प्रतिनिधि कविता
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क्या कविता मूलतः व्यक्ति और समाज के परस्पर द्वन्द्व से मुक्त नहीं हो सकती? यदि कविता किसी के पक्ष या विपक्ष की तुरही है, (और यहाँ पक्ष कवि का अपना ’सत्य’ भी हो सकता है -इससे इनकार नहीं), तो क्या वह ’मौलिक’ हो सकती है? क्योंकि किसी भी पक्ष या विपक्ष में होना चाहे वह कितना भी न्यायसंगत क्यों न प्रतीत हो, केवल प्रतिक्रिया होता है न कि प्रत्यक्ष संवेदन । पिकासो या हुसैन की कृतियाँ केवल प्रतिक्रियाएँ हैं, वॉन गॉग या राजा रवि वर्मा की कृतियाँ मौलिक सृजन है, जो किसी के पक्ष-विपक्ष में न होकर अन्तःस्फूर्त संवेदन की अभिव्यक्ति है, जो कोई ’निर्णय’ नहीं सुनाती, बस अपने संवेदन को यथासंभव शुद्ध रूप में अभिव्यक्त करता है ।
क्या कविता केवल व्यक्ति के संवेदन की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती जिसमें समाज केवल जीवन का एक अमूर्त अनिवार्य तत्व हो, न कि पक्ष या विपक्ष जिसमें व्यक्ति को उससे अलग देखा जाता हो?
कविता या कला के किसी उद्देश्य, आदर्श से प्रेरित और प्रतिबद्ध होते ही क्या वह व्यवस्था का एक यन्त्र नहीं बन जाती है और भले ही वह ’व्यवस्था’ को बदलने का आग्रह करती, ’व्यवस्था’ पर कठोर प्रहार करती दिखलाई देती हो, बल-युग्म (couple of forces) के विपरीत दिखाई देनेवाले दो बलों में से ही एक बल होती है । तब वास्तव में यह यथास्थिति को बनाए रखने में ही सहायक सिद्ध होती है । व्यवस्था का 'चक्र' इसी से शक्ति पाता है। लेकिन जब कला (और कविता) मौलिक और स्वतंत्र होती है तो व्यवस्था से अप्रभावित और अछूती अपने उल्लास में गतिशील होती है। यह 'व्यवस्था' की सतह हिस्सा नहीं होती।
'व्यवस्था' है समाज, राजनीति, द्वंद्व, जहाँ मौलिक कला के लिए न तो कोई स्थान हो सकता है, और न इसकी उम्मीद की जा सकती है।
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