March 16, 2021

छन्दांसि यस्य पर्णानि !

यह जो स्मृति है,

बहुत बोलती है, 

कल्पना का घूँघट,

पट, खोलती है! 

कल्पना, दर्पण-अदृश्य,

दृष्टियों से तौलती है! 

शतरूपा की छवि, 

सतत डोलती है! 

मनु पुलकित-विस्मित, 

देखता अपलक-चकित!

लौट जाता मन उसका, 

अंततः होकर थकित!

रहस्य यह अवर्णनीय,

अनाकलनीय, अकथित!

श्रद्धा के दृष्टि-खग, 

उड़ते चञ्चल, विहग, 

देखते रहते जहाँ तक,

दृश्य का असीम पथ!

मनु लौट जाता अपनी, 

समाधि पर्णकुटी में, 

भूल जाता वह प्रपञ्च,

जो रचा था नटी ने!!

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