आज की कविता
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कोई भी साज़ उठाओ, सुर छेडो़ नए सिरे से,
पुरानी धुनें ही न फिर फिर दुहराओ, नए सिरे से!
हाँ ये मेहनत, मशक्कत और है मिज़ाज अगर,
कर लो इसका भी रियाज कुछ, नए सिरे से!
किसी भी और की रचना, गीत या ग़ज़ल कोई,
ये ठीक नहीं है बिलकुल, अपनी रचो, नए सिरे से!
फूटती है हर नई कविता, नए ही किसी अंकुर सी,
बीज बोकर के फिर उसे उगने दो, नए सिरे से!
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