जिस नदी में जल नहीं उसमें वो खेते हैं नाव,
और यह भी सच है कि है, उसी तट(!) पर उनका गाँव!
उस नदी में द्वीप भी हैं, पर वे परस्पर हैं अलग,
और तट पर घाट भी हैं, स्त्रियों पुरुषों के अलग!
नाव पर लेकिन सभी, करते हैं मिल नौका-विहार,
चाँदनी रातों में अकसर, रात जब करती सिंगार!
कभी कभी जब चाँद का भी, मुँह टेढ़ा आता नज़र,
कनखियों से देखते हैं सब, मुस्कुराकर परस्पर
गूढ इसके अर्थ हैं, जो बूझ पाए, सो चतुर,
और जो ना बूझ पाएँ, मुस्कुराते देखकर!
और उस मुस्कान के भी, होते हैं कितने ही अर्थ,
आलोचना, विवेचना, करते समीक्षा परस्पर!
रात्रि का नौकाविहार, चलता है सुबह होने तक,
नाव तट पर ही बँधी है, यह ध्यान आता है सुबह!
नाव खेते हैं वो लेकिन, इस नदी में जल नहीं!
हाँ ये अचरज भी किसी भी, चमत्कार से कम नहीं!
बुद्धि की यह नदी पहले, शुद्ध भी थी, थी अगाध,
पर समय के साथ-साथ, जमा होती रही गाद,
और फिर तो अंत में, वह खो गई सरस्वती,
पर है आशा, खोजेगा कोई यती भागीरथी !
और निर्मल वेदवाणी फिर से गूँजेगी सर्वत्र।
है प्रतीक्षा आएगा वह ऋषि, कवि, या ऐसा मित्र!
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