यह जो स्मृति है,
बहुत बोलती है,
कल्पना का घूँघट,
पट, खोलती है!
कल्पना, दर्पण-अदृश्य,
दृष्टियों से तौलती है!
शतरूपा की छवि,
सतत डोलती है!
मनु पुलकित-विस्मित,
देखता अपलक-चकित!
लौट जाता मन उसका,
अंततः होकर थकित!
रहस्य यह अवर्णनीय,
अनाकलनीय, अकथित!
श्रद्धा के दृष्टि-खग,
उड़ते चञ्चल, विहग,
देखते रहते जहाँ तक,
दृश्य का असीम पथ!
मनु लौट जाता अपनी,
समाधि पर्णकुटी में,
भूल जाता वह प्रपञ्च,
जो रचा था नटी ने!!
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