March 09, 2021

हाय रे! सोच के दायरे!

आज की कविता 

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"सोचता है कौन?" - यूँ भी क्या सोचा कभी! 

"सोचता है मौन, क्या?" -यूँ भी क्या सोचा कभी! 

'सोच' खुद ही सोचता है,  जाल बुनता और बनता है,

कारागार खुद ही खुद के लिए अपना खुद का बनता है।

अपने बनाए कारागृह में  खुद ही रहता है, 

नित ही धरकर नए रूप, ढलता बदलता है। 

कौन उसको समझाए,  -यूँ भी क्या सोचा कभी!

"सोचता है मौन, क्या?" -यूँ भी क्या सोचा कभी! 

"सोचता हूँ", -सोचना यह, नहीं है क्या कोरा वहम? 

'सोच' है, पर क्या हैं कोई, 'सोचनेवाले' 'मैं' या हम? 

यह वहम, बुनियाद भी तो नींव बिलकुल खोखली, 

'सोच' में ढल, 'सोच' सी बन, 'ठोस' लगती है भली!

है 'किसे' पर यह वहम,  -यूँ भी क्या सोचा कभी!

सोचता है मौन 'क्या',  -यूँ भी क्या सोचा कभी! 

दीए तले, नीचे अन्धेरा, थरथराना लौ के साथ,

ढूँढता है चैन, व्याकुल, पर न आए, उसके हाथ!

देखता है रौशनी, हर तरफ बिखरी हुई, 

पर न पाए देख लौ जो, जल रही निखरी हुई!

देख भी पाएगा, लेकिन, -यूँ भी क्या सोचा कभी!

दीप है क्या सोचता, -यूँ भी क्या सोचा कभी! 

'सोच' की अपनी रिहाई, कैसे खुद की कैद से! 

उसके बनाए, जिसमें कैदी, उसके ही संसार से!

उम्र-कैद ऐसी कि जिससे, मरने से ही होगी रिहाई,

मृत्यु क्या वह मुक्ति है, किसने कब ऐसी मुक्ति पाई!

मुक्त है क्या, सोचता, -यूँ भी क्या सोचा कभी!

सोचती है, मुक्ति क्या,  -यूँ भी क्या सोचा कभी? 

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