June 30, 2017

रोज़ हर रोज़ यूँ ही ...

आज की कविता
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रोज़ लगता है नया गीत लिखूँ,
जैसे सुबह रोज़ बोलता है पंछी,
देखकर होता है अचरज हर रोज़,
कैसे गाता है रोज़ नया गीत कोई,
उन सुरों में जो कि नहीं थे कल,
उन सुरों में कि जो न होंगे कल,
कैसे हर फूल रोज़ खिलता है नया,
उस रंग-रूप में कि जो नहीं था कल,
उस रंग-रूप में जो न होगा फिर कल,
रोज़ बदलता है आकाश लिबास,
कैसे हर रोज़ बदल जाती है पहाड़ी,
वो जो देखती है एकटक, मेरे घर को,
यूँ तो अख़बार भी बदलता है रोज़,
अपना चेहरा, वो खबरें हर रोज़,
जिनकी बोसीदग़ी नहीं जाती,
वो ही बासी, वही ऊब भरी खबरें,
जिनको पढ़कर खुशी नहीं होती,
पढ़के बेचैनी मेरी रूह की नहीं जाती,
और बस और भी बढ़ जाती है,
रोज लगता है नया गीत लिखूँ!
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1 comment:

  1. Bahut badiya sir ...jari rahe likhna...hamne aadat chodi aaj pachtaava ho raha hai 15 salon se ...pr jeevan ki jimmedariyan kabhi kabhi kisi mod per ghumaavdar ho kar ruk jaati hai fir se naye raste khojne hoten hai ...usimen ulajh gaya ...kher shubh shubh

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