October 31, 2022

जब तक...!

एक लंबी कविता, 31-10-2022

बुद्धि विस्मित, मति भ्रमित!

--------------©--------------

मन विकल, दृष्टि चंचल, चित्त व्याकुल हो रहा!

बुद्धि विस्मित, मति भ्रमित, विवेक जर्जर हो रहा!

--

यह मन जब तक मोहित है, 

तब तक विचलित तो होगा ही! 

यह मन जब तक विचलित है, 

तब तक यह भ्रमित भी होगा ही! 

कैसे होगा इसका यह मोह भंग?

क्या मोह-भंग होगा मन का? 

कैसे होगा इसका यह भ्रम भंग?

क्या भ्रम-भंग होगा मन का?

वह कौन है जिसका है यह मन?

कौन है, जो है मन का स्वामी?

अपना ही स्वामी है यह मन ?

या मन ही है, उसका स्वामी? 

यदि मैं या मन, यह हैं अभिन्न,

तो कोई 'मेरा' क्यों कहता है?

'मेरा मन मेरे वश में नहीं',

ऐसा उसको क्यों लगता है!

यह दुविधा आखिर किसकी है,

यह अपनी है, या मन की है?

क्या प्रश्न कभी उठा मन में?

क्या कभी उठा है यह सन्देह?

मन और 'मैं' दोनों ही का,

क्या आश्रय कोई और नहीं?

क्या कोई ऐसा और नहीं, 

जिसमें मन है आता जाता?

क्या कोई ऐसा ठौर नहीं,

जिसमें 'मैं' है आता जाता? 

अगर कभी यह प्रश्न उठे तो 

समझो, तुमने कुछ पाया,

वह ठौर तो है नित्य अचल,

'मैं', मन तो चंचल छाया!

जो बनती मिटती रहती है, 

साथ ही साथ उभरती है,

सत्य उभरता ना मिटता,

छाया ही बनती मिटती है!

इसको जाना तो सब जाना, 

यह भूला तो जैसे सब खोया,

क्या यह खोता या मिलता हो,

इसका उत्तर किसने पाया?

यद्यपि बहुत विरल है प्रश्न , 

हल किन्तु सरल ही, है अवश्य!

मन केवल है चित्त की वृत्ति,

मन है, 'मैं' बस यह अहं-वृत्ति!

इन दोनों का ही जो प्रमाण, 

दोनों का ही, जो है साक्षी! 

चित्तवृत्ति का जो निरोध,

यही तो है पातञ्जल-योग!

चित्त प्राण का एक ही मूल,

चित्त प्राण से प्राण चित्त से! 

चित्त-वृत्तियों का यह निरोध,

होता है एकाग्र-चित्त से !

जब हो जाते हैं प्राण निरुद्ध,

चित्त भी हो जाता है निरुद्ध,

जब होता है चित्त निरुद्ध,

होते हैं प्राण भी तब निरुद्ध!

निरोध-सिद्धि, समाधि-सिद्धि है, 

समाधि-सिद्धि, एकाग्र-वृत्ति ही!

वृत्तिमात्र का जो परिष्कार है,

संयम यही तो आविष्कार है! 

वृत्ति शुद्ध हो, परिणत होना,

निरोध, एकाग्रता सिद्ध होना,

और समाधि में होना स्थित,

तीनों यह हैं परिणाम तीन।

पहला है एकाग्रता-परिणाम, 

द्वितीय है निरोध-परिणाम,

अंतिम है समाधि-परिणाम,

तीनों का मिलकर संयम नाम।

देह, श्वास, प्राण और मन, 

चारों चलते हैं साथ साथ, 

तीन रुकें तो भी है जीवन, 

चौथा सबको देता है साथ, 

जब चारों ही रुक जाते हैं, 

तो जो होता है परिणाम, 

उसे भी समाधि कहते हैं, 

मृत्यु भी उसका ही है नाम!

चौथे में ही तीनों का लय, 

चौथे से तीनों का उद्भव,

यह चौथा ही है अहं-वृत्ति, 

प्रति क्षण होता है, लय-उदय!

जब तक चलता है यह क्रम, 

जन्म-मृत्यु का यह बन्धन,

तब तक पीड़ा से नहीं मुक्ति,

तब तक बंधन है अहं-वृत्ति। 

यह पथ तो फिर बन्धन है,

लय-उद्भव अंतहीन क्रम है, 

मन का यह लय तो मुक्ति नहीं, 

यह जन्म जन्म का विभ्रम है!

मन केवल है चित्त की वृत्ति, 

यही 'मैं' तो है अहं-वृत्ति,

लय विनाश दो हैं परिणाम, 

बन्धन मोक्ष उन्हीं का नाम!

लय में होता है पुनः उद्भव,

नाश किन्तु है, मन का अन्त, 

नाश श्रेय भी, ध्येय भी है,

लय केवल बस हेय ही है!

जब हो जाता है मन का अंत, 

होता है प्रकाश ज्वलन्त,

आत्मा का परमात्मा का,

आकार-रूप उज्ज्वल, अनंत!!

जग है, तो उसका दृष्टा भी है,

दृष्टा है, तो जग यह दृश्य भी है,

जब दृष्टा-दृश्य का भेद नहीं,

दर्शन-दृष्टा का भेद नहीं।

दर्शन-दृष्टा का भेद नहीं,

तो दर्शन-दृश्य का भेद नहीं, 

जब तीनों में ही भेद नहीं, 

स्वरूप ही तब दृश्य-विलय !! 

***

 

 






October 30, 2022

सोचता हूँ, लिख ही दूँ!

कला और आस्था / विश्वास 

--------------©-------------

अमृता प्रीतम -- इस सुप्रसिद्ध नाम के आगे-पीछे कुछ लगाना अनावश्यक ही है। वैसे मैंने इनका जितना भी साहित्य पढ़ा है वह सब केवल हिन्दी में ही पढ़ा है! यह अलग बात है कि उनके लेखन में बहुत से उर्दू के शब्द भी अनायास पढ़ने को मिले। उनके बारे में जो कुछ भी पढ़ा वह एक हद तक विवादास्पद भी था। उनकी लिखी हुई जो भी दो तीन किताबें मैंने पढ़ीं, उनमें से "जेबकतरे", "एक खाली जगह" और "अक्षर-कुण्डली" ख़ास तौर पर मुझे याद हैं। जैसा कि मुझे याद है, शायद उनका संबंध "नागमणि" नामक किसी पत्रिका या किताब से भी रहा होगा।

अक्षर-कुण्डली नामक पुस्तक रहस्यपूर्ण / आध्यात्मिक विषयों और इन विषयों के विशेषज्ञों से की हुई उनकी बातचीत का ही एक संकलन है। इस बातचीत में विवादास्पद जैसा कुछ पाया जाना स्वाभाविक भी है, जिससे पुस्तक में उल्लिखित विषयों के वर्णन की प्रामाणिकता पर प्रश्न भी उठाए जा सकते हैं, किन्तु इस बारे में अंत तक कुछ सुनिश्चित नहीं कहा जा सकता है कि वह सब कितना और किस हद तक सत्य है! 

देवी-देवताओं के चित्रों के बारे में उस पुस्तक में एक महत्वपूर्ण बात यह कही गई है कि विज्ञापनों में इन चित्रों का जैसा प्रयोग किया जाता है वह अनुचित है। एक वाक्यांश है :

"समय के साथ ये तस्वीरें रुल जाती हैं।"

यह घटना इसलिए याद आई और जैसा कि दिखाई भी देता है, बहुत समय से, बहुत सी वस्तुओं, खासकर पूजा आदि सामग्री पर प्रायः ही किसी न किसी देवता आदि का नाम और चिह्न भी चित्र के साथ, या वैसे ही प्रदर्शित किया जाता है। 

क्या हमने कभी सोचा है, की उस सामग्री के उपयोग के बाद उस चित्र का क्या होता है?

किसी भी विशिष्ट पर्व पर पत्रिकाओं और अख़बारों में बड़े बड़े ऐसे विज्ञापन देखे जा सकते हैं, जिनमें देवी-देवताओं के बहुत बड़े बड़े चित्र होते हैं। अतः यह तो अवश्य ही विचारणीय है कि इन अख़बारों को रद्दी में खरीदने-बेचने से हमारी भावनाओं को ठेस क्यों नहीं लगती?

अभी एक चित्रकार मित्र ने ऐसा ही एक चित्रांकन किया। मन में प्रश्न उठा कि क्या यह कला है, धर्म, उपासना, साधना आदि है? जैसी कि परंपरा है, खासकर हिन्दू देवी-देवताओं के पर्वों और उत्सवों पर उनकी प्रतिमाएँ बनाई जाती हैं, और बाद में, उत्सव संपन्न हो जाने पर उन प्रतिमाओं को विसर्जित कर दिया जाता है। उन मित्र की उस कलाकृति का मूल्यांकन अवश्य ही अलग अलग दृष्टियों से किया जा सकता है। केवल कला की दृष्टि से, धार्मिक भावना की दृष्टि से और इस भावना से प्रेरित होकर उसे क्रय करने के इच्छुक लोगों की दृष्टि से भी इसका मूल्य लगाया जा सकता है। चित्रकार के मन में क्या है यह तो उसे ही पता हो सकता है। किन्तु क्या उसके मन में असमंजस नहीं होता होगा? शायद यह भी एक प्रश्न है, कि क्या ऐसी प्रतिमा का बाजार की किसी वस्तु की तरह कोई मूल्य तय किया जा सकता है? मन में यह प्रश्न भी आया कि क्या चित्र को कला की दृष्टि से, धार्मिक या आध्यात्मिक भावना की दृष्टि से भी नहीं देखा जाता है?

उस चित्रकार मित्र ने शायद ही इस तरह की कल्पना की हो, यह उसके लिए संभव ही नहीं हुआ होगा कि इस तरह से इस बारे में वह सोच सके। आस्था और कला के बारे में उसने शायद ही इस प्रकार से कभी कल्पना भी की होगी। और मैं इस  विषय में यदि अपने विचार उसके समक्ष स्पष्ट करूँ भी तो यह भी हो सकता है कि उसकी भावनाओं को ठेस लग जाए!

जहाँ तक प्राचीन मन्दिरों का प्रश्न है, बहुत से मन्दिर किस काल में निर्मित हुए कहना कठिन है, जबकि बहुत से अन्य ऐसे भी हैं जिन्हें मूर्तिभंजक आक्रमण-कारियों ने खण्डित कर दिया। यदि मन्दिर बनाए जाते हैं तो उन्हें उन तोड़नेवालों से बचाया जाना और उनकी रक्षा की जाना भी इतना ही आवश्यक है। यह भी सत्य है, कि कला के रूप में भी उनका अपना विशेष महत्व है। केवल कला की ही दृष्टि से वे संस्कृति और इतिहास की अमूल्य धरोहर होती हैं। उन विश्वासों और मान्यताओं को महत्व यदि न भी दें, तो भी कला की दृष्टि से उनका महत्व तो निर्विवाद रूप से स्वीकार करना ही होगा।

यहाँ तक कि जिन मजहबों और परंपराओं में मूर्तिपूजा को पाप कहा जाता है वे भी किन्हीं न किन्हीं आकृतियों, चिह्नों आदि को पवित्र और आराध्य तो मानते ही हैं। शायद इसीलिए रूढ़ि भी स्थापित हुई होगी कि शत्रु समझे जानेवाले धर्मों, रीति-रिवाजों, संस्कृतियों आदि का नमोनिशान तक मिटा दिया जाए। किसी अविकसित बर्बर, मूढ-बुद्धि मनुष्य की दृष्टि में यह भी मजहब हो सकता है! वह अपने इस विश्वास पर इतना दृढ, और कट्टरता से बँधा भी हो सकता है कि दूसरों पर बल-प्रयोग करना भी उसे पुण्य का ही एक कार्य प्रतीत होता हो! इतिहास इस विडम्बना का साक्षी है।

इसलिए मन में प्रश्न उठा कि क्या कला की दृष्टि से भी चित्र या प्रतिमा का निर्माण करना ही वह मूल कारण नहीं है, जो अंततः उसके ध्वंस का कारण सिद्ध हो जाता है!

शायद यह प्रश्न कुछ लोगों की दृष्टि में व्यर्थ का शब्दाडम्बर मात्र ही हो, किन्तु फिर भी यह प्रासंगिक तो है ही, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। 

***




October 19, 2022

मृत्यु और यमधर्म

कला, कल्पना, आकलन, और कल

-------------------©------------------

जिसे कल कहा जाता है वह विगत दिन हो या भावी, आगामी आनेवाला दिन, कल्पित, स्मृति पर आधारित और भावी के रूप में पुनः होनेवाला उसका संभावित प्रकार जो आज अर्थात् अज, अजन्मा, आदिरहित अनादि और अन्तहीन अनन्त वर्तमान है। यही सर्वत्र और नित्य सदा विद्यमान अस्तित्व है। चारों युगों का  इसी वर्तमान में सह-अस्तित्व है, किन्तु शरीर, मन, बुद्धि और संस्कारों के अनुसार मनुष्य अपने समय को उस युग विशेष के रूप में ग्रहण कर लेता है। मनुष्य की निज आत्मा में चारों युग एक साथ काल और स्थान से परे होते हुए भी इन्हीं के रूप में नित्य प्रकट और अप्रकट (होते रहते) हैं।

कथा सतयुग की :

मनुष्य की यह आत्मा इस आभासी समय में, जब सतयुग होता है, राजा हरिश्चन्द्र होती है। हरि अर्थात् हरण करनेवाला । मनुष्य की चेतना जो मूलतः ईश्वरीय चेतनारूपी प्रकाश की एक किरण है, देहधारी होकर इस संसार में जन्म लेती है। संसार-रूपी इस अंधकारपूर्ण रात्रि में वह वैसे ही सुशोभित होती है, जैसे रात्रि में चन्द्रमा सूर्य से प्रकाश चुराकर संसार में उसे विकीर्ण करता है। चन्द्रमा के साथ कोई तारा ही उसकी गति का सूचक होता है। मनुष्य ही राजा हरिश्चन्द्र है, जिसकी बुद्धि तारारूपी होकर उस अंधकारपूर्ण रात्रि में उसका मार्गदर्शन करती है। राजा हरिश्चन्द्र की यही बुद्धि अर्थात् मति, रानी तारामति या तारामती है। राजा स्वप्नावस्था में देखते हैं, अर्थात् कल्पना करते हैं कि उनके महल के द्वार पर कोई अतिथि साधु आया हुआ है। वे उसका स्वागत करने के लिए द्वार पर जाते हैं।

"राजा! मैं तुमसे दान ग्रहण करना चाहता हूँ। बोलो, क्या तुम मुझे मेरी इच्छा के अनुसार दान देने में समर्थ हो!"

राजा विनम्रता से निवेदन करते हैं :

"महाराज! यह सब आप ही का है! मैं अपना यह संपूर्ण राज्य आपको दान में देता हूँ!"

साधुवेश में आए ऋषि विश्वामित्र हँसकर कहते हैं :

"राजा! अभी तो तुम सोए हुए हो और स्वप्न देख रहे हो! वचन दो कि जब तुम्हारी निद्रा टूट जाएगी, जब तुम जाग उठोगे, और जब तुम राजदरबार में अपने सिंहासन पर विराजमान होगे, तब मेरे द्वारा पुनः तुम्हारे समक्ष उपस्थित होने और तुमसे दान माँगे जाने पर तुम्हें इस वचन का विस्मरण नहीं होगा!"

"मुझे ऐसा विस्मरण कदापि नहीं होगा, मैं वचन देता हूँ!"

"तुम्हारा कल्याण हो!"

कहकर साधुवेश में आए ऋषि विश्वामित्र अन्तर्धान हो गए और राजा की निद्रा भी भंग हो गई।

यह विश्वामित्र कौन हैं? वे समस्त संसार का कल्याण करनेवाले समस्त संसार के मित्र ही हैं, जो पात्र मनुष्य को उसके कल्याण का वास्तविक मार्ग दिखाते हैं।

अभी राजा नित्यकर्म से निवृत्त होकर अपने दरबार में आकर अपने सिंहासन पर विराजमान हुए ही थे जब प्रहरी ने आकर उनसे निवेदन किया :

"महाराज की जय हो! कोई अतिथि साधु द्वार पर उपस्थित हुए हैं! इस विषय में आपका क्या आदेश है?"

राजा को तत्क्षण ही वह स्वप्न याद आ गया, और वे उठ खड़े हुए। द्वार पर आते ही उन्हें स्पष्ट हो गया कि यह वही साधु हैं, जिनका स्वप्न में उन्हें दर्शन हुआ था।

उन्होंने अतिथि साधुवेशधारी ऋषि विश्वामित्र को साष्टांग प्रणाम किया, सम्मानपूर्वक उन्हें भीतर ले जाकर आसन प्रदान किया, विधिपूर्वक उनकी पूजा-सत्कार करने के पश्चात् वे उनकी आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगे। 

"राजा! तुम्हें स्मरण है न कि स्वप्न में तुमने मुझे कौन सा वचन दिया था?"

"जी महाराज! मुझे भली प्रकार से याद है। मेरे लिए क्या आदेश है, कृपया कहिए!"

"राजा! तुम्हारे सत्य पर दृढ रहने के, और अपने द्वारा दिए गए वचन को पूर्ण करने के संकल्प से मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ। मैं दान में तुमसे तुम्हारा संपूर्ण राज्य प्राप्त करना चाहता हूँ। बोलो अपना वचन पूरा करोगे?"

राजा ने क्षण भर का भी विलंब न करते हुए कहा :

"महाराज! आपकी कृपा है, यह संपूर्ण राज्य बिना प्रतिदान की अपेक्षा किए, मैं आपको दान में दे रहा हूँ। यह मेरा संकल्प है।"

"तुम धन्य हो राजन्! तुम्हारा कल्याण हो।"

राजा हरिश्चन्द्र ने अपने मंत्रियों और सभासदों आदि को सूचना दी कि अब मैंने यह राज्य ऋषि विश्वामित्र को दान में दे दिया है और अब से वे ही इस राज्य के नृप और आप उनकी प्रजा होंगे। इसके पश्चात राजा अपनी प्रिय पत्नी तारामती और पुत्र रोहित को लेकर राज्य को त्यागकर वन को चले गए।

राजा का नाम हरिश्चन्द्र और उनकी रानी का नाम तारामती तो हमें ज्ञात ही है,उनके पुत्र का नाम था रोहित, जो ऋग्वेद-वर्णित भुवन-भास्कर भगवान् सूर्य हैं। सूर्य, जिन्हें उपनिषद् जगदात्मा कहते हैं। भू से भुवः तक की यात्रा यह है। 

मनुष्य की आत्मा जो पृथ्वी पर देहधारी राजा हरिश्चन्द्र के रूप में अवतरित हुई, तब संसार को त्याग कर वन में विचरण करने लगी। राजा हरिश्चन्द्र, रानी तारामती, और पुत्र रोहित।

वे वन के फल फूलों का सेवन करते हुए, तपस्वी जीवन व्यतीत करने लगे। आत्मा और परमात्मा की जिज्ञासा, चिन्तन, मनन और निदिध्यासन करने लगे।

आत्मा और परमात्मा के विषय में जिज्ञासा जागृत होने से पहले उनके मन में प्रश्न उठा :

'मन क्या है?'

तब उन्होंने इस पर मनन करना प्रारंभ किया। 

"मन का अर्थ है चेतना की गतिविधि।"

उन्हें अपने ही भीतर अनायास यह स्पष्ट हुआ। 

चेतना नित्य अविकारी अनादि और अन्तरहित वास्तविकता है, जबकि मन असंख्य शरीरों में उसका प्राणरूपी प्रकाश है। जैसे सूर्य का प्रकाश पूरे संसार को आलोकित करता है, वैसे ही इस अविकारी, नित्य चेतनारूपी सूर्य का प्राणरूपी प्रकाश शरीर के भीतर आभासी आत्मा (मैं-संकल्प) का रूप ग्रहण कर मनुष्य के अंतर्जगत् और अंतर्बाह्य जीवन को भी आलोकित करता है। "और मनन का अर्थ है धारणा :

-मन में किसी विषय को सम्यक धारण करना।"

तब, "नित्य क्या है, और अनित्य क्या है? इस पर उन्होंने मनन प्रारंभ किया।

नित्य विद्यमान प्रकट-अप्रकट, अविनाशी और अविकारी काल-स्थान निरपेक्ष चेतना पर ध्यान एकाग्र होने पर वे उस नित्य वस्तु में समाधिस्थ होने लगे जो, अत्यन्त निज है और जो कि समस्त भूतों की अपनी स्वाभाविक अन्तर्निष्ठा ही है।

तब उन्हें अपने नाम हरिः का गूढ अर्थ स्पष्ट हुआ।

हरति इति हरिः हरो वा...

जो हरण करता है वही हरि (विष्णु) या हर (शिव) है।

उस नित्य चेतन परमात्मा का ध्यास ही निदिध्यासन है, यह भी उन्हें स्पष्ट हुआ। रानी तारामती पतिव्रता धर्म का आचरण करते हुए पति की सेवा को ही एकमात्र कर्तव्य मानकर उस निष्ठा में दृढ थी। एक दिन बालक रोहित फूल चुनने समीप के उपवन में गया तो वहाँ सर्पदंश से वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। 

मृत्यु को प्राप्त होकर उसने यमराज के दर्शन किए और मृत्यु के विज्ञान का उपदेश उनसे ग्रहण किया ।

इसका ही एक उदाहरण कठोपनिषद् की मूल कथा में वाजश्रवा या उशना / उशन् के पुत्र नचिकेता के यमराज से हुए संवाद में दृष्टव्य है।  

तात्पर्य यह कि मनुष्य की आत्मा यद्यपि अविकारी, अविनाशी नित्य शुद्ध बोधस्वरूप चेतना ही है, किन्तु जड देह में उसका प्रकाश व्यक्ति-भावना रूपी अहंकार के रूप में उसका पुत्र है। जब आत्मानुसंधान या मृत्यु के रहस्यमय विज्ञान के माध्यम से मनुष्य आत्मा के विषय में जानना चाहता है और गंभीरतापूर्वक इस दिशा में प्रवृत्त होता है तो यह अहंकार विलीन हो जाता है और अपनी केवल शुद्ध चिरंतन नित्य निज आत्मा का उद्घाटन होता है।

इस कथा को यहीं समाप्त करना उचित जान पड़ता है। 

***







October 16, 2022

ज्ञात और अज्ञात

अज्ञात भय और अज्ञात का भय

-----------------©----------------

इस दृष्टि से मनुष्य (और सभी जड-चेतन प्राणिमात्र भी) ईश्वर से अधिक शक्तिशाली है कि वह ईश्वर को त्याग सकता है, किन्तु ईश्वर उसे नहीं त्याग सकता। 

किन्तु यह भी इतना ही बड़ा एक और सत्य है कि मनुष्य उसी वस्तु को त्याग सकता है, जिसे कि वह किसी न किसी रूप में जानता भी अवश्य हो। जिसे जानता ही नहीं उसके अस्तित्व को वह अस्वीकार तो कर सकता है, लेकिन इससे यह तो नहीं सिद्ध होता कि उसका अस्तित्व है ही नहीं! फिर यह भी सत्य है, कि कोई वस्तु है या नहीं, इसे तर्क एवं उदाहरण की सहायता से भी सुनिश्चित किया जा सकता है। ईश्वर के बारे में पहली कठिनाई तो यह है कि उसे जानने का आधार भी मान्यता, अनुमान और विचार और ही हो सकता है, न कि प्रयोग, जिससे यह प्रमाणित किया जा सके कि वह है, या नहीं है। अर्थात् अन्य सभी वस्तुओं की तरह ईश्वर प्रयोग का विषय नहीं हो सकता है। प्रयोग केवल इन्द्रियगम्य, मनोगम्य, भावगम्य और अनुभव, बुद्धि से जानी जा सकनेवाली वस्तुओं के संबंध में किया जा सकता है, और प्रयोग करने के लिए किसी न किसी काल्पनिक विचार को तात्कालिक रूप से पहले औपचारिक (tentative) सत्य की तरह स्वीकार करना होता है। फिर इसके बाद ही प्रयोग द्वारा उस विचार की सत्यता या असत्यता सिद्ध हो सकती है, और उसे ही प्रयोग का निष्कर्ष कहा जाता है।पुनः ईश्वर को किसी प्रयोग के निष्कर्ष के रूप में जानना भी इसलिए भी संभव नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई प्रयोग जिस विचार से प्रेरित हो सकता है, वह विचार भी स्मृति से ही उत्पन्न और स्मृति में सुरक्षित बौद्धिक स्मृति मात्र होता है। पहचान स्मृति है, और स्मृति ही पहचान है, क्योंकि स्मृति और पहचान दोनों ही परस्पर आश्रित एक विचार मात्र होता है। इस दृष्टि से समस्त बौद्धिक ज्ञान केवल सूचना (information / data) के ही रूप में सीमित होता है और उस सूचना से परे के बारे में वस्तुतः कुछ भी कदापि नहीं जाना जा सकता। ईश्वर के बारे में हमारे पास इसीलिए ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि वह है या कि नहीं है। इस दृष्टि से हम इतना ही कह सकते हैं कि ईश्वर को जान पाना मनुष्य की बुद्धि की क्षमता और सामर्थ्य से परे है। इस प्रकार, ईश्वर ज्ञात और अज्ञात भी है। ईश्वर को इस दृष्टि से ज्ञात कहना इसलिए उचित होगा क्योंकि समस्त ज्ञात किन्हीं अत्यन्त सुनिश्चित नियमों से परिचालित है, और इसी मौलिक मान्यता को आधार मानकर विज्ञान उन नियमों को आविष्कृत (discover) करता, और उन नियमों में सुसंगति (pattern) स्थापित कर अकाट्य रूप में उन्हें स्थापित कर सत्य कहता है। तात्पर्य यह, कि ये सभी नियम संगठित (compact) विधान (constitution) के रूप में सदा से अस्तित्व में हैं और उनका विधाता उनसे पूरी तरह से अभिन्न है। वह विधायी चेतना, जो कि विधाता (authority) और विधान (constitution) भी है, एकमेव अनन्य और आधारभूत सत्य है। किन्तु वह इस अर्थ में ज्ञानस्वरूप भी है, कि उसके सन्दर्भ में ज्ञाता (knower) और ज्ञात (known) एक दूसरे से वैसे भिन्न नहीं हैं जैसा कि समस्त सांसारिक तथाकथित ज्ञान और तथाकथित विज्ञान में भी अनिवार्यतः पाया जाता है। यदि इसे ईश्वर कहा जाए, तो भी यह ईश्वर के बारे में एक निष्कर्ष ही होगा, न कि ईश्वर का वैसा प्रत्यक्ष ज्ञान, जैसा कि वह वस्तुतः है। नियन्ता या विधाता कहते ही 'कहनेवाला' उससे पृथक् और भिन्न प्रतीत होता है, जबकि कहनेवाला 'यह' भी उससे ही परिचालित होने से, 'यह' और वह वस्तुतः एक दूसरे से अनन्य और अभिन्न भी हैं।

भय क्या है? भय, हमें अपने से भिन्न प्रतीत होनेवाली ही किसी न किसी वस्तु से हुआ करता है। वह कोई वस्तु ज्ञात या अज्ञात हो सकती है। जैसे पहले के किसी अप्रिय अनुभव की स्मृति से उत्पन्न होनेवाला भय, या भविष्य में किस अप्रिय घटना के होने की संभावना की कल्पना से उत्पन्न होनेवाला भय। अतीत और भविष्य नहीं, बल्कि उनकी कल्पना ही भय के उत्पन्न होने का एकमात्र कारण होता है। कल्पना के ही अनुसार वे अतीत और भविष्य भी हमसे अभिन्न भी और भिन्न प्रतीत होते हैं। इसीलिए इस प्रकार से उन्हें ज्ञात और अज्ञात भी कहा जा सकता है। 

क्या इसी प्रकार से, ईश्वर भी हमारे लिए एक ही साथ ज्ञात और अज्ञात भी नहीं है? क्या ईश्वर भी अतीत की स्मृति और भविष्य की कल्पना की ही तरह, एक ही साथ हमसे भिन्न और अभिन्न भी नहीं है? 

किन्तु ईश्वर एक ही साथ हमसे भिन्न और अभिन्न होता हो, यह कैसे संभव है? इसके लिए हमें अपने और ईश्वर में उभयनिष्ठ समानताओं और असमानताओं या भिन्नताओं पर ध्यान देना होगा। ईश्वर विधाता और विधायी चेतना है, जब कि हम उसके विधान से परिचालित चेतनामात्र हैं। चेतना हममें और ईश्वर के बीच विद्यमान उभयनिष्ठ समान तत्व (common element) है। किन्तु ईश्वर हमारी कल्पना, स्मृति, भावनाओं, विकार, बुद्धि आदि तत्वों से नितान्त अछूता और अनभिज्ञ भी है। चेतना की ही तरह, निजता और नित्यता भी ईश्वर में और हममें विद्यमान उभयनिष्ठ वास्तविकता है। इसलिए किसी दृष्टि से तो हम ईश्वर से अनन्य और अभिन्न हैं, तथा दूसरी किसी दृष्टि से भिन्न और पृथक भी हैं। इस विरोधाभास को न समझ सकना ही किसी भी प्रकार के भय का एकमात्र कारण होता है।

***


October 15, 2022

कला, बुद्धि और धर्म

एक और त्रिवेणी

----------©----------

कला विद्या (skill) है, बुद्धि तर्क (logic), धर्म (justice) आचरण (behaviour) है, जबकि विवेक (conscience) दर्शन है। इनमें से कोई अकेला एक, कोई दो, या कोई तीनों भी मिलकर जीवन को तब तक सार्थक और सम्पूर्ण नहीं कर सकते जब तक कि चौथा भी उनके साथ न हो। कला, बुद्धि और धर्म प्रत्यक्षतः प्रतीत होनेवाले प्रकट स्थूल, सूक्ष्म और कारण तत्त्व हैं जबकि दर्शन उनकी अप्रकट, प्रच्छन्न पृष्ठभूमि है।  

कला अभ्यास से निखरती है, बुद्धि प्रयोग से कुशाग्र होती है, धर्म उचित-अनुचित न्याय पर ध्यान दिए जाने से फलित होता है, जबकि विवेक नित्यता-अनित्यता की परीक्षा / दर्शन करने से। रोचक बात यह है कि नित्यता-अनित्यता काल के सन्दर्भ में होती है, जबकि काल स्वयं बुद्धि में ही और बुद्धि स्वयं काल में ही पुनः पुनः व्यक्त और अव्यक्त, प्रकट और विलुप्त होते हैं। बुद्धि के सक्रिय होने पर ही काल की कल्पना कर पाना संभव होता है, और बुद्धि भी सीमित काल तक ही सक्रिय रह सकती है।

काल का मूल्याँकन आकाश / स्थान के मूल्याँकन का ही रूप है। कल् कल्यते कलयति कलनं इति कालः ... के अनुसार काल को घटना के आधार पर मापा जाता है। घट् घट्यते घटयति इति घटनं वा घटना ... के अनुसार दो या दो से अधिक घटनाओं के व्यतीत होने के अन्तराल की तुलना करने पर ही काल का मान निर्धारित किया जा सकता है, जो कि मूलतः काल का सापेक्ष मान (relative value) ही होता है।

इस सापेक्ष काल का सबसे अधिक विस्तारयुक्त प्रकार वर्ष होता है। रोचक तथ्य यह भी है कि वर्ष शब्द से स्थान के विस्तार को भी इंगित किया जाता है,  जैसे 'भारतवर्ष' में वर्ष भारत देश के भौगोलिक विस्तार का द्योतक है। इस प्रकार वर्ष एक घटना है। 

काल के अंश के रूप में वर्ष पुनः 12 मास का होता है । मास शब्द मा मीयते, मा धातु से मापने के अर्थ में प्रयुक्त किए जाने से बनता है। मास में दो पक्ष होते हैं और प्रत्येक पन्द्रह दिनरात्रि या अहोरात्र का मान होता है। एक अहोरात्र 60 घटी, घड़ियों या 24 घंटों (होरा / hours) के मान का होता है। प्रत्येक घटी पुनः 60 कलाओं (minutes) की और प्रत्येक कला (minute) 60 विकलाओं (seconds) का होता है। प्रत्येक विकला पुनः 60 पलों के मान की कही जाती है। (यहाँ यह क्रम अंश, कला, विकला और पल है, या अंश, पल, कला, विकला है, इस विषय में मुझे स्पष्ट स्मरण नहीं है।) 

अब कलाकः या कलाक या क्लाकः या clock  इसी 'कला' के रूप हैं जो पुनरावृत्तिपरक होने से निश्चयात्मक कला / विद्या ही है जिसे स्थान या देश के विस्तार में बिन्दु को केन्द्र मानकर रेखा द्वारा उसके चतुर्दिक परिभ्रमण करने से प्राप्त होते हैं। यह हुआ काल का भौगोलिक प्रकार। किसी सरल रेखा के एक सिरे को जब एक स्थिर बिन्दु की तरह केन्द्र मानकर उस केन्द्र के चारों ओर घुमाया जाए तो जो गोलीय विस्तार प्रकट होता है उसे अंश कहा जाता है। इन 360 अंशों के परिभ्रमण से रेखा पुनः अपने उसी स्थान पर आ जाती है, जहाँ से उसने परिभ्रमण प्रारंभ किया था । इसलिए एक वृत्त 360° का होता है। 24 होरा या घंटों में, या 60 घंटियों या घड़ियों में एक अहोरात्र पूर्ण होता है।

इस प्रकार के 15 अहोरात्र का एक पक्ष होता है और ऐसे दो पक्षों का एक मास (month).  ऐसे 12 मास का एक वर्ष या वर्त्त या आवर्त्त होता है। इसलिए देश या वर्ष को वर्त्त भी कहते हैं जो वृत् वर्त् वर्तते धातु से बनता है। आर्यावर्त, और इलावर्त या इलावृत्त ऐसे ही बने हैं।

बारह मास बीतने पर पृथ्वी अपनी कक्षा में उसी स्थान पर लौट आती है जहाँ से उसने सूर्य के चारों ओर अपनी कक्षा में घूमना प्रारंभ किया था।

इसे और विस्तार न देकर यहाँ केवल यही कहा जा रहा है कि काल (Time) और देश (Space) दोनों को ही एक ही प्रकार से मापने का यह एक तरीका है और काल, महाकाल के सन्दर्भ में जैसे पुनरावृत्तिपरक होता है, आकाश / स्थान भी उसी प्रकार महाकाश के सन्दर्भ में पुनरावृत्तिपरक होता है।और यह भी कि जैसे समस्त काल वर्तमान के इस क्षण (महाकाल) में समाया है, वैसे ही समस्त आकाश 'यहाँ' के रूप में एक बिन्दु में कीलबद्ध है।

विशेष यह कि ये दोनों माप कोणीय / angular, और वृत्तीय / circular माप, असीमित विस्तारयुक्त काल और स्थान को मापने के लिए एक साधन का कार्य करते हैं।

एक ओर स्थान के संदर्भ में बिन्दु (point) से रेखा (straight line) की उत्पत्ति, और बिन्दु और रेखा से तल (plane) की उत्पत्ति और रेखा तथा तल से त्रिआयामी स्थान (Space) की उत्पत्ति की विवेचना इस प्रकार से की जा सकती है, तो दूसरी ओर, कला, विकला, पल, अंश आदि के द्वारा काल (Time) की उत्पत्ति की विवेचना भी इस तरह से की जा सकती है। 

***


October 12, 2022

त्रिवेणी

काव्य-साहित्य-समीक्षा

------------©-----------

इस नदी में जल नहीं है! 

अस्तित्वरूपी नदी की, इसी त्रिवेणी की अभिव्यक्तियाँ क्रमशः आध्यात्मिक, आधिदैविक और अधिभौतिक रूपों में सरस्वती, गङ्गा और यमुना हैं। सरस्वती का अस्तित्व दृश्य और अदृश्य इन दो स्तरों पर है। दृश्य रूप कला और विद्या है, और अदृश्य रूप में यही चेतना है। चिति या चित् से निःसृत यही सरस्वती, चेतना के रूप में सर्वत्र व्याप्त तथा विद्यमान है, जबकि गङ्गा के रूप में यह चित्त अर्थात् मन, बुद्धि, अहंकार अर्थात् वृत्तिरूपा है। चिति ही चित् है जो कि चैतन्य पुरुष का स्त्री-रूप है। यम और यमुना, परस्पर भाई और बहन हैं। एक ही चैतन्य, चित्, या चिति ही इन तीन सरिताओं का उद्गम होता है। काल और यम दोनों का उद्भव सूर्य से होता है, और काल, मनु, और यम सूर्य की संतानें हैं। सूर्य का अस्तित्व आध्यात्मिक, आधिदैविक, और अधिभौतिक इन तीनों तलों पर भिन्न भिन्न प्रकार से है। 

उपनिषद् में जब कहा जाता है; - सूर्य ही जगतस्थ आत्मा है : "सूर्य आत्मा जगतस्थः"

तो तात्पर्य यह हुआ कि जिस जगत् में यह सूर्य स्थित है, उसका भी अस्तित्व आध्यात्मिक, आधिदैविक और अधिभौतिक है। 

त्रिआयामी यह अस्तित्व ही भू, भुवः और स्वः इन्हीं तीनों लोकों के रूप में जाना जाता है। भूः का तात्पर्य है : स्थूल, जड-जगत् या Material-World, भुवः का तात्पर्य है : सूक्ष्म-मनोजगत् (Mental-World) और स्वः का तात्पर्य है : कारण, अर्थात् स्व, या आत्मिक जगत् (Spiritual-World)। ये सभी जगत् जिस अधिष्ठान में अवस्थित हैं वह है -- अन्तरिक्ष (Cosmos, Cosmic World या Cosmetic World).

यह अन्तरिक्ष (Cosmos) इन तीनों लोकों में भीतर बाहर सर्वत्र है और तीनों लोक भी इसी अन्तरिक्ष से इसी प्रकार से अभिन्न हैं। यही संपूर्ण और समग्र रूप में 'अस्तित्व' है। इसी अस्तित्व में पुनः, भूः - अर्थात् जड-जगत - भूलोक, भुवः अर्थात् मनोलोक एवं 'स्वः' अर्थात् 'अपने होने' का, - अपने अस्तित्व के भान के रूप में विद्यमान अनायास प्राप्त होनेवाला यह स्वाभाविक बोध  है, जो कि नित्य ही स्वयंसिद्ध निजता के रूप में प्रत्येक प्राणी में होता है। यही अपनी निजता अर्थात् निज आत्मा ही है।

अब उस कविता :

"इस नदी में जल नहीं है!"

में अस्तित्व रूपी इसी नदी के, इसी त्रिवेणी-दर्शन के वर्णन का प्रयास किया गया है।

जड, चेतन और चैतन्य यही तीन आयाम (dimensions) ही दृश्य जगत् है।

इस कविता में नदी का लक्ष्यार्थ है प्रवाह, और वाच्यार्थ है जल, अर्थात् -- जीवन, जिसमें जड, चेतन और स्व की अर्थात् 'अपने' अस्तित्व की भावना, ये तीनों ही सम्मिलित और अभिव्यक्त हैं। 

जब अस्तित्व के बारे में विचार किया जाता है, तो उस सन्दर्भ में सम्पूर्ण और समग्र अस्तित्व और उसका विचार करनेवाला 'स्व' भी होता ही है, होना ही चाहिए भी। किन्तु विचार (thought)  का कार्य शुरू होते ही विचार का आभासी विभाजन :

- विचार करनेवाले 'विचारकर्ता' एवं विचार (करने के कार्य) में हो जाता है। इस प्रकार से विचार करने के कार्य में ही, विचारक की कल्पना के उठते ही, 'स्व' की स्वतन्त्र सत्ता अस्तित्वमान है ऐसी प्रतीति होने लगती है। 

स्पष्ट है कि इस पूरे घटनाक्रम को देखनेवाले दृष्टा का अस्तित्व तो असंदिग्धतः और अकाट्यतः स्वयंसिद्ध है ही, और उसे दृश्य रूप में नहीं जाना जा सकता ।

दृष्टा यद्यपि तीनों का आधार और अधिष्ठान भी है, उसे जानने, या देख सकने के लिए प्रत्यय का आश्रय लिया जाना आवश्यक ही है। इसे ही पातञ्जल योगदर्शन के साधनपाद नामक अध्याय के सूत्र : 

"दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।२०।।

के माध्यम से कहा गया है। 

दृष्टा, जो दृश्य में प्रच्छन्न, जिस पर दृश्य रूपी आवरण है, उसे यद्यपि देखा नहीं जा सकता किन्तु उसके अस्तित्व को प्रत्यय के माध्यम से परोक्षतः अनुभव किया जा सकता है। अपरोक्षतः भी उसका बोध, प्रत्यय के अभाव में दृश्य-विलय होने पर प्राप्त हो सकता है। इसे ही महर्षि पतञ्जलि द्वारा 'प्रतिप्रसव' कहा गया है और कैवल्यपाद के अन्तिम सूत्र में इसका ही वर्णन :

पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा या चितिशक्तेरिति।।३३।।

इस सूत्र में किया है। 

यह प्रतिप्रसव ही कैवल्यं है और इस निष्ठा को प्राप्त हुए मनुष्य के लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता और वह पुरुषार्थशून्य जैसा प्रतीत हो सकता है। 

वस्तुतः यही वह साङ्ख्यनिष्ठा है, जिसका गीता, अध्याय ३ में :

लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।। 

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।

इस प्रकार से वर्णन किया गया है।

यहाँ एक रोचक तथ्य यह भी है कि जो दृश्यरूप में अभिव्यक्त होता है उसमें दृष्टा विलीन प्रतीत होता है और अपरोक्षानुभूति में, अर्थात् दृश्यविलय होने पर उसे ही उस दृष्टा के रूप में भी जान लिया जाता है, जो दृश्य में अप्रकट और प्रच्छन्न है। 

***



October 11, 2022

पार कैसे जा सकोगे?

कविता : 11-10-2022

~~~~~~~~~~~~~~~~

अस्तित्व एक नदी! 

-----------©-----------

इस नदी में जल नहीं है,

नाव कैसे जा सकेगी!

तैर भी सकते हो कैसे,

पार कैसे जा सकोगे!

रेत ही है, रेत इसमें,

रेत पर पदचिह्न भी,

सतत बनते मिट रहे, 

कैसे उन पर चल सकोगे! 

इस नदी की रेत में,

मृत सीप, घोंघे, शंख भी हैं,

मोती, प्रवाल, पद्मराग,

माणिक अमूल्य रत्न भी हैं,

कहते हैं यह स्वर्णरेखा, 

इसमें स्वर्ण की धूलि भी है! 

खोजनेवालों को इसमें,

अवश्य ही वह मिली भी है!

किन्तु पाकर उन सबको भी,

क्या प्यास तुम बुझा सकोगे! 

दूर तक फैली है सरिता,

शुष्क सूखी रेत की,

कभी तपती, कभी चुभती,

भूमि भूखी, है खेत की, 

इस भूमि में जल कहाँ है, 

फ़सल क्या उगा सकोगे!

बीज भी हों पास लेकिन,

फल कोई क्या पा सकोगे!

रेत के विस्तार में,

क्या चलोगे, कहाँ तक,

रेत ही बस रेत है,

दृष्टि जाती है, जहाँ तक!

दूर देता है दिखाई,

खूब जल बहता हुआ, 

और नभ है प्रतिबिम्बित,

जिसमें चमकता हुआ! 

जितना चलोगे उतना ही, 

वह दूर ही जाता हुआ,

मृग-मरीचिका यह जिसमें,

मृग प्यास से मरता हुआ!

प्यास मन-मृग की अपने,

कैसे तुम बुझा सकोगे!

रेत के सागर से कैसे, 

पार लेकिन जा सकोगे! 

ठहर जाओ रेत की ही,

थाह निचली खोज लो, 

यहीं पर इस भूमि को, 

इतना गहरा खोद लो, 

इसके नीचे ही छिपा है, 

अथाह जल, गूढ गहन,

जो तुम्हारी प्यास का, 

कर सकेगा नित्य शमन! 

धैर्य पर थोड़ा रखो,

और प्रतीक्षा भी थोड़ी, 

यही तो एक है रास्ता,

चिर शान्ति का, विश्रान्ति का!

और इस के सिवा कोई,

हल कोई क्या पा सकोगे!

पार कैसे जा सकोगे!

***



 



October 08, 2022

कौन महसूस कर सकता है!

वक्त और एहसास क्या है! 

-------------©---------------

Salvador Dali  की घड़ियाँ! 

--

वक्त भी फैलता-सिकुड़ता है जैसे,

उसका एहसास भी उसी तरह से !

जैसे कोई वक्त, किसी भी दूसरे से,

कभी छोटा या बड़ा भी नहीं होता!

और कोई एहसास भी कोई कभी,

नहीं होता छोटा या बड़ा, दूसरे से,

क्योंकि एहसास तो होता है हमेशा,

जागने में, सपने में, या फिर सोने में, 

इसलिए जब भी कोई सो जाता है,

वक्त भी उसका, सो जाया करता है,

एहसास भी उस वक्त के ही साथ,

इसलिए वक्त और एहसास उसका, 

दोनों हालाँकि फैलते-सिकुड़ते हैं! 

कोई छोटा या बड़ा नहीं होता है,

जैसा हम कहा-समझा करते हैं!

वक्त का एहसास हुआ करता है, 

एहसास महसूस किया जाता है, 

न वक्त कोई छोटा-बड़ा होता है, 

न उसका एहसास ऐसा होता है!

जब कोई वक्त कहीं नहीं होता,

जब कोई एहसास भी नहीं होता,

हमें कुछ महसूस भी नहीं होता,

तब भी हाँ हम होते हैं, बस होते हैं,

पर नहीं चीज़ वक्त जैसी कोई, 

नहीं होता एहसास जैसा भी कुछ, 

नहीं होता है महसूस जैसा भी कुछ,

न हम जागते होते हैं, न सोए हुए, 

न सपनों में, खयालों में खोए हुए,

नींद में नींद का एहसास नहीं होता, 

नींद में वक्त भी महसूस नहीं होता, 

क्या कहें नींद में हम जब होते हैं,

वक्त तब होता है, या नहीं होता? 

तब जो होता है, वह वही बस होता है, 

जो न बनता है, और न ही मिटता है!

जो नहीं फैलता या सिकुड़ता है,

जो न बनता है, न बिगड़ता है,

तो फिर जो भी है, बस वही भर है, 

जो उसको जानता है, वही भर है।

***




October 05, 2022

विजयादशमी / 05102022

नीलकण्ठ!

आज की कविता!

------------©-----------



इस भूमि पर ... !

कविता : 05-10-2022

स्मृतिशेष : सोचो, साथ क्या जाएगा?

--------------------©-----------------

इस भूमि पर चरण किसके टिक सके हैं?

आगत अनागत चरण किसके रुक सके हैं?

संवेग से जो युक्त थे, संकल्प जिनके साथ था,

वे बढ़ गए आगे, यहाँ क्या झुक सके हैं!

लक्ष्य के संधान में, अलक्ष्य के अनुमान में, 

जो मोह-भ्रम से युक्त थे, दंभ के अज्ञान में, 

पंकयुक्त इस भूमि पर, कंटकयुक्त इस पथ पर, 

ठहर गए इस भूमि पर, गर्व, हठ, अभिमान में,

धँसते चले गए गह्वर में, गर्त में, इस भूमि में, 

कर्तव्यपथ से च्युत हुए, निष्कर्ष में, परिणाम में!

यह पथ स्वयं अस्थिर, यह भूमि भी है चञ्चल,

कौन इस पर टिक सका, कौन कभी रुका अचल!

अनगिनत आगत अनागत, चरण इस पर चल चुके,

अट्टालिकाएँ भव्य भवन, इस भूमि पर, बना चुके, 

काल के प्रवाह में कुछ मिट गए, कुछ रह गए,

आगत विगत वे अनगिनत, चरण सब चले गए! 

***




October 04, 2022

नया अध्याय

क़िताब दर क़िताब / सोचता हूँ मैं! 

----------------©------------------

कविता 04-10-2022

--

सफ़े पलटते पलटते रुक गया हूँ,

क्या कोई अध्याय पूरा हो रहा है?

लगता है जैसे कि यह तो अन्त है, 

क्या कोई नया भी खुलने जा रहा है?

एक ही क़िताब तो होती नहीं!

एक ही क़िताब तो काफी नहीं, 

कोई रुक जाता है कैसे एक पर,

जो नहीं रुकता, उसे माफ़ी नहीं! 

दस्तूर क्या यह बदलना चाहिए?

क्या नई क़िताब होनी चाहिए?

क्या नए उनवान, इबारतें नईं,

क्या नए पैग़ाम, या संदेसे नए,

क्या नई कुछ बात होनी चाहिए?

क्या पुरानी को बदलना चाहिए?

वो अड़े हैं अपने इस इसरार पर,

वो डटे हैं करने को, तक़रार पर,

क्या कोई तबदीली होनी चाहिए, 

या इबारत पुरानी ही होनी चाहिए?

सच अगर कभी बदल सकता नहीं, 

लफ्ज़ो लहजा क्या बदलना चाहिए, 

अलग अलग जुबाँ अगर सबकी है, 

सच का मतलब भी बदलना चाहिए?

न्याय तो है यह कि सच की जीत हो, 

क्या कभी अन्याय होना चाहिए? 

क्या कोई क़िताब बदलनी चाहिए, 

क्या नया अध्याय खुलना चाहिए?

क्या है कोई लिख सके ऐसा नया!

क्या है कोई कर सकेगा सच बयाँ,

क्या कोई सच नया होना चाहिए!

क्या नई क़िताब लिखना चाहिए?

सोच का सच, क्या है सच का सोच?

सच का सोच, ही है क्या सोच का सच,

सोचते सोचते अब थक गया हूँ मैं,

क्या नया सोच मिलने जा रहा है?  

क्या नया अध्याय खुलने जा रहा है?

***







October 02, 2022

गङ्गा-स्तुति

औषधं जाह्नवीतोयं

वैद्यो नारायणो हरिः।।

यस्तु नित्यं स्मरेज्जीवो,

कुतो तस्य यमभयम्।।

--