पढ़के बेचैनी मेरी रूह की नहीं जाती,
और बस और भी बढ़ जाती है,
रोज लगता है नया गीत लिखूँ!
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June 25, 2017

Karolina Goswami : India in Details.

Let us find out.

For long, questions have been asked about the behavior of foreign media on India. In this documentary, the globe citizens will be seeing what their country's media purposely has been hiding from them. Let's analyse the role of foreign media on India. After all, why the mainstream international media does not give enough coverage to the brighter or the developed side of India? Karolina Goswami is finding the facts.
It's time that the globe citizens stand by the truth and fairness.
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June 24, 2017

राम-माहात्म्य

राम-माहात्म्य
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एक राम दशरथ का बेटा,
एक राम घट-घट में बैठा,
एक राम का सकल पसारा,
एक राम सब जग से न्यारा,
एक राम फिर भी जगजीवन,
एक राम जगजीवनराम,
एक राम जगजीवन-बेटी
दूजे राम विरुद्ध की पार्टी,
एक राम भाजपा-विरोध,
एक राम भाजपा-पक्ष,
एक राम जनता-जनार्दन,
एक राम सत्ता सरकार,
एक राम जन-जन-आधार,
एक निरंजन निराकार,
एक राम न शून्य न एक,
एक राम लेकिन अनेक,
एक राम के भरोसे देश,
एक राम ही जगत-वेश ....
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चलते-चलते ...
बहरहाल, अयोध्या के राम तो देश / सरकार / न्यायालय के भरोसे ही हैं !
उनका तो उन्हें न माननेवालों, उनकी जन्म-भूमि पर अपने मत का भवन / स्थल (बाबरी मस्जिद) बनानेवालों तक से कोई झगड़ा नहीं है !
वे तो बस तमाशा देख रहे हैं ....!
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ज़ाहिद शराब पीने दे मसजिद में बैठकर
या वो जगह बता जहाँ पर ख़ुदा न हो !
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बनाने दे मुझे मसजिद मंदिर को तोड़कर,
या वो जगह बता जहाँ पर न राम हो !
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June 10, 2017

प्रतिनिधि कविता


प्रतिनिधि कविता
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क्या कविता मूलतः व्यक्ति और समाज के परस्पर द्वन्द्व से मुक्त नहीं हो सकती? यदि कविता किसी के पक्ष या विपक्ष की तुरही है, (और यहाँ पक्ष कवि का अपना ’सत्य’ भी हो सकता है -इससे इनकार नहीं), तो क्या वह ’मौलिक’ हो सकती है? क्योंकि किसी भी पक्ष या विपक्ष में होना चाहे वह कितना भी न्यायसंगत क्यों न प्रतीत हो, केवल प्रतिक्रिया होता है न कि प्रत्यक्ष संवेदन । पिकासो या हुसैन की कृतियाँ केवल प्रतिक्रियाएँ हैं, वॉन गॉग या राजा रवि वर्मा की कृतियाँ मौलिक सृजन है, जो किसी के पक्ष-विपक्ष में न होकर अन्तःस्फूर्त संवेदन की अभिव्यक्ति है, जो कोई ’निर्णय’ नहीं सुनाती, बस अपने संवेदन को यथासंभव शुद्ध रूप में अभिव्यक्त करता है ।
क्या कविता केवल व्यक्ति के संवेदन की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती जिसमें समाज केवल जीवन का एक अमूर्त अनिवार्य तत्व हो, न कि पक्ष या विपक्ष जिसमें व्यक्ति को उससे अलग देखा जाता हो?
कविता या कला के किसी उद्देश्य, आदर्श से प्रेरित और प्रतिबद्ध होते ही क्या वह व्यवस्था का एक यन्त्र नहीं बन जाती है और भले ही वह ’व्यवस्था’ को बदलने का आग्रह करती, ’व्यवस्था’ पर कठोर प्रहार करती दिखलाई देती हो, बल-युग्म (couple of forces) के विपरीत दिखाई देनेवाले दो बलों में से ही एक बल होती है । तब वास्तव में यह यथास्थिति को बनाए रखने में ही सहायक सिद्ध होती है । व्यवस्था का 'चक्र' इसी से शक्ति पाता  है।  लेकिन जब कला (और कविता) मौलिक और स्वतंत्र होती है तो व्यवस्था से अप्रभावित और अछूती अपने उल्लास में गतिशील होती है।  यह 'व्यवस्था' की सतह हिस्सा नहीं होती।
'व्यवस्था' है समाज, राजनीति, द्वंद्व, जहाँ मौलिक कला के लिए न तो कोई स्थान हो सकता है, और न इसकी उम्मीद की जा सकती है।  
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©vinayvaidya111@gmail.com

June 08, 2017

लिखना

लिखना
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क्या लिखना रोग (disease) या व्यसन (addiction) होता है?
यदि लिखना किसी उद्देश्य का साधन है तो यह मौलिक नहीं हो सकता । तब वह उद्देश्य ही मौलिकता को नष्ट कर देता है । यह उद्देश्य या तो कोई आदर्श या राजनैतिक, सामाजिक लक्ष्य होता है, या व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षा जिसके माध्यम से प्रतिष्ठा, धन, सत्ता / शक्ति को पाने की अभीप्सा लेखक को लिखने हेतु प्रेरित करती है । तब वह अभ्यास से शैली को सुधार-सँवारकर विषय के अनुरूप यद्यपि मोहक, उत्तेजक, भावोद्दीपक, सुन्दर प्रतीत होनेवाला, गंभीर और क्लिष्ट लेखन करने में सिद्धहस्त भी हो सकता है किंतु उसमें मौलिकता कहीं नहीं होती । एक कहानी-लेखक जानने लगता है कि कहानी की बुनियादी शर्त है ’मोड़’ (turn and twist) । क़मोबेश यही बात कविता पर भी लागू हो सकती है । ’चौंकाना’ या भावुकता के अतिरेक से किसी को प्रभावित करना न तो कला है, न साहित्य । दुर्भाग्य से आज का अधिकांश लेखन इसी प्रकार का है । और यह किसी भी भाषा के साथ हो रहा है । मौलिकता का एक उदाहरण है ’copyrighting’ जिसमें किसी ’विचार’ को किसी उत्पाद के प्रचार के लिए ’निर्मित’ और प्रयुक्त किया जाता है किंतु वहाँ भी मौलिकता बिकाऊ होती है जो शायद और अधिक अनैतिक, बुरा / गलत है । यहाँ तक कि वह शायद प्रतिभा का दुरुपयोग है । यही बात संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला आदि पर भी लागू होती है । कला जब ’उपभोग’ की वस्तु (consumer good commodity) हो जाती है तो उसमें मौलिकता का तत्व वैसे भी गौण हो जाता है ।
दो दिन पहले मैं you tube पर Rajya Sabha T.V. का video 'Special Report' 'गुमनाम है कोई-  भाग 1 तथा 2) देख रहा था जिसमें फ़िल्मों के संगीतकारों की कृतियों का प्रदर्शन किया गया था । अवश्य ही बहुत श्रम के साथ उन्होंने ’संगीत’ को नई ऊँचाइयाँ दीं । एक विशेषज्ञ भारतीय संगीत के ’linear’ तथा पाश्चात्य संगीत के ’harmonic’ होने के अंतर को स्पष्ट कर रहे थे ।
यह ठीक है कि प्रयोग के द्वारा संगीत-रचनाओं (compositions) में ’नए’ प्रभाव लाए जा सकते हैं और उस स्तर पर कलाकारों की प्रतिभा का सम्मान भी होना चाहिए, किंतु क्या उसमें ’मौलिकता’ है?
यही प्रश्न ’लिखने’ पर भी लागू होता है ।
क्या कहानी, कविता या उपन्यास, फ़िल्म, पैंटिंग, स्कल्पचर (शिल्प) पहले अमूर्त रूप में रचनाकार के हृदय / मस्तिष्क में ही नहीं होते जो अभिव्यक्त होने के लिए आतुर होते हैं? क्या गुरुदत्त ने  किसी 'लक्ष्य' को लेकर फिल्में बनाईं ? लक्ष्य तो बाद में समीक्षकों द्वारा आरोपित कर दिए जाते हैं  । मौलिकता किसी समीक्षा या लक्ष्य की मोहताज़ नहीं होती । यहाँ तक कि 'लक्ष्य' और 'समीक्षा' से रचना को प्रभावित होने देना तक सृजन का विपर्यय है  ।
क्या यही बात 'लिखने' पर भी नहीं लागू होती ?   
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