खयालो-तसव्वुर में...!
किसी भी वजह से होता है वहम जुड़ने का,
खयालो-तसव्वुर में ही आसमाँ में उड़ने का,
घड़ी दो घड़ी के लिए हो जाती है तसल्ली भी,
होता है अहसास भी वक्त के सिकुड़ने का।
और जब वक्त गुजर जाता है तो लगता है,
लौट आया है वो खालीपन, जो कि पहले था,
वो जुड़ना भी बीत जाता है छोड़ खालीपन पीछे,
होने लगता है मन, बीते वक्त की तरफ़ मुड़ने का,
वो अहसास खालीपन का जो रूह है ख़ामोशी की,
उस खालीपन को, कौन कैसे, भर सकता है कभी?
उससे जुड़ना भी मगर हो सकेगा मुमकिन कैसे,
हाँ उस अपनी रूह को अगर जान ले कोई भी कभी!
उस रूह का नहीं आगाज, और न है इंतहा उसकी,
खयालो-तसव्वुर में लगता है, खालीपन जो टूटा हुआ,
खयालो-तसव्वुर की हदों से परे जाने पर ही लेकिन,
मिलन-जुड़ना होता है मगर असली रूह से अपनी!
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