March 31, 2021

सुदूर दूर तक...

कविता / 31032021

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सुदूर दूर तक है विस्तीर्ण व्याकुलता, 

और क्षितिज भी नहीं कहीं दृष्टिगोचर, 

असीम समुद्र, उद्विग्न अशान्त मन,

सुदूर दूर तक तट नहीं आता नजर!

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ज़रूरत / उम्मीद,

आज की कविता 

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पूरी हो जाए अगर, 

आज की ज़रूरत,

तो यही काफी है,

कल का भरोसा,

उम्मीद होना तो,

है दूर की बात!

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March 30, 2021

अपनी हस्ती



नहीं है नजर, आ रहा!

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अपनी हस्ती की वजह नहीं नजर आ रही,

अपनी हस्ती का सबब नहीं नजर आ रहा!

अपने वजूद की पहचान नहीं हो पा रही,

अपनी हस्ती का मतलब नहीं नजर आ रहा!

अपनी हस्ती कहाँ से, कैसे, और कब बनकर,

अपने आलम से, कैसे आलम में होती है महसूस, 

कहाँ है अपने से जुदा, कोई आलम नजर नहीं आ रहा!

वक्त का आगाज कहाँ से, कैसे, और कब हुआ होगा,

वक्त पर पर्दा कब गिरेगा, ये भी नजर नहीं आ रहा!

क्या मैं था उस वक्त, जब हुआ था वक्त का आगाज,

क्या मैं रहूँगा जब हो जाएगा वक्त, यहाँ से दफ़ा?

वक्त के होने का और न होने का मतलब क्या है,

ये तिलिस्म आख़िर क्या है, समझ में नहीं आ रहा!

राज ये वक्त का जाहिर है, या कि है पोशीदा कहीं,

काश समझा दे कोई मुझे, मुझको तो नहीं है आ रहा! 

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March 29, 2021

सच, झूठ, और वक्त

अगर वक्त का इतिहास नहीं है, 

तो वक्त का एहसास नहीं है, 

पर अगर वक्त का इतिहास है, 

ज़रूर फिर उसका, एहसास है। 

ये,  एहसास का होना, न-होना, 

तिलिस्म है, ख़याल भर है एक, 

ख़याल भी वक्त जैसा ही, 

फ़रेब धोखा है, -बेमिसाल है।

बस अगर बेख़याल हो जाएँ,

न एहसास है, न कोई वक्त ही है,

जो कि रुका हो, या कि फिर चलता हो,

कहाँ वहाँ कोई भी फिर सवाल है?

वो पूछते हैं मरने पे क्या होता होगा,

वही तो होगा, जैसा कि फिलहाल है!

हाँ, वो पहचान, वो याद भी न रहेगी,

लगती है जो सच, पर झूठ, -ख़याल है !

एहसास वक्त है, वक्त ही एहसास भी,

जैसा जीते-जी है, मौत के बाद भी! 

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एक चिथड़ा सुख

निर्मल वर्मा का लिखा यह उपन्यास मैंने सबसे पहले वर्ष 1985 के आसपास पढ़ा होगा। 

"तुम यह सब छोड़ क्यों नहीं देती?"

"क्या छोड़ना है?"

बिट्टी जवाब देती है। 

"थिएटर"

उसका भाई सोचता है पर कह नहीं पाता। 

बिट्टी सोचती है:

"क्या कहीं ऐसी कोई और दूसरी दुनिया है, इस दुनिया को छोड़कर जहाँ जाया जा सकता है?" 

बिट्टी के उस छोटे भाई को हर दो तीन में अचानक बुखार आता रहता है। बिट्टी न जाने किस उम्मीद में "डैरी" (डायरेक्टर) के थिएटर में अभिनय करती रहती है। 

एक और पात्र है जिसका नाम (शायद) "नितिन दा" है ।

वे "बहुत सफाई से" ब्लेड से कलाई की नस काटकर आत्महत्या कर लेते हैं। बाथटब में शान्तिपूर्वक अधलेटे से नज़र आते हैं, लगता है शायद उन्हें कोई वार्महोल मिल गया है! शायद वे उस दूसरी दुनिया में चले गए हैं। 

बहुत साधारण सी कहानी है इस उपन्यास की, जिसमें रोमांच, उत्तेजना या भावुकता का कोई स्थान नहीं है। 

केवल एक मनःस्थिति है जिसमें हर एक पात्र अपनी भूमिका जी रहा होता है। सभी एक दूसरे से अलग अपनी दुनिया में जीते हुए भी किसी एक कॉमन दुनिया को शेयर कर रहे होते हैं, फिर भी किसी से जुड़ नहीं पाते। 

क्या सबके लिए ऐसी कोई एक कॉमन दुनिया (objective reality) वास्तव में कहीं होती भी है? 

आज के आधुनिकतम, विज्ञान में अब यह प्रश्न उठाया जाने लगा है, और कुछ वैज्ञानिक कह रहे हैं :

"Objective Reality does not exist!"

किन्तु वे यह प्रश्न नहीं उठाते, या इस प्रश्न की कल्पना तक उन्हें नहीं होती, कि फिर वह क्या है जिसका अस्तित्व है? 

Subjective Reality क्या है? 

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March 28, 2021

इस होली पर!

किसी ने भेजा मुझको! 

दिल टमाटर का!

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March 27, 2021

बहुत दिनों बाद,

 'आकाशगंगा' ब्लॉग में एक पोस्ट प्रकाशित किया। 

"अध्यात्म-रामायण", 

श्रीब्रह्माण्डपुराण, के उत्तरखण्ड में वर्णित रामकथा है। 

इसका प्रथम सर्ग है:

"रामहृदय"

उमामहेश्वरसंवाद के माध्यम से कही गई इस कथा में, 

अध्यात्म के तत्त्व का  सार 

भगवान् श्रीराम और माता सीता द्वारा, 

रामभक्त हनुमान् को दिया गया उपदेश है।

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आज ही इसे प्रस्तुत करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

सूचनार्थ यहाँ उल्लेख कर रहा हूँ। 

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March 25, 2021

उम्मीद है!

कविता 

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हो गई होगी कुछ कम अब तक तुम्हारी बेचैनी,

टल गई होगी होने से पहले ही वह अनहोनी ।

जलजले तो रोज ब रोज ही आया करते हैं,

थम गई होगी जमीं, ठहरने से पहले ज़िन्दगी। 

सिलसिला हर ख़त्म होता है वक्त आने पर,

हुआ था, होता है शुरू जैसे वक्त आने पर !

सोचते हैं हम कि क़ाश, न ख़त्म होता ये कभी, 

पर ये सोचना, ख़त्म हो जाता है वक्त आने पर!

सिलसिला क्या वाक़ई शुरू होता भी है कभी? 

और क्या किसी तरह, ख़त्म भी होता है कभी?

सिलसिला, क्या सिर्फ़ वहम, या ख़याल ही नहीं!

शुरू या ख़त्म होना क्या महज़ इत्तफा़क़ नहीं?

लम्हा भी क्या लमहों का सिलसिला ही नहीं!

देख लो तो फ़िर कोई शिकवा या गिला भी नहीं!

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March 17, 2021

मायूस और ग़मगीन!

कविता / 17-03-2021

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कब तक दोगे धोखा ख़ुद को, 

कब तक दिल को बहलाओगे? 

अपने जख्मों को, घावों को, 

कब तक यूँ सहलाओगे?

एक ओर यह खालीपन, 

वक़्त की कमी, दूसरी ओर,

एक ओर तो ओढे़ खुशी, 

एक ओर यह नकली ग़मी, 

ओढी़ हुई मास्क से तुम,

कब तक सबको भरमाओगे?

हाँ उनके भरमा जाने से,

हो जाए शायद तुम्हें यक़ीन,

कि वे भी हैं बिलकुल वैसे,

जैसे हो तुम, मायूस ग़मगीन!

कब तक इस झूठे नाटक में,

क़िरदार अपना निभाओगे?

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March 16, 2021

छन्दांसि यस्य पर्णानि !

यह जो स्मृति है,

बहुत बोलती है, 

कल्पना का घूँघट,

पट, खोलती है! 

कल्पना, दर्पण-अदृश्य,

दृष्टियों से तौलती है! 

शतरूपा की छवि, 

सतत डोलती है! 

मनु पुलकित-विस्मित, 

देखता अपलक-चकित!

लौट जाता मन उसका, 

अंततः होकर थकित!

रहस्य यह अवर्णनीय,

अनाकलनीय, अकथित!

श्रद्धा के दृष्टि-खग, 

उड़ते चञ्चल, विहग, 

देखते रहते जहाँ तक,

दृश्य का असीम पथ!

मनु लौट जाता अपनी, 

समाधि पर्णकुटी में, 

भूल जाता वह प्रपञ्च,

जो रचा था नटी ने!!

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March 15, 2021

कविता 15-05-2021

खयालो-तसव्वुर में...! 

किसी भी वजह से होता है वहम जुड़ने का,

खयालो-तसव्वुर में ही आसमाँ में उड़ने का, 

घड़ी दो घड़ी के लिए हो जाती है तसल्ली भी,

होता है अहसास भी वक्त के सिकुड़ने का। 

और जब वक्त गुजर जाता है तो लगता है,

लौट आया है वो खालीपन, जो कि पहले था, 

वो जुड़ना भी बीत जाता है छोड़ खालीपन पीछे,

होने लगता है मन, बीते वक्त की तरफ़ मुड़ने का,

वो अहसास खालीपन का जो रूह है ख़ामोशी की, 

उस खालीपन को, कौन कैसे, भर सकता है कभी?

उससे जुड़ना भी मगर हो सकेगा मुमकिन कैसे, 

हाँ उस अपनी रूह को अगर जान ले कोई भी कभी!

उस रूह का नहीं आगाज, और न है इंतहा उसकी, 

खयालो-तसव्वुर में लगता है, खालीपन जो टूटा हुआ,

खयालो-तसव्वुर की हदों से परे जाने पर ही लेकिन,

मिलन-जुड़ना होता है मगर असली रूह से अपनी!

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March 11, 2021

पावरी हो रही है!

आजकल हर जगह ही पावरी हो रही है, 

दुनिया हर जगह ही तो बावरी  हो रही है। 

कविताएँ खो गई हैं, सभी आजकल लेकिन 

बहुत सी जगहों पर, तो शायरी हो रही है! 

क्या पता पर है किसे, इसका क्या है मतलब,

या है कोई क्या इंतहा, पर, वाहवाही हो रही है!

इस सिरे से उस सिरे तक, हैं सभी ही परेशान,

हँस रहे हैं सब यहाँ, पर ज़िन्दगी तो रो रही है।

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योग-संयोग

ब्लॉगर में ही एक नया ब्लॉग :

'विवेकचूडामणि' 

लिखना आरंभ किया है । उसी पर सोचते हुए एक संस्कृत रचना बन पड़ी और उसे अपने 'स्वाध्याय' ब्लॉग में अभी ही पोस्ट किया। अभी उसका अनुवाद भी किया जाना है। शायद उसे यहाँ प्रस्तुत करूँगा।

आज की तारीख़ कैलेन्डर में देख रहा था तो ध्यान आया कि आज महाशिवरात्रि पर्व है। फिर ध्यान दिया तो पता चला आज प्रदोष की तिथि दोपहर ०२:४७ बजे तक है। तात्पर्य यह कि यह संस्कृत रचना अनायास, बिना किसी योजना के आज ही लिखी गई । अवश्य ही इसे एक पवित्र और शुभ योग-संयोग कहा जा सकता है ।

शिवमस्तु सर्वेषाम्।

पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ! 

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March 09, 2021

समीक्षा (हाय रे! सोच के दायरे!)


सोच पर एक कविता आज लिखी और पोस्ट की थी। 

एक मित्र के आग्रह पर इसकी समीक्षा प्रस्तुत है।  

क्या 'चेतना' सोचती या सोच सकती है?

क्या मस्तिष्क और स्मृति ही सोचने का यंत्र नहीं है? 

क्या चेतना वैयक्तिक तत्व है?

स्पष्ट है कि प्रत्येक मनुष्य का मन, मस्तिष्क, हृदय, स्मृति आदि किसी दूसरे से बहुत भिन्न होते हैं। मान्यताएँ और सामाजिक सांस्कृतिक आचार-विचार तो प्रायः और भी अधिक विविध प्रकार के होते हैं । किन्तु जो बात सबमें समान है वह है चेतना जो यद्यपि मन, मस्तिष्क, हृदय, स्मृति, भावप्रवणता आदि की आधारभूत नींव है, फिर भी उन्हें न तो कदापि प्रभावित करती है, और न उनसे कदापि प्रभावित होती है। यह वह जीवन्तता, प्राणवान प्रकाश है जिसमें ये सब अपनी अपनी क्षमता, शुद्धता और संस्कारों और परिस्थतियों के लिए अनुसार कार्य करते हैं। 

यहाँ तक कि चेतना वस्तुतः तो "मैं" विचार से भी रहित वह तत्व है जिसे सामाजिक भी नहीं कहा जा सकता। न यह राष्ट्रीय या वैश्विक तत्व ही है । फिर भी हर मनुष्य इसके अन्तर्गत और यह हर मनुष्य में विद्यमान है। एक ओर तो यह स्वयं ही अपने आपके अस्तित्व का प्रमाण है, किन्तु दूसरी ओर, यही पुनः अन्य सब के अस्तित्व का भी प्रमाण है। 

इसे केवल अंतर्दृष्टि से ही जाना जा सकता है और इसके लिए बहुत विद्वान या पंडित होना अनावश्यक है। 

कोई अनपढ़ भी अंतर्प्रज्ञा से इसे जान समझ सकता है, भले ही उसके पास वैसी पर्याप्त तीव्र तर्कबुद्धि या पर्याप्त ज्ञान न हो जैसा कि विद्वानों या पंडितों के पास होता है। 

सच तो यह है कि मनुष्यमात्र का सोच ही उसे दूसरों से अलग करता है, जबकि चेतना रूपी यह आधार नेपथ्य में रहते हुए भी सबमें विद्यमान एकत्व में गतिशील अन्तश्चेतना है।

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नए सिरे से!

आज की कविता 

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कोई भी साज़ उठाओ,  सुर छेडो़ नए सिरे से,

पुरानी धुनें ही न फिर फिर दुहराओ, नए सिरे से!

हाँ ये मेहनत, मशक्कत और है मिज़ाज अगर,

कर लो इसका भी रियाज कुछ, नए सिरे से! 

किसी भी और की रचना, गीत या ग़ज़ल कोई,

ये ठीक नहीं है बिलकुल, अपनी रचो, नए सिरे से!

फूटती है हर नई कविता, नए ही किसी अंकुर सी,

बीज बोकर के फिर उसे उगने दो,  नए सिरे से! 

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हाय रे! सोच के दायरे!

आज की कविता 

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"सोचता है कौन?" - यूँ भी क्या सोचा कभी! 

"सोचता है मौन, क्या?" -यूँ भी क्या सोचा कभी! 

'सोच' खुद ही सोचता है,  जाल बुनता और बनता है,

कारागार खुद ही खुद के लिए अपना खुद का बनता है।

अपने बनाए कारागृह में  खुद ही रहता है, 

नित ही धरकर नए रूप, ढलता बदलता है। 

कौन उसको समझाए,  -यूँ भी क्या सोचा कभी!

"सोचता है मौन, क्या?" -यूँ भी क्या सोचा कभी! 

"सोचता हूँ", -सोचना यह, नहीं है क्या कोरा वहम? 

'सोच' है, पर क्या हैं कोई, 'सोचनेवाले' 'मैं' या हम? 

यह वहम, बुनियाद भी तो नींव बिलकुल खोखली, 

'सोच' में ढल, 'सोच' सी बन, 'ठोस' लगती है भली!

है 'किसे' पर यह वहम,  -यूँ भी क्या सोचा कभी!

सोचता है मौन 'क्या',  -यूँ भी क्या सोचा कभी! 

दीए तले, नीचे अन्धेरा, थरथराना लौ के साथ,

ढूँढता है चैन, व्याकुल, पर न आए, उसके हाथ!

देखता है रौशनी, हर तरफ बिखरी हुई, 

पर न पाए देख लौ जो, जल रही निखरी हुई!

देख भी पाएगा, लेकिन, -यूँ भी क्या सोचा कभी!

दीप है क्या सोचता, -यूँ भी क्या सोचा कभी! 

'सोच' की अपनी रिहाई, कैसे खुद की कैद से! 

उसके बनाए, जिसमें कैदी, उसके ही संसार से!

उम्र-कैद ऐसी कि जिससे, मरने से ही होगी रिहाई,

मृत्यु क्या वह मुक्ति है, किसने कब ऐसी मुक्ति पाई!

मुक्त है क्या, सोचता, -यूँ भी क्या सोचा कभी!

सोचती है, मुक्ति क्या,  -यूँ भी क्या सोचा कभी? 

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March 08, 2021

कविता / सुबह की सैर!

दो लघु रचनाएँ

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कौतूहल अचरज भयौ,

अचरज भयो विषाद, 

जब जाकर संशय मिटौ,

तब ही मिटौ विषाद! 

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थोथा चना बाजे घना, 

अधजलगगरी छलकत जाय,

जब जागे तब होय सबेरा,

चेते जब तो ही दुःख जाय!

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March 07, 2021

चमत्कार (कविता)

जिस नदी में जल नहीं उसमें वो खेते हैं नाव, 

और यह भी सच है कि है, उसी तट(!) पर उनका गाँव!

उस नदी में द्वीप भी हैं, पर वे परस्पर हैं अलग,

और तट पर घाट भी हैं,  स्त्रियों पुरुषों के अलग! 

नाव पर लेकिन सभी, करते हैं मिल नौका-विहार,

चाँदनी रातों में अकसर, रात जब करती सिंगार!

कभी कभी जब चाँद का भी, मुँह टेढ़ा आता नज़र, 

कनखियों से देखते हैं सब, मुस्कुराकर परस्पर 

गूढ इसके अर्थ हैं, जो बूझ पाए, सो चतुर, 

और जो ना बूझ पाएँ, मुस्कुराते देखकर! 

और उस मुस्कान के भी, होते हैं कितने ही अर्थ, 

आलोचना, विवेचना, करते समीक्षा परस्पर!

रात्रि का नौकाविहार, चलता है सुबह होने तक,

नाव तट पर ही बँधी है, यह ध्यान आता है सुबह!

नाव खेते हैं वो लेकिन, इस नदी में जल नहीं!

हाँ ये अचरज भी किसी भी, चमत्कार से कम नहीं!

बुद्धि की यह नदी पहले, शुद्ध भी थी, थी अगाध,

पर समय के साथ-साथ, जमा होती रही गाद,

और फिर तो अंत में, वह खो गई सरस्वती,

पर है आशा, खोजेगा कोई यती भागीरथी !

और निर्मल वेदवाणी फिर से गूँजेगी सर्वत्र। 

है प्रतीक्षा आएगा वह ऋषि, कवि, या ऐसा मित्र! 

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March 03, 2021

अवसर (कविता)

नई चुनौतियाँ! 

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आपदा को अवसर बनाओ,

फ़ेस-बुक को फ़ेस-लिफ्ट, 

जब भी अवसर मिल जाए, 

अपने को दो कोई गिफ्ट!

केश-सज्जा, मुखमुद्रा से, 

बदल लो भाव-भंगिमा, 

अभिनय की प्रतिभा से,

संसार को ही बदल दो!

नेता से अभिनेता बन, 

अभिनेता से बन नेता, 

जननायक से सेवक बन,

वस्त्र-विन्यास बदल दो! 

सबका साथ, विश्वास सबका,

लेकर साथ चलते रहो, 

विफलता, असफलता को, 

सफलता में बदल दो!

चरैवेति चरैवेति इति,

धरकर उपनिषद् सूत्र, 

सूत्रधार बनकर तुम, 

युगावतार अटल हो! 

सड़क से संसद तक, 

संसद से बड़े पद तक, 

दिल्ली, वाराणसी से, 

अयोध्या से काशी तक!

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अतः पदं तत्परिमार्गितव्यम् ...

आपदामवसरङ्कुर्यादवसरं तत्संपदाम्। 

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यत्र श्रेयं समुपपद्यते।।

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आपदा को अवसर बनाओ, अवसर को संपदा,

मार्ग तब प्रशस्त करो, श्रेयस्कर हो जो सभी का।

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March 02, 2021

ख़ामोशी (कविता)

सरकार की ख़ामोशी भी कुछ कह रही है, 

हर तरफ़ उलटी बयार ही बह रही है! 

हरेक चेहरे पर मानों चढ़ी हुई है नका़ब,

हरेक साँस ही कोई घुटन सी सह रही है!

हरेक पल ही लगा रहता है अंदेशा नया,

हरेक फ़िक्र ही बेवजह, और वजह रही है।

हर तरफ़ अब तो दूरियाँ ही दूरियाँ हैं, 

किसी के दिल में अब कोई जगह नहीं है।

जिस तरह से हो सके, गुज़ार लो अब ज़िन्दगी,

ज़िन्दगी गुज़ारने को, अब कोई तरह नहीं है!

'सतह से उठता आदमी' देखा तो ये ख़याल आया,

उसके पाँवों तले, क्या कोई सतह नहीं है? 

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