सोच पर एक कविता आज लिखी और पोस्ट की थी।
एक मित्र के आग्रह पर इसकी समीक्षा प्रस्तुत है।
क्या 'चेतना' सोचती या सोच सकती है?
क्या मस्तिष्क और स्मृति ही सोचने का यंत्र नहीं है?
क्या चेतना वैयक्तिक तत्व है?
स्पष्ट है कि प्रत्येक मनुष्य का मन, मस्तिष्क, हृदय, स्मृति आदि किसी दूसरे से बहुत भिन्न होते हैं। मान्यताएँ और सामाजिक सांस्कृतिक आचार-विचार तो प्रायः और भी अधिक विविध प्रकार के होते हैं । किन्तु जो बात सबमें समान है वह है चेतना जो यद्यपि मन, मस्तिष्क, हृदय, स्मृति, भावप्रवणता आदि की आधारभूत नींव है, फिर भी उन्हें न तो कदापि प्रभावित करती है, और न उनसे कदापि प्रभावित होती है। यह वह जीवन्तता, प्राणवान प्रकाश है जिसमें ये सब अपनी अपनी क्षमता, शुद्धता और संस्कारों और परिस्थतियों के लिए अनुसार कार्य करते हैं।
यहाँ तक कि चेतना वस्तुतः तो "मैं" विचार से भी रहित वह तत्व है जिसे सामाजिक भी नहीं कहा जा सकता। न यह राष्ट्रीय या वैश्विक तत्व ही है । फिर भी हर मनुष्य इसके अन्तर्गत और यह हर मनुष्य में विद्यमान है। एक ओर तो यह स्वयं ही अपने आपके अस्तित्व का प्रमाण है, किन्तु दूसरी ओर, यही पुनः अन्य सब के अस्तित्व का भी प्रमाण है।
इसे केवल अंतर्दृष्टि से ही जाना जा सकता है और इसके लिए बहुत विद्वान या पंडित होना अनावश्यक है।
कोई अनपढ़ भी अंतर्प्रज्ञा से इसे जान समझ सकता है, भले ही उसके पास वैसी पर्याप्त तीव्र तर्कबुद्धि या पर्याप्त ज्ञान न हो जैसा कि विद्वानों या पंडितों के पास होता है।
सच तो यह है कि मनुष्यमात्र का सोच ही उसे दूसरों से अलग करता है, जबकि चेतना रूपी यह आधार नेपथ्य में रहते हुए भी सबमें विद्यमान एकत्व में गतिशील अन्तश्चेतना है।
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